दबाव की राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं नीतीश
किरण राय
नीतीश कुमार ने जनता दल युनाइटेड की कार्यकारिणी में जिस तरह पूरी धमक के साथ अपनी बात रखी और कहा कि 2019 में जदयू को नकारा नहीं जा सकता, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि वो भारतीय जनता पार्टी पर दबाव बनाने में जुट गए हैं। अब तक भाजपा के सहयोग के बाद जिस तरह नीतीश खामोश मुद्रा में दिख रहे थे, प्रधानमंत्री की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे सवाल उठता है कि उन्हीं जदयू अध्यक्ष ने अचानक ही अपने तेवर तल्ख क्यों कर लिए?
दरअसल, चुनावी मौसम में पार्टी कोई भी तीर निशाने से अलग नहीं लगाना चाहती। जानती है कि मोदी लहर के बावजूद 2015 के विधानसभा चुनावों में भाजपा बिहार में खुद को साबित नहीं कर पाई थी। उस समय जदयू लालू की राजद के साथ खड़ी थी। तब समीकरण बदला और फिर जदयू और भाजपा ने हाथ मिला लिया। अब उप-चुनावों में भाजपा का हश्र उत्साहजनक नहीं रहा है। सो एक बार फिर गणित अपने हिसाब से सेट करने का समय हाथ लग गया दिखता है। पार्टी अमित शाह के 12 जुलाई को पटना दौरे से पहले अपनी अहमियत का आभास कराना चाहती है। ऐसा नीतीश ही नहीं बल्कि पार्टी प्रवक्ता केसी त्यागी के उस बयान से भी होता है जिसमें उन्होंने कहा है कि मध्यप्रदेश और राजस्थान की चुनिंदा सीटों पर पार्टी अपने दम पर किस्मत आजमाएगी... ना तो भाजपा का विरोध करेगी और ना ही उसका सहयोग लेगी। बात साफ है कि ये घोषणा मोल-भाव के लिए तैयार रहने की ओर इशारा करती है।
वैसे नीतीश इस प्रेशन पॉलिटिक्स के मंझे हुए खिलाड़ी जान पड़ते हैं। तभी तो महागठबंधन से अलग होने के लंबे अंतराल के बाद उन्होंने हाल ही में लालू यादव से उनकी तबियत का हाल-चाल जाना। शायद वो इसे बहाने भाजपा को जताना चाहते थे कि रास्ते अभी खुले हुए हैं। दिल्ली में सम्पन्न हुई पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में वन नेशन वन इलेक्शन को लेकर केन्द्र का समर्थन और सिटीजन एमेंडमेंट बिल 2016 का विरोध करने को लेकर भी प्रस्ताव पारित किया गया। पार्टी ने स्पष्ट किया कि वो मानती है कि ये बिल देश को साम्प्रदायिक आधार पर बांटने वाला है जिसके साथ वो खड़ी नहीं हो सकती। इसके साथ ही जिस तरह नीतीश कुमार ने गिरीराज सिंह को बगैर नाम लिए खरी-खरी सुनाई उससे साफ है कि अपने पारम्परिक वोटर्स को खोने का जोखिम पार्टी नहीं उठाना चाहती। ये भी दिख रहा है कि जदयू अब नीतीश को बिहार का चेहरा (के सी त्यागी के मुताबिक) प्रोजेक्ट कर बिहारी अस्मिता के बहाने सियासी जंग जीतने को तत्पर है।
दरअसल, महागठबंधन से पहले नीतीश कुमार हमेशा बिहार में भाजपा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ते रहे हैं लेकिन अब स्थिति वैसी नहीं रही। 2014 लोकसभा चुनाव में भाजपा को 22 सीटें मिली थी,जबकि नीतीश कुमार की पार्टी 2 पर सिमट गई थी। सो कुल मिलाकर उनके पास मुद्दा सीट शेयरिंग और चेहरे का ही है, जिसे लेकर वो दबाव लगातार बनाए हुए हैं। योजना शायद उससे आगे की भी है। वो चाहते हैं कि 2019 लोकसभा चुनाव में ज्यादा सीट के साथ 2020 विधानसभा चुनाव के लिए उन्हें अभी से ही सीएम उम्मीदवार मान लिया जाए क्योंकि जानते हैं कि अब महागठबंधन में अगर वापसी हुई भी तो उनकी दाल नहीं गलेगी और वहां कमान तेजस्वी यादव को ही सौंपी जाएगी।