ईमानदारी जीत का सर्टिफिकेट नहीं
किरण राय
देश के सबसे गरीब मुख्यमंत्री माणिक सरकार हार गए। देश की सभी पार्टियां और राजनेता इनकी ईमानदारी की तारीफ करते नहीं अघाते तो आखिर उन्हें हार क्यों मिली, ये सवाल मौजूं हो चला है। किसी भी राज्य की जनता को क्या चाहिए- एक साफ सुथरे व्यक्तित्व वाला मुखिया या फिर एक ऐसा राजनेता जो अपनी छवि से इतर लोगों की समस्याओं को संबोधित करे। शायद इस गरीब मुख्यमंत्री की हार की वजह भी उनकी नेकनियती रही। जिसने प्रदेश को नॉर्थ इस्ट का सबसे गरीब सूबा बना दिया।
बदलाव अवश्यंभावी था। भला 44 फीसदी गरीबी के आंकड़े वाले राज्य के लोगों से लेफ्ट क्या और क्यों उम्मीद रखता। चुनाव प्रचार के दौरान प्रबंधन में मंझी भाजपा ने त्रिपुरा के लोगों को वो सब दिखाया जो वो पिछले 25 साल से देखना चाह रहे थे। पार्टी प्रदेश के उन क्षेत्रों तक पहुंची जहां कोई ना पहुंच पाया था। प्रधानमंत्री के काफिले के साथ मीडिया पहुंचा और उस क्षेत्र की समस्याओं को पूरे देश के सामने रखा। एंटी इनकम्बैसी लहर ने ना सिर्फ लाल किले को ढहाया बल्कि उसके वोट प्रतिशत को 52 से 45 तक पहुंचा दिया। वहीं भाजपा का 2 फीसदी 43 प्रतिशत तक पहुंच गया।
एक और अहम वजह लेफ्ट की युवाओं से दूरी रही। इन 25 सालों में उसने प्रदेश में बेरोजगारी को लेकर कोई ठोस कदम नहीं उठाया। नतीजा ये हुआ कि इन पच्चीस सालों में पूरी की पूरी पीढ़ी जो पली बढ़ी उसने लेफ्ट के अलावा किसी और का शासन नहीं देखा। इस उपेक्षित युवा वर्ग ने 'चलो पलटाई' को आत्मसात किया और इस बार भाजपा को मौका देने का फैसला लिया। यकीनन ईमानदारी एक निजी गुण है इस पर त्रिपुरा के लोग अपने सीएम पर नाज तो कर सकते थे लेकिन उनका भला कैसे होता? उनकी आम आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे होती? ये नतीजा लेफ्ट को पार्टी से ऊपर उठकर सोचने की ताकीद भी करता है। महज बात करने और पार्टी का समप्रित कॉमरेड कहकर बात नहीं बनेगी उसे पुराने ढर्रे से उतर कर वर्तमान स्थिति के अनुसार खुद को संवारना होगा। नहीं तो उसका हश्र केरल में भी यही होगा।