तो क्या विपक्ष को पीएम ने खुद थमा दिया ब्रह्मास्त्र !
किरण राय
8 नवंबर के रात 8 बजे के बाद देश में बहुत कुछ बदल गया है। इस तारीख ने देश में अफरातफरी का माहौल पैदा कर दिया। 500 रुपए और 1000 रुपए के नोट ही नहीं बदले बल्कि इस बदलाव ने हमारे देश की राजनीति की दशा और दिशा ही बदल कर रख दी है। केन्द्र में बैठी सरकार जहां अपनी पीठ थपथपा रही है वहीं विपक्ष लामबंद होकर सरकार की खटिया खड़ी करने की फिराक में है। ऐसा लग रहा है मानो सभी एक ही बैनर तले इकट्ठा हो गए हैं। इससे बड़े आश्चर्य की बात और क्या होगी कि पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष ममता बैनर्जी जिस लेफ्ट के खिलाफ राजनीति कर सूबे की सत्ता हासिल करने में सफल रही वही ही नोटबंदी के खिलाफ एकजुट होने के लिए लेफ्ट की तरफ हाथ बढ़ा रही है। इससे भी हैरानी की बात ये रही कि भाजपा की सहयोगी पार्टी शिवसेना भी केन्द्र के खिलाफ खुलकर मैदान में आ गई। ममता के सोलिडैरिटी मार्च में लगभग सभी दिखे। सवाल उठता है कि क्या प्रधानमंत्री ने विपक्ष को खुद पर हमला करने का ब्रह्मास्त्र थमा दिया है?
केन्द्र इसे डंके की चोट पर आमजनों की भलाई के लिए उठाया कदम बता रही है तो वहीं विपक्ष ताल ठोक कर इसे जन-विरोधी कदम बता रहा है। इस एक फैसले ने देश की राजनीति को सड़क पर ला दिया। यूं तो पहले भी कई मसले सड़क पर उठते रहे लेकिन ऐसा शायद पहली बार हो रहा है कि पीएम से लेकर आम सांसद तक जनता की अदालत में अपना पक्ष रख रहा है और अपना हाल बता रहा है। ऐसा नहीं होता तो पीएम बार-बार अपनी जन सभाओं में जनता का समर्थन नहीं मांगते, वो बार-बार काले कारोबारियों को नेस्तनाबूद करने का ढोल नहीं पिटते और ऐसा नहीं होता तो विपक्ष संसद में बहस के बजाए सड़क पर मार्च नहीं निकालता।
सड़क से संसद की ओर जाने वाला मुद्दा अब सड़क पर ही उठाया जा रहा है और इसे अमली जामा पहनाने की कोशिश भी यहीं हो रही है। संसद की सार्थक बहस से इतर हमारे राजनेता चाहें वो सत्तासीन हो या फिर विरोधी सभी गला फाड़कर अपना पक्ष जनता के सामने रख रहें हैं। ये संवैधानिक गरिमा के अनुरूप है या नहीं इस पर किसी का ध्यान नहीं लेकिन मुद्दा छिटक ना जाए इसकी परवाह सबको है। कांग्रेस, लेफ्ट, टीएमसी, आम आदमी पार्टी, सपा, बसपा सभी अपने-अपने तरीके से हमला बोल रहें हैं। कभी कांग्रेस उपाध्यक्ष बैंक जाते हैं तो कहीं प्रधानमंत्री की बुजुर्ग मां बैंक की कतार में दिखती हैं। भले ही ये कहा जाए कि ये प्रायोजित नहीं है पर क्या जनता इस पर विश्वास करेगी? और करे भी तो क्यों?
करेंसी बदलाव की घोषणा भले ही सरकार अपने लिए मील का पत्थर मान रही हो लेकिन एक सच्चाई ये भी है कि उसने बैठ-बिठाये अपने विरोधियों को एकजुट होकर लड़ाई लड़ने का मौका मुहैया करा दिया है। अब ये विपक्ष पर है कि वो इस मसले को कितना और किस हद तक भुना पाता है। उधर केन्द्र सरकार को भी चौकन्ना रहना पड़ेगा और ध्यान होगा कि सहस्त्रबुद्धि जैसे विद्वान नेता उसी जनता के खिलाफ जहर ना उगलें जिसके दर पर अब भी पार्टी दस्तक दे रही है।