जीत कर भी मात मिली
किरण राय
गुजरात और हिमाचल प्रदेश में भगवा झण्डा लहरा गया है। भाजपा ने गुजरात में 99 और हिमाचल में 44 का आंकड़ा छू लिया है। इन दोनों ही जगह में मोदी मैजिक के बदस्तूर कायम रखने की बात कही जा रही है। गुजरात में लगातार छठीं दफा सत्ता हाथ में होगी तो हिमाचल प्रदेश में रिवायतन पांच साल बाद दूसरी पार्टी काबिज होगी। लेकिन ऐसा इन चुनावों में बहुत कुछ हुआ है जो कई सबक और संदेश लिए है। जनता ने बता दिया है कि लोकतंत्र की ताकत क्या होती है। कहने को तो 20-22 साल बाद भाजपा का गुजरात जीतना एक मील का पत्थर है लेकिन ये भी सच है कि इन चुनावों में हर आम से लेकर खास तक मैदान में जुटा रहा। देश का प्रधानमंत्री रैलियों पर रैलियां करता रहा और पूरी मंत्रिमण्डल किला बचाने की जुगत में भिड़ी रही। किला इसलिए भी बचाना जरूरी था क्योंकि ये साख का सवाल था। इसे 2019 के मैंडेट के तौर पर देखा जा रहा था। कांग्रेस मुक्त भारत के सपने को पूरा करने की तरफ इसे अहम कदम माना जा रहा था। लेकिन जनता ने भाजपा और कांग्रेस के बीच महज बीस सीटों का फासला रहने दिया। कांग्रेस के लिए 1985 के बाद ये बड़ी कामयाबी है, इतनी सीट उसने 32 साल में भी हासिल नहीं की थी।
गुजरात की बात करें तो यहां का रण पहले दिन से ही सबके लिए अहम था। नतीजे बताते हैं कि जनता ने दोनों मुख्य राष्ट्रीय पार्टियों को मौका दिया। दोनों की सुनी और अपने अधिकार से फैसला भी सुना दिया। ना तो सत्ताधारी पार्टी को अपेक्षित सफलता दी और ना ही विपक्ष को पूरी तरह से खारिज किया। जो मोदी मैजिक की बात कर रहें हैं वो भूल रहे हैं कि पार्टी सैकड़ा बनाने से चूक गई। यहां कि जनता ने भी बता दिया कि ना तो वो विकास के दावों को नकारती है और ना ही सुनी सुनाई तारिफों पर यकीन रखती है। हैरानी इस बात पर भी है कि सत्ता पक्ष वाकई इस चुनाव में अपनी खूबियां और दूसरे की खामियां बताने में ज्यादा समय बर्बाद करता रहा। गुजरात कैसा हो, उसके भविष्य का भविष्य कैसा हो इस पर बात हुई नहीं। एक बार फिर क्षेत्रवाद, जाति और धर्म के नाम पर राजनीति खेलने तक सिमटाने की कोशिश की गई। भावनात्मक तरीके से जनता को प्रभावित करने की कोशिश हुई लेकिन परिणाम पक्ष में तो आया पर उतना नहीं जैसा एग्जिट पोल्स और खुद भाजपा बता रही थी। यहां जनता ने सबक तो कांग्रेस को भी सिखाया। उसने बताया कि केवल एक ग्रैण्ड ओल्ड पार्टी के तमगे की बिनाह पर चुनाव नहीं जीता जा सकता। केवल जातीय समीकरण सेट करके सेहरा माथे पर नहीं सजाया जा सकता। सफलता तभी मिलेगी जब जमीन पर आप दिखेंगे। हवा हवाई बात की जगह धरातल पर काम होता दिखेगा।
हिमाचल में कांग्रेस पहले से ही हार मान कर बैठी थी। रिवायत की दुहाई दी जा रही थी। हाल ही में घटी कुछ आपराधिक घटनाओं पर सरकार की खामोशी जनता को साल रही थी। भ्रष्टाचार के आरोपों को यहां विपक्ष बार-बार तूल दे रहा था। यहां भी प्रधानमंत्री और उनके मंत्रियों ने काफी परेड की। एग्जिट पोल भी नतीजों को भाजपा के पक्ष में जाता दिखा रहे थे। कोई भी कांग्रेस को 8 से 9 सीट देने को तैयार नहीं था। सूपड़ा साफ हो जाने का जुमला उछल रहा था। सत्तापक्ष आक्रामक कम था इसी का फायदा विपक्ष ने अच्छी रणनीति के जरिए उठाया। चुनाव नजदीक आते-आते भाजपा ने पॉपुलर डिमांड पर सीएम उम्मीदवार भी घोषित कर दिया। प्रेम कुमार धूमल को चेहरा बनाया। पार्टी आश्वस्त थी। लेकिन यहीं पर कहीं धोखा हो गया। सत्ता विरोधी लहर का फायदा पूरी पार्टी को मिला लेकिन धूमल हार गए। जीत कर भी पार्टी को मात मिल गई। जश्न तो मन रहा है लेकिन अधूरा, क्योंकि जिस चेहरे को अपना चेहरा बनाया उसे ही लोगों ने नकार दिया।
भाजपा खुश है कि उसे दो और राज्य मिल गए। प्रधानमंत्री खुश हैं...कह रहें हैं कि दरअसल, ये उनके रिफॉर्म का तोहफा मिला है। लोगों ने उनकी सरकार के जीएसटी और नोटबंदी जैसे कदमों को समर्थन दिया है। तभी वो दोनों ऐसे राज्यों में जीते जो व्यवसायिक रूप से समृद्ध है। इन सबके बीच भाजपा को शहर से हटकर गांवों की ओर भी देखना होगा। गुजरात में कांग्रेस ने शहर के मुकाबले सुदूर गांवों में काम करना शुरू कर दिया है जिसका नतीजा ग्रामीण इलाकों से उन्हें मिले वोट शेयर से जाहिर हो जाता है। जीत वाली मात का कारण यही रहा। तो सबक ये है कि अब पार्टी को थम कर सुदूरवर्ती गांव के गरीब किसान को लेकर भी संजीदा होना पड़ेगा, नहीं तो मिशन 2019 impossible भी हो सकता है।