डूबता भविष्य
किरण राय
कुशीनगर हादसे ने दिल दहला दिया। सोचिए जो बच्चे अपना और देश का भविष्य बनाने की गर्ज से स्कूल जा रहे थे उन्होंने अपना काल अपनी आंखों से देखा और क्षण भर में ही वो बीता हुआ कल बन गए। किसी के लिए भी उस एक पल के बारे में सोचना सिहरन पैदा कर सकता है। ये हादसा कोई पहली बार नहीं हुआ, बल्कि बार-बार ऐसा होता है और डिजीटल होते इंडिया और भारत के बीच जो लगातार खाई बढ़ रही है उसकी ओर इशारा करता है। स्कूल वैन/बस से दुर्घटना होना एक आम सी बात हो गई है। जहां कुशीनगर में 13 बच्चे जीवन की जंग पलक झपकते हार गए वहीं यहां दिल्ली में भी एक शराबी ड्राइवर के टैंकर की भेंट मासूम गरिमा बन गई, वो भी वैन से स्कूल जा रही थी। महीना भर भी नहीं बीता जब हिमाचल प्रदेश में एक गहरी खाई में स्कूल बस गिरी और 27 लोगों को लील गई। ज्यादा दिन नहीं बीते जब बिहार के मुजफ्फरपुर में एक नशे में धुत ड्राइवर ने स्कूल से घर लौट रहे बच्चों को सरे राह रौंद दिया था। ऐसे हादसों और वाकयों की कमी नहीं है। कमी है तो कानून के खौफ की। कमी है तो जिम्मेदार लोगों के जज्बे की, कमी है तो संवेदनशीलता की और हादसों से सीख लेकर सुधार करने की। इस हादसे के बाद भी वही हो रहा है जो हमेशा होता है यानी खानापूर्ति। हमारा भविष्य बिखर रहा है, डूब रहा है लेकिन हैरत की बात है कि हम फिर भी खामोश देख रहें हैं।
अनुग्रह राशि, जांच समिति, निलम्बन और पीड़ित परिवार को दिलासा देने का क्रम...स्थान, काल और स्थितियां शायद फिर बदल जायेंगी लेकिन यकीन मानिए कुछ अर्से बाद ईश्वर ना करे फिर ऐसी कोताही सामने होगी। दरअसल, सबक लेने की हिम्मत हम खोते जा रहें हैं। खुद को हादसे के लिए जिम्मेदार कोई मानना नहीं चाहता और पकड़ा भी जाता है तो बच निकलने के तमाम रास्ते खोज निकालता है। ये भी कम अचरज की बात नहीं कि आज के इंडिया में 5000 से ज्यादा रेलवे क्रॉसिंग ऐसी है जो मानवरहित है। हालांकि बीते सितम्बर में ही हमारे रेलमंत्री पियूष गोयल ने साल भर के भीतर इस बड़ी परेशानी को ( जो ज्यादातर दुर्घटनाओं की वजह बनती है) खत्म कर देने का वायदा किया था । 'जीरो एक्सीडेंट' की नीति का बखान जोर शोर से किया जा रहा है लेकिन सरकार खुद मानती है कि अप्रैल 2017 से फरवरी 2018 के बीच करीब 70 रेल हादसे हो चुके हैं। इस देश में जहां अनुशासन और कानून को लेकर डर लोगों में ना के बराबर है वहां अच्छा होता कि बुलेट ट्रेन, सुपरफास्ट ट्रेन को दौड़ाने से पहले जानो-माल की हिफाजत के प्रयास पहले होते।
गलती सबसे हो रही है। बच्चे को स्कूल भेजते वक्त ये नहीं जांचा जा रहा कि स्कूल प्रशासन तय मानकों को पूरा कर रहें हैं या नहीं। सुविधाओं के नाम पर अभिभावकों की जेब खूब काटी जा रही है लेकिन हकीकत में बच्चों को हासिल कुछ हो नहीं रहा। स्कूल मनमानी करते हैं, मामला कुछ दिन तक रफ्तार पकड़ता है और फिर सब शांत हो जाता है। यानी बात वही हम सबक लेने को तैयार नहीं हैं। सड़क सुरक्षा उपायों, नियमों के बारे में जागरूक करने के लिए प्रयास भी हो रहें हैं, लेकिन उन होर्डिंग्स को देखें या विज्ञापनों को सुनें तो लगता है नेता जी अपना प्रचार ज्यादा नियमों का हवाला कम दे रहें हैं। कुशीनगर के दर्दनाक हादसे से देर में सही हम कुछ खुद में सुधार लाएं तो अच्छा है। दरअसल, जरूरत पूरे सिस्टम की ओवरहॉलिंग की है। लगाम उन अधिकारियों पर भी लगे जो चंद रुपयों की खातिर स्कूल चलने देतें हैं या फिर गाड़ियों को बिना लाइसेंस के ही सड़क पर दौड़ाने की अनुमति दे देते हैं। नकेल उन सब पर कसी जाए जो हमारे नौनिहालों को शिक्षित करने के नाम पर व्यापार कर रहें हैं।