...और मोदी ने यूं छीन ली बापू की जगह
किरण राय
अफसोस अब महात्मा गांधी भी नए बदलते, उभरते भारत की पहचान तले कहीं पीछे छूट गए। उन्हें उस खादी ग्रामोद्योग आयोग के कैलेंडर में जगह नहीं मिली जिस खादी की कल्पना उन्होंने की थी। खादी के जरिए भारत को एक सूत्र में पिरोने का सपना देखने वाले गांधी ने स्वदेशी अपनाओ का नारा दिया और अनगिनत संख्या में लोग इस नारे की भावना तले इकट्ठा होते गए। लेकिन अब मेरा भारत बदल रहा है और डिजिटल इंडिया में शायद खादी ग्रामोद्योग को भी अपना ब्रैंड अम्बेसडर बदलने की जरूरत महसूस हो रही है या फिर कहें कि महसूस कराई जा रही है और ऐसे में सब्जबाग दिखाने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से अच्छा चेहरा भला क्या होगा।
सो इस सरकारी उपक्रम ने सरकार की भावनाओं का खास ख्याल रखते हुए गांधी का चरखा अपने ब्रांड एम्बेसडर मोदी को थमा दिया है। इस नई करामात में आयोग के चेयरमैन को कोई खामी भी नहीं दिखती। बिंदास कहते हैं- मोदी खादी ग्राम उद्योग के ब्रांड एंबेस्डर हैं और खादी के प्रति उन्होंने दुनिया भर के लोगों का ध्यान दिलाया है। शायद गांधी ने भी नहीं सोचा होगा कि खादी इतना बड़ा ब्रांड बन जाएगा कि इसका चेहरा बनने को लालायित खुद देश का पीएम होगा। सवाल उठता है कि आखिर इससे देश के प्रधानमंत्री को क्या लाभ होगा? सरकार की भाषा में आयोग क्यों बोल रहा है और क्या बताना चाहता है और क्या इस तरह का कैलेंडर छपवा कर खादी ग्रामोद्योग ने प्रधानमंत्री का मखौल नहीं उड़ाया है?
गांधी ताउम्र एक आदर्श और एक विचारधारा के साथ जीते रहे। उन्होंने देश और इंसानियत को बांटने वाली सोच की मुखालफत की। गांधी की वो तस्वीर कौन भूल सकता है जिसमें एक दुर्बल सा दिखने वाला शख्स पुराने से चरखे पर सूत कात रहा है। सूत सिर्फ दिखावे के लिए नहीं बल्कि मन और तन की ताकत को दिखाने की एक नायाब कोशिश गांधी की उस तस्वीर में दिखती है। लेकिन अब जो तस्वीर दिखती है वो उस खादी की सोच के इतर है। यहां पीएम साफ सुथरे कपड़ों में चमकते चरखे पर सूत को कातने की कोशिश करते दिख रहे हैं पीछे कुछ महिलायें भी नजर आ रही हैं। जो नए बदलते भारत की सोच की धज्जियां उड़ा रहीं हैं। तो क्या पीएम इसी बदलाव की बात करते हैं? क्या तस्वीर का मतलब ये ना निकाला जाए कि महिलायें अब भी पिछली पंक्ति की हकदार हैं? गांधी की विचारधारा के अनुरूप तो नहीं है ये! गांधी की वो तस्वीर त्याग, समर्पण, समरसता, बराबरी, सत्य और अहिंसा की कहानी कहती थी लेकिन ये तस्वीर तो पुरुषवादी सोच की पोषक लगती है।
तो क्या भारत को मान लेना चाहिए कि अब बापू वाकई अप्रासंगिक हो गए हैं? क्या वाकई बापू की ब्रांड वैल्यू घट गई है? लेकिन अगर ऐसा होता तो ओबामा ये नहीं कहते कि- मैं गांधी की वजह से आज अमेरिका का राष्ट्रपति हूं, दुनिया की अज़ीम हस्तियां उनकी सिखाई को याद ना करती और बापू की विचारधारा के आगे नत-मस्तक ना होती।