भारतीय राजनीति में राहुल 'अवतार'!
किरण राय
कांग्रेस में राहुल गांधी की बतौर अध्यक्ष ताजपोशी लगभग तय है। जल्द ही वो उस ग्रैंड ओल्ड पार्टी के सर्वोच्च पद पर आसीन हो जाएंगे जिसकी सुगुबुगाहट विगत 13 साल से महसूस की जा रही थी। कई बार टालते-टालते कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में आखिरकार प्रस्ताव पारित हो ही गया। लेकिन प्रस्ताव पारित होने में इतनी देरी की वजह क्या थी? क्या खुद पार्टी राहुल को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं थी- जिसमें वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष और राहुल की मां सोनिया गांधी शामिल हैं या फिर राहुल खुद तैयार नहीं थे? राहुल को जो भी नजदीक से देखते आए हैं...जिसने भी उनके राजनीतिक सफर को फॉलो किया है वो जानते हैं कि वो पिता की तरह ही एक नॉन पोलिटिकल शख्स हैं और सीधी सोच के साथ राजनीति करने में यकीन करते हैं।
भारतीय राजनीति में राहुल का एक नया अवतार हुआ है। ये अवतार अपने आप में बहुत कुछ कह रहा है। बीते 13 सालों में बतौर कांग्रेस कार्यकर्ता और उपाध्यक्ष उन्होंने कई बार खुद को समझने का प्रयास करते दिखे हैं। कई बार इस युवा गांधी की री-पैकेजिंग हुई है और इसे कई बार पूरी तैयारी के साथ लांच करने की कोशिश भी पार्टी करती दिखी है। कईयों को राहुल का राजनीति में पदार्पण बहुत आसान लग सकता है, उनकी प्रसिद्धि परिवार प्रदत्त थी। नेहरू-गांधी परिवार की चौथी पीढ़ी, ये क्या कम बड़ी उपलब्धि है! लेकिन गौर से समझें तो यही उनकी सबसे बड़ी दिक्कत भी रही। उनकी तुलना नेहरू, इंदिरा, राजीव या फिर सोनिया से होगी ये खुद वो भी जानते हैं और उनके रणनीतिकार भी। शायद इसलिए उन्हें जमीनी स्तर पर औरों के मुकाबले ज्यादा परिश्रम करना पड़ा। गांवों और शहरों को नापना पड़ा। ये सब कुछ उन्होंने किसी घाघ राजनीतिज्ञ की तरह नहीं बल्कि राजनीति के लिए गढ़ी गई आदर्श परिभाषा को ध्यान में रखकर किया। संबोधनों में, भाषण में या फिर किसी बयान में वो तंज, वो कसाव या फिर वो चातुर्य नहीं झलकता था बल्कि एक सीधा सपाट तर्क नजर आता था।
राहुल के सफर पर गौर करें- तो उनपर पिता राजीव की छवि साफ झलकती है। उनकी तरह ही बेलौस जनता से मिलना हो, किसी किशोरी को अपने प्रचार के दौरान बस पर आने की अनुमति देना हो, उसके साथ सेल्फी लेना या फिर भट्टा परसौल में किसी की मोटरसाइकिल के पीछे बैठकर धरने पर बैठे किसानों के प्रति सहयोग जताना। ये कुछ ऐसे गुण हैं जो राजीव से उन्हें उपहार स्वरूप ही मिले हैं। राहुल किसी नेता की तरह बात को घुमाकर नहीं बोलते उनके संबोधनों में आत्मविश्लेषण ज्यादा होता है। हाल ही में बर्केले यूनिवर्सिटी में उनका कूबुलनामा सुर्खियां बटोर गया। वंशवाद पर उनके जवाब ने सबको आश्चर्य में डाल दिया क्योंकि ऐसे राहुल से साक्षात्कार कभी हुआ ही नहीं था। सोशल मीडिया में जहां उनकी खूब आलोचना होती थी उन्हें अटपटे तमगों से नवाजा जाता था उसमें कुछ हद तक बदलाव आया। लोगों ने उन्हें एक हाजिरजवाब राजनीतिज्ञ के तौर पर सम्मान देना शुरू कर दिया है। ये राहुल का नया अवतार है।
अध्यक्ष बनना तय है। लेकिन इसके बाद क्या सब कुछ आसान होगा? यह कहना काफी मुश्किल है। राहुल तभी सफल होंगे जब वो राजनीति को फुल टाइम ड्युटी की तरह अपना लेंगे महज पार्ट टाइम पॉलिटिक्स से उनकी राह आसान नहीं होगी जिसका इल्जाम उन पर लगता रहा है। सवाल उनके अहम क्षणों में विदेश दौरे को लेकर काफी उठे हैं। इसके साथ ही उन्हें राजनीतिक दांव पेंचों को परखने की कुशलता का भी विकास करना होगा तभी वो अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरीखे मंझे खिलाड़ियों को टक्कर दे पायेंगे। सीधी सोच और सपाट रास्ते पर चलकर नहीं बल्कि चालाकी से अपने प्रतिद्वंदियों को मात देनी होगी।