प्रधानमंत्री जी! हिम्मत नहीं, विमर्श अहम है
किरण राय
अंग्रेजी की एक मशहूर कहावत है जिसका अर्थ कुछ यूं हैं कि- बहादुर से बहादुर आदमी भी शेर से तीन बार डरता है- पहले उसके पथमार्ग से, दूसरी बार उसकी दहाड़ से और तीसरी बार जब वो एक दम सामने आ जाता है। हमारे प्रधानमंत्री शायद इस कहावत से परे हैं। उन्हें ना तो गिरती अर्थव्यवस्था की चाल डरा रही है, ना दहाड़ और ना ही सामने दिखते नतीजे। सुब्रह्मण्यम स्वामी, मोहन भागवत, यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी ये सब कुछ ऐसे नामी गिरामी शख्सियतें हैं जिन्होंने प्रधानमंत्री को अर्थव्यवस्था की बिगड़ी डगर के बारे में आगाह करने का जोखिम उठाया, लेकिन पीएम ने पलट कर इन्हें नसीहत दे डाली और ऐसे लोगों को निराशावादी करार दे दिया। हिम्मत सिर्फ हमने दिखाई कह कर चुप कराने का जिगर दिखा डाला। लेकिन क्या ऐसा कह मोदी गांधारी बनने की कोशिश नहीं कर रहे? मुख्य समस्या से नजर हटाने की उनकी कोशिश कहीं किसी बड़े संकट की आहट तो नहीं?
जब पहले से खिंची लाइन छोटी हो तो उसके आगे एक बड़ी लाइन खींच डालें, देखिए आप कैसे पिछली लाइन को अपनी बुद्धि से छोटा कर देते हैं...ना किसी इरेजर की जरूरत... ना किसी काट छांट की। हमारे मिस्टर प्राइम मिनिस्टर कुछ इस सूक्त को जज्ब कर चुके हैं। तभी उन्होंने यूपीए 2 की असफलताओं और उसकी लगातार आठ बार गिरी जीडीपी का जिक्र किया। ये सब बताते हुए उन्हें याद रखना चाहिए था कि यूपीए 2 की यही भूल उन्हें 44 के आंकड़े तक ले गई।
जब देश के बड़े अर्थशास्त्री और जानकार विमुद्रीकरण, जीएसटी की टाइमिंग को लेकर सवाल खड़े कर रहें हैं तो निश्चित तौर पर सरकार को छींटाकशी से बचना चाहिए था। अच्छा होता कि सिस्टम उनकी बातों को तवज्जो देता। मैनेजमेंट का खेल ना खेलता। जिस तरह से हमारा सरकारी तंत्र और सरकार के शीर्ष मंत्री व्यवहार कर रहें हैं उससे यही लग रहा है कि सब असमंजस में हैं और इन्हें खुद को बीस साबित करने की फिक्र सता रही है।