ये नतीजा बहुत कुछ कहता है
किरण राय
भले ही भाजपा खुश हो रही हो कि उसने जबरदस्त बाजी मारी हो। 10 में से विधानसभा की 5 सीटों पर विजय पताका फहराई हो, लेकिन इन्हें मानना पड़ेगा कि उप-चुनाव के नतीजे अगर कांग्रेस के लिए ज्यादा उत्साहवर्धक नहीं हैं तो भाजपा को भी ये नतीजे 2014 के चुनावों जैसी खुशी देने वाले नहीं हैं। पांच पर जीती तो पांच गंवा भी दी। कांग्रेस को भी अपनी राष्ट्रीय छवि को लेकर गहरा मंथन करना जरूरी है, वो भी 3 सीटों पर सिमटी है। पश्चिम बंगाल और झारखण्ड में ये दोनों राष्ट्रीय दल स्थानीय पार्टियों के आगे टिक नहीं पाए।
भाजपा के लिए भी ये समय आत्मचिंतन का है। वो इसलिए भी क्योंकि भगवा पार्टी मध्यप्रदेश, राजस्थान, हिमाचल, असम, दिल्ली में तो अपनी पक्की जीत को लेकर आशांवित थी तो वहीं येदियुरप्पा की अगुवाई में उसे कर्नाटक फतह करने का भी विश्वास था। अब पार्टी हार के बाद इसकी जिम्मेदारी सहानुभूति लहर के मत्थे चढ़ा रही है। कह रही है कि गुंदलूपेट से गीता महादेव प्रसाद अपने स्वर्गीय पति की सीट पर लड़ीं इसलिए जीत गईं। तो फिर सवाल उठता है कि कांग्रेस के दल बदलू श्रीनीवास प्रसाद का फायदा पार्टी क्यों नहीं उठा पाई? वो तो उसी नंजनगुंड सीट से हारे जिससे बतौर कांग्रेसी चुनाव जीत चुके थे। मनन करें तो इसका जवाब शायद दागी बीएस येदियुरप्पा के चेहरे के तौर पर मिल जाएगा।
इस बीच मप्र की अटेर सीट आखिरी क्षणों में गंवाना पार्टी की सेहत के लिए शायद उतना अच्छा नहीं होगा जितना दिखाने की कोशिश की जा रही है। हो सकता है पार्टी का थिंक टैंक इस बाबत नजर भी बनाए हुए हो। पार्टी निश्चित तौर पर देश की सबसे बड़ी पार्टी है लेकिन इन नतीजों ने जता दिया है कि केवल व्यक्ति विशेष के बल पर लम्बी पारी खेलना ठीक नहीं होगा।
आम आदमी पार्टी के लिेए भी एक सबक है। उसे भी समझना होगा कि हकीकत से परे रहकर बोलों के बल पर वो लम्बे समय तक टिक नहीं सकती है। उसे खुद को साबित करना होगा। कहा जा रहा था कि दिल्ली नगर निगम चुनावों से पहले विधानसभा उप चुनाव एक सेमिफाइनल है। अगर सेमिफाइनल जैसा नतीजा ही फाइनल का होगा तो केजरीवाल एण्ड कम्पनी को आत्ममंथन और चिंतन की ठोस प्रक्रिया से गुजरना होगा।