संघ का अविश्वास
किरण राय
हाल ही में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की ओर से दो ऐसे बयान आए हैं जो देश के संविधान के प्रति उसके अविश्वास को दर्शाते हैं । सरसंघचालक मोहन भागवत ने डंके की चोट पर कह डाला है कि उन्हें देश की न्याय व्यवस्था पर विश्वास नहीं है। उन्होंने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को गलत बताया है तो एक बार फिर राम मंदिर के जरिए हमारे संविधान को चुनौती देने का काम किया है। उन्होंने कहा है कि राम मंदिर पर अलग कानून बनाने की जरूरत है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने राम मंदिर को लेकर कहा कि राम मंदिर का बनना गौरव की दृष्टि से आवश्यक है, मंदिर बनने से देश में सद्भावना व एकात्मता का वातावरण बनेगा। तो क्या संघ प्रमुख के इस बयान को सरकार और कोर्ट पर दबाव बनाने की राजनीति ना करार दिया जाए? क्या राम मंदिर पर कानून लाने की नसीहत दे वो मोदी सरकार को सचेत करना चाह रहें हैं या फिर ये मिला जुला प्रयास है। ऐसा इसलिए भी लग रहा है क्योंकि पांच राज्यों में जल्द ही चुनाव होने हैं और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी विवादित स्थल पर मंदिर बनाने का राग इन दिनों जोरो शोरों से अलाप रहें हैं। उन्होंने तो कार्यकर्ताओं को मंदिर निर्माण के लिए तैयार होने की सलाह भी दे डाली है। वहीं 29 अक्टूबर से कोर्ट राममंदिर मुद्दे पर सुनवाई शुरू करने वाला है।
इतिहास गवाह रहा है कि संघ ने कभी भी देश की आत्मा यानी हमारे संविधान को दिल से नहीं अपनाया है। पूर्व में भी सरसंघचालकों ने ऐसी कई बातें कहीं हैं जो भड़काऊ और अनपेक्षित रहीं हैं। राम मंदिर मसले को लेकर तो संघ हमेशा मुखर रहा है। लगभग साल भर से प्रचार-प्रसार किया जा रहा है कि राम मंदिर निर्माण की शुरुआत इस साल छह दिसंबर से पहले हो जाएगी। हिंदू संगठनों ने खुलकर वर्तमान सरकार के खिलाफ हिंदुओं की अनदेखी का आरोप मढ़ा है। हाल ही में दिल्ली में हुई विश्व हिंदू परिषद की बैठक में भी यह सवाल उठा था कि केंद्र और लगभग बीस राज्यों में भाजपा की सरकार बनने के बावजूद संशय क्यों है? वहीं अब भाजपा भी अपने कार्यकर्ताओं को उत्साहित करने में जुट गई है। पार्टी के कट्टर चेहरे बार-बार अपने कार्यकर्ताओं से कह रहें हैं कि राम मंदिर का सपना अब जल्द ही साकार होने वाला है।
हैरानी की बात है कि राम मंदिर आंदोलन से जुड़े लोग बार-बार लगातार अदालत के अधिकारों को चुनौती देते रहें हैं। कहते रहे हैं कि अयोध्या में मंदिर निर्माण आस्था का सवाल है इस पर फैसला करने में कोई अदालत सक्षम नहीं है और इसका फैसला संतों के सुझावों और निर्देशों के अनुसार होगा। सवाल उठता है कि क्या देश में संतों को कोई विशेषाधिकार हासिल है? क्या संविधान मे ऐसा कोई प्रावधान है कि संत समाज संविधान या सुप्रीम कोर्ट के फैसलों या निर्देशों के खिलाफ जा सकता है और उनका फैसला मानना देश के लिए जरूरी हो सकता है? कम से कम हमारा संविधान तो इसकी इजाजत नहीं देता लेकिन शायद यही वजह है कि संघ प्रमुख ने नए कानून का शिगूफा छोड़ दिया है। सबरीमाला पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर संदेह जता वो स्पष्ट कर रहें हैं कि ये फैसला किसी सामाजिक बदलाव का नहीं बल्कि धर्म विशेष की भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला है।
दरअसल, वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए ये और भी अहम है। 2019 में लोकसभा चुनाव होने को हैं और उससे पहले इस बार संसद का सिर्फ शीतकालीन सत्र बचा है। इस सत्र में पुराना कानून खत्म करके नया कानून बना पाना संभव नहीं है। इसमें भाजपा के सहयोगी बड़ा रोड़ा होंगे, यह बात संघ प्रमुख मोहन भागवत भी अच्छी तरह जानते हैं। और यही वजह है कि हिंदू अस्मिता के नाम पर वो ध्रुवीकरण की राजनीति करना चाह रहें हैं।