कश्मीर की आत्मा को टटोले सरकार
किरण राय
श्रीनगर में 7 फीसदी मतदान, कश्मीरियों के दरकते विश्वास का प्रमाण नहीं तो और क्या है। पांच दशक में सबसे कम वोटिंग हमारे सियासतदां के चेहरे पर जोर का तमाचा है। इससे पता चलता है कि कश्मीर एक बार फिर अलगाववादियों की भाषा बोलने लगा है। अलगाववादियों का इकबाल बुलंद हो रहा है और लोकतंत्र के पाये हिलने लगे हैं। ये एक चेतावनी है। राजनीतिज्ञों के लिए। अब कश्मीर की मूलभूत आवश्यकताओं को लेकर नजर चोरी से काम नहीं बनेगा। खासतौर पर युवाओं के लिए रोजगार के नए अवसर मुहैया कराने के लिए ठोस कदम उठाना होगा।
उप चुनाव में जिस तरह से हिंसा का बोलबाला रहा, लोगों की जानें गईं उससे स्पष्ट है कि आवाम असंतुष्ट है। उसे सरकार पर भरोसा नहीं रहा है। श्रीनगर की इस सीट पर उप-चुनाव की वजह भी सांसद हामिद कारा का इस्तीफा था जिन्होंने बतौर जनप्रतिनिधि आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदिन कमांडर बुरहान के मारे जाने के बाद उपजी परिस्थितियों के विरोद्ध में पद छोड़ दिया था। सवाल उठता है कि क्या कारा के इस्तीफे की वो वजह अब भी कायम है? क्या 8 जुलाई के बाद जिस आग में कश्मीर जल रहा था वो अब तक नहीं बुझी है? अगर ऐसा है तो इस उप-चुनाव से पहले स्थिति को बेहतर करने के पुख्ता इंतजामात क्यों नहीं किए गए? क्या इसे राज्य सरकार की नाकामयाबी ना माना जाए?
जम्मू-कश्मीर ने एक ऐसा हिंसक उपचुनाव देखा, जिसमें दो सौ से ज्यादा घटनाएं हुईं, आठ लोगों की जान चली गई, लगभग सौ मतदानकर्मी घायल हुए और वोटिंग हुई मात्र सात फ़ीसदी। श्रीनगर लोकसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में ये सब हुआ, वो भी शायद इसलिए क्योंकि सरकारी मशीनरी मूक दर्शक बनी सब निहारती रही। दुख की बात ये कि मरने वाले आठ में से ज्यादातर किशोर थे। वो जो शायद अभी लोकतंत्र का ककहरा तक नहीं समझ पाते होंगे। जिन्हें ये समस्या क्या है, कितनी उलझी हुई है इसका भान भी नहीं होगा।
ये दौर सूबे की मुफ्ती सरकार और केन्द्र की एनडीए सरकार के लिए चुनौतीपूर्ण है। अलगाववादियों के मंसूबों को देखते हुए मई में प्रस्तावित पंचायती चुनाव कराना भी एक चुनौती है, क्योंकि यह जमीनी स्तर से जुड़े चुनाव हैं और इसका दायरा भी काफी बड़ा है। ऐसे में हरेक उम्मीदवार को सुरक्षा मुहैया करवाना काफी मुश्किल होगा। यहां तक कि पांच पूर्व सरपंचों ने सरकार से पहले ही सुरक्षा देने की गुहार लगाई है। वर्ष 2011 में पंचायती चुनाव के बाद आतंकवादियों ने चौदह सरपंचों की हत्या कर दी।
वैसे जम्मू-कश्मीर की सत्ता में भाजपा ने जब से भागीदारी की है, घाटी में तनाव कुछ अधिक देखने को मिल रहा है। मगर केंद्र की तरफ से इस स्थिति को सामान्य बनाने की पर्याप्त कोशिशें नहीं हुई हैं। घाटी में रोजगार की समस्या है, इसलिए वहां के युवा आसानी से अलगाववादियों और कट्टरपंथी नेताओं के बहकावे-उकसावे में आ जाते हैं। सो इसका रास्ता क्या है? इसकी राह कश्मीरियत को समझने, युवाओं के लिए रोजगार के नए अवसर मुहैया कराने और उनके मन को टटोलने से है। अलगाववादी नेताओं के मंसूबों पर पानी फेरने के लिए जरूरी है कि स्थानीय लोगों, खासकर युवाओं का भरोसा जीता जाए। आवश्यकता इस बात की है कि साझा प्रयास की ओर कदम बढ़ाया जाए, यानी सर्वदलीय बैठक कर कश्मीर के चश्मे से कश्मीर को समझा जाए। ये साझा प्रयास तुरंत करना होगा क्योंकि कश्मीर का टूरिज्म सीजन अब शुरू होने वाला है