विकास की राजनीति पर फिदा हुई दिल्ली
दिल्ली विधानसभा चुनाव में मतदाताओं ने आम आदमी पार्टी को एक बार फिर से बड़ा जनादेश दिया है। यह जनादेश खासतौर से उन नेताओं तथा उम्मीदवारों के मुंह पर तमाचा है जिन्होंने चुनाव के दौरान अथवा इससे पहले विवादित बयान देकर नफरत की राजनीति के बूते चुनाव जीतने की एक खतरनाक कोशिश की थी। सच जानिए तो दिल्ली जनादेश के कई मायने हैं जिसे घोर सांप्रदायिक पार्टी भाजपा समेत सभी राष्ट्रीय व क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को समझने की जरूरत है। इसमें कोई दो राय नहीं कि दिल्ली के मतदाताओं ने आम आदमी पार्टी का जो काम देखा है, उसकी काम करने की जो नीयत देखी है, उस पर अपना भरोसा जताया है। कहने का मतलब यह है कि कहीं न कहीं काम की राजनीति, सही मायने में विकास की राजनीति को लोगों ने पसंद किया है और भारतीय राजनीतिक परिवेश में यह बदलाव बहुत बड़ी चीज है, क्योंकि देश भर में इसका एक संदेश जाएगा कि जनता काम पर वोट करने लगी है।
'अनोखा राष्ट्रवाद' से परहेज करिए सरकार
कश्मीर में यूरोपीयन संघ के सांसदों को सैर-सपाटा की इजाजत देना, लेकिन भारतीय सांसदों और नेताओं को एयरपोर्ट से बाहर निकलने नहीं देना, क्या यह मोदी सरकार का अपना अनोखा राष्ट्रवाद नहीं है? सरकार शायद यह भूल गई कि लोकतंत्र में ऐसे बनावटी दौरे नहीं होते हैं। बड़ा सवाल यह कि आखिर कश्मीर में ऐसे हालात क्यों पैदा किए गए कि आपको विदेशी सांसदों के नजरिये का सहारा लेना पड़ा। भारत सरकार का यह कदम भारत और भारतीय लोकतंत्र की खराब तस्वीर को पेश करता है। सरकार को इससे बचना चाहिए।
मोदी सरकार का एक और दुस्साहस
मोदी सरकार का भारतीय संविधान में जम्मू कश्मीर से संबंधित धारा 370 को खत्म करने का ऐलान मोदी सरकार का एक और दुस्साहस भरा फैसला है। इससे पहले 2014 में पहली बार सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने नोटबंदी का फैसला लिया था। जिस तरह से नोटबंदी के दर्द से आज भी देश कराह रहा है, आने वाले वक्त में धारा 370 के दर्द का अहसास भी देशवासियों को होगा। धारा 370 को हटाने के साथ ही जम्मू कश्मीर का विभाजन कर जिस तरह से उसका पूर्ण राज्य का दर्जा भी खत्म कर दिया गया है यह पूरी की पूरी सियासत है और इससे आरएसएस, भाजपा, मोदी और शाह की नीति और नीयत पर सवाल खड़े होते हैं।
चौकीदार बेनकाब
जी हां! हम बात कर रहे हैं प्रधानसेवक और चौकीदार की उपाधि से खुद को विभूषित करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की। 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने जिस तरीके से विकास, भ्रष्टाचार, गरीबी और बेरोजगारी के मुद्दे को आधार बनाकर सवा सौ करोड़ देशवासियों के सामने विकास का जो रोडमैप पेश किया था और देश ने उसपर भरोसा कर एक बेहतरीन जनादेश दिया था, 2019 का चुनाव आते-आते सब हवा हो गया। मालेगांव ब्लास्ट केस में जेल की सजा काटने के बाद जमानत पर चल रहीं साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को भोपाल से भाजपा प्रत्याशी के तौर पर घोषणा और उसके बाद साध्वी के विवादित बयानों से उठे सवालों का चौकीदार नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से जवाब दिया है, वह अप्रत्याशित है। इस घटनाक्रम से खुद को देश का प्रधानसेवक और चौकीदार कहने वाला शख्स वाकई बेनकाब हो गया है।
मध्यस्थता पर कांव-कांव
अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद का फिलहाल अंत होता नहीं दिख रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता पैनल बनाकर मसले को कम से कम लोकसभा चुनाव तक तो टाल ही दिया है। विवाद में दो ही पक्ष हैं। दोनों पक्षों की नुमाइंदगी करने वाले नेताओं के कांव-कांव जब इस तरह से सामने आ रहे हों तो फिर मध्यस्थता पैनल में शामिल लोगों की मध्यस्थता का रिजल्ट किस रूप में सामने आएगा? सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। हां, एक बात जरूर होगी कि तब तक चुनाव हो जाएगें, नतीजे भी आ जाएंगे, नई सरकार का गठन भी हो जाएगा और फिर चार साल की छुट्टी। क्योंकि मुद्दा वोट की सियासत का जो है।
इमरान का पपेट शो!
अब तक पाकिस्तान के किसी भी वज़ीर ए आज़म ने खुल्लम-खुल्ला भारत को चुनौती देने की जुर्रत नहीं की जैसा कि इमरान खान ने की है। उन्होंने कहा है कि अगर पुलवामा हमले में भारत साजिशकर्ताओं के खिलाफ पुख्ता सबूत मुहैया कराता है तो उनकी सरकार एक्शन लेगी और अगर भारत हमला करता है तो उसका जवाब वो हमले से ही देंगे।
स्ट्रीट फाइटर की वापसी
ममता बनर्जी अपने उसी तेवर के साथ वापस आईं हैं जो उन्होने लेफ्ट की सरकार को बेदखल करने के लिए अपनाया था। 34 साल की सत्ता को उखाड़ने में ममता दीदी ने स्ट्रीट फाइटर का रूख अख्तियार किया था। वैसे पश्चिम बंगाल की सीएम की पहचान ही उनका ये जुझारू व्यक्तित्व है। 2008 में दीदी की यही फाइटिंग स्पिरिट टाटा मोटर्स को बंगाल से चलता कर गई थी। दीदी अनिश्चितकालीन हड़ताल पर बैठीं और सफल भी रहीं। अब जिस तरह से तृणमूल सुप्रीमो विपक्ष को एक झंडे तले लाने की जोर आजमाइश कर रहीं हैं और कोलकाता के पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार बनाम सीबीआई वाले मामले को डील कर रहीं हैं उससे निस्संदेह मोदी-शाह की भाजपा को सचेत होने की जरूरत है।
राहुल की कांग्रेस के लिए जनादेश के मायने
याद करें, ठीक एक साल पहले 11 दिसंबर 2017 को राहुल गांधी ने कांग्रेस की बागडोर संभाली थी। तब किसी ने ऐसी अपेक्षा ऩहीं की थी कि एक साल के छोटे से कार्यकाल में विरोधियों के तंज का शिकार होने वाले इस शख्स को लोग बांहें फैलाकर इस तरह से स्वीकार करेंगे। पांच राज्यों के चुनावी नतीजों से यकीनन भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी दोनों का वजूद बढ़ा है। पार्टी की जिम्मेदारियों में भी इजाफा हुआ है। 2019 की बिसात बिछ चुकी है और राहुल गांधी को सामने खड़े मोदी, शाह और भाजपा के साथ-साथ महागठबंधन की राजनीति और उसमें शामिल दलों व नेताओं की हर चाल को समझ-बूझकर चलने के लिए तैयार रहना होगा। कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में ऐसा करने में राहुल अगर कामयाब रहे तो यकीनन उनका कद और बढ़ेगा और नरेन्द्र मोदी के समकक्ष उनकी हैसियत को लोग गंभीरता से देखेंगे।
संघ का अविश्वास
हाल ही में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की ओर से दो ऐसे बयान आए हैं जो देश के संविधान के प्रति उसके अविश्वास को दर्शाते हैं । सरसंघचालक मोहन भागवत ने डंके की चोट पर कह डाला है कि उन्हें देश की न्याय व्यवस्था पर विश्वास नहीं है। उन्होंने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर उंगली उठाई है तो एक बार फिर राम मंदिर के जरिए हमारे संविधान को चुनौती देने का काम किया है। उन्होंने कहा है कि राम मंदिर पर अलग कानून बनाने की जरूरत है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने राम मंदिर को लेकर कहा कि राम मंदिर का बनना गौरव की दृष्टि से आवश्यक है, मंदिर बनने से देश में सद्भावना व एकात्मता का वातावरण बनेगा। तो क्या संघ प्रमुख के इस बयान को सरकार और कोर्ट पर दबाव बनाने की राजनीति ना करार दिया जाए?
तो ऐसे होगा सबका विकास!
भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने मिशन 2019 को लेकर अपनी मंशा जाहिर कर दी है। बता दिया है कि वो फिर से हार्डकोर हिंदुत्व की बात करेंगे। जयपुर में उन्होंने अखलाक वाले उदाहरण के जरिए अपने स्टैण्ड को एक दम सही करार दिया। कहा कि उस वाकये के बाद हमें मिली जीत बताती है कि वो कोई मुद्दा नहीं था और पार्टी को नुकसान नहीं हुआ। क्या नुकसान और फायदे से परे देशहित सर्वोपरि नहीं रहना चाहिए?