आप का वो माइडस टच!
किरण राय
इन दिनों आम आदमी पार्टी उस दौर से गुजर रही है जो उसके लिए अकल्पनीय है। ठीक वैसे ही जैसे दिल्ली की सत्ता पर बम्पर जीत के साथ काबिज होना। एक दौर वो था जब सब आप के माइडस टच के कायल थे। माइडस एक यूनानी पौराणिक कथा का पात्र। कहा जाता है कि वो एक ऐसा राजा था जो जिस चीज को छूता था वो सोने का हो जाता था। आप के साथ भी कुछ वैसा था। जिस मुद्दे को पार्टी उठाती थी...उस पर सब विश्वास करते थे। यकीन होता था कि ये पार्टी विद डिफरेंस हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए सकारात्मकता का संचार करेगी। शिक्षा के बाजारीकरण पर लगाम, मुफ्त पानी और बिजली जैसे कई अति अहम मसलों पर दिल्ली सरकार ने जिस तरह से काम किया है वो काबिल-ए-तारिफ है। लेकिन इसके उलट अब वो अपनी उन नीतियों और रणनीतियों को लेकर उत्साहित नहीं है जो उसकी पहचान थी। उसकी ताकत और हिम्मत का सबब वो वोटर्स थे जिनसे हर मसले पर सवाल कर वो अपना अगला कदम तय करती थी। कांग्रेस के साथ सरकार बनानी है कि नहीं? उनका प्रतिनिधि कैसा हो? मुहल्ले की बेहतरी कैसे हो?...और ढेर सारे ऐसे मुद्दे थे जिस पर वो जनता जनार्दन की सुनती थी। आम लोगों को खास होने का एहसास कराती थी। वोटर को भी भरोसा हो चला था कि असली सरकार तो वो खुद है।
धीरे-धीरे पार्टी पर सत्ता का रंग चढ़ा या यूं कहें कि किसी की नजर लग गई, जो पार्टी बिखरती चली जा रही है। ये दौर आत्ममंथन का है। पार्टी के पदाधिकारियों को आगे बढ़कर सोचना होगा। राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल को खुले दिल से जिम्मेदारियां साझा करनी होंगी। यकीनन केजरीवाल की साफ सुथरी छवि उनकी पहचान है...वो पार्टी के स्टार प्रचारक हैं लेकिन अब उन्हें दूसरी पंक्ति के नेताओं को बढ़ावा देना होगा। कुमार विश्वास, आशुतोष, आशीष खेतान जैसे लोगों को उनकी काबिलियत के लिहाज से परखना होगा। रणनीति गढ़ते समय उन राज्यों पर ज्यादा ध्यान देना होगा जहां क्षेत्रीय पार्टियां ना के बराबर हैं। क्योंकि जितनी ज्यादा क्षेत्रीय पार्टियां उतना ज्यादा वोटों का बिखराव तय होता है। आने वाले दिनों में गुजरात, छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में चुनाव होने हैं। छत्तीसगढ़ छोड़ दें तो बाकी तीन राज्यों में बरसों से कांग्रेस और भाजपा का ही बोलबाला है। वोटर्स के सामने कोई तीसरी मजबूत बड़ी पार्टी नहीं है। आप के लिए यहीं मौका है उन्हें इन राज्यों पर ध्यान देना होगा।
पार्टी का एक धड़ा अब भी मानता है कि उसके अच्छे और काबिल साथियों का उनसे टूट कर जाना एक बड़ा झटका है। प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव जैसे रणनीति में माहिर लोगों की स्वराज्य इंडिया ने दिल्ली एमसीडी चुनावों में एक हद तक आप के वोट काटे हैं। निश्चित तौर पर ये समय है कि अपने बिछड़े दोस्तों से बातचीत की जाए और उन्हें वापिस आप में शामिल कर अपनी बिगड़ती छवि को दुरुस्त किया जाए। वहीं, इन दिनों पार्टी में आरोप-प्रत्यारोप का खेल भी जोरों पर चल रहा है। पार्टी में अंदरखाने मनमुटाव और मान मनौव्वल का अजीब सा दौर चल रहा है। सो अब जरूरत इस बात की है कि एक प्रशासनिक अधिकारी की तरह फैसला लेने की बनिस्बत समझदारी के साथ अपने बारे में नहीं बल्कि उस आम आदमी के लिए सोचा जाए जिसके लिए आप किसी पार्टी नहीं बल्कि एक विश्वास और भरोसे का नाम थी। पार्टी खुद सोचे कि उसके लिए जरूरी क्या है आम आदमी से जुड़े उसके सरोकार या फिर गुटबाजी? क्योंकि सवाल उस साख है, जो कईयों की आस से जुड़ा है।