जब शीर्ष अदालत रोए तो भगवान ही मालिक
किरण राय
जब से होश संभाला, चीजों को समझना बूझना शुरू किया तब से अब तक- पहले कभी भी शीर्ष अदालत को सरकार के आगे रोता नहीं देखा। ये देश का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है? न्याय की गुहार लगाने वालों की तो छोड़ें पर यहां तो न्याय देने वाला ही फूट-फूट कर रो रहा है, भला इससे ज्यादा दुखद और शर्मनाक क्या हो सकता है? इससे भी ज्यादा हैरत तब हुई जब 24 घण्टे बीत जाने के बाद भी इस अतिसंवेदनशील मुद्दे को लेकर सरकार की तरफ से कुछ एक्शन होता नहीं दिखा।
जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड अब पुरानी कहावत हो चली है। जब भी न्यायपालिका की बात होती है तो आम बोलचाल को प्रभावी बनाने के लिए इसी अंग्रेजी कहावत का प्रयोग किया जाता है। ये हमारे न्याय व्यवस्था की विवशता को भी दर्शाता है और CJI टीएस ठाकुर ने अपनी उसी विवशता को संबोधित करने की कोशिश की। मुख्यमंत्रियों एवं मुख्य न्यायाधीशों के वार्षिक सम्मेलन में जजों की कम संख्या का उल्लेख करते हुए प्रधान न्यायाधीश तीरथ सिंह का गला रूंधा, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी वहां मौजूद थे।
अपने संबोधन में जस्टिस ठाकुर ने देश की भलाई के लिए न्यायाधीशों की संख्या की बेबसी को बयान किया। उन्होंने कहा - 'मैं आपसे विनती करता हूं कि सिर्फ वादी के लिए नहीं... जेल में सड़ रहे गरीब वादी के लिए ही नहीं, बल्कि देश और प्रगति के लिए भी यह समझिए कि न्यायपालिका की आलोचना करना पर्याप्त नहीं है। आप सारा दोष न्यायपालिका पर नहीं डाल सकते।' सम्मेलन में प्रधानमंत्री के बोलने का कार्यक्रम नहीं था। लेकिन वे मंच पर आए। कहा कि समस्या के समाधान के लिए वे ईमानदारी से कोशिश करेंगे।
आस जगी कि पीएम हमारी न्याय व्यवस्था को सुधारने के लिए जरूरी कदम उठायेंगे। जस्टिस ठाकुर ने याद दिलाया कि 1987 में विधि आयोग ने हर 10 लाख की आबादी पर जजों की संख्या 10 से बढ़ाकर 50 करने की सिफारिश की थी। लेकिन उसके बाद भाषणों के अलावा कुछ नहीं हुआ।
प्रधान न्यायाधीश ने प्रधानमंत्री को कॉरपोरेट वादियों के लिए अलग कोर्ट बनाने की योजना पर भी संदेह जताया। उन्होंने साफ कहा कि ये योजना सफल नहीं होगी, अगर वर्तमान ढांचे के तहत ही ऐसे प्रयोग किए जाएंगे। फिर उचित ही यह ध्यान दिलाया कि एफडीआई हो या मेक इन इंडिया या विकास का कोई सपना, उनका साकार होना न्याय व्यवस्था के कारगर ढंग से काम करने पर निर्भर है।
सरकार को इन बातों को अपनी आलोचना के रूप में नहीं लेना चाहिए। यह दरअसल लंबे समय से इकट्ठा हुई वास्तविक समस्या है, जिसे वर्तमान सरकार को एक बड़ी चुनौती के तौर पर स्वीकार करना चाहिए। चीफ जस्टिस के बहते आंसुओं को जाया नहीं होने देना चाहिए। सरकारों को अब न्यायपालिका की अपेक्षाएं पूरी करने की कोशिश करनी चाहिए, वरना तो इस देश का भगवान ही मालिक है।