स्कूलों की गुणवत्ता पर बात कब?
किरण राय
देश के दो राज्यों से ऐसी खबर आईं जो स्कूलों की बदहाल तस्वीर को पेश करती हैं। एक देश का हृदय है तो दूसरे को धान का कटोरा कहा जाता है। यानी एक मध्यप्रदेश तो दूसरा उसका पड़ोसी छत्तीसगढ़। और दोनों ही सूबों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। एमपी की कमान मामा शिवराज उठाते हैं तो छत्तीसगढ़ में डॉ रमन सिंह का राज है। पिछले कुछ दिनों से यहां भूख और कुपोषण को लेकर बहुत खबरें आ रहीं थीं अब इनमें स्कूलों की बदहाली की कहानी भी शामिल हो गई है। सरकारी विद्यालयों के हालात बेहद खतरनाक और सोचनीय है। तभी तो जब सरकारों ने नहीं सुनी तो भुक्तभोगियों ने सत्ता के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचाने का काम अपने हाथों में उठा लिया। लेकिन सवाल उठता है कि शिक्षा के अधिकार के बावजूद कब तक मूलभूत सुविधाओं से महरूम रहेंगे हमारे सरकारी विद्यालय और सरकारें कब तक खामोश तमाशा देखती रहेंगी या फिर इंतजार करेंगी- तब तक जब तक चुनाव नहीं आता।
भारत में 6 से 14 वर्ष के हर बच्चे को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के लिए शिक्षा आधिकार अधिनियम 2009 बनाया गया है। यह पूरे देश में अप्रैल 2010 से लागू किया गया है। इसके अंतर्गत निकट के स्कूल में इस आयु वर्ग के बच्चों को शिक्षा मुहैया करानी जरूरी होगी। स्कूल में शौचालयों की भी सुविधा होगी। लेकिन जब सवर्णिम मध्यप्रदेश से बच्चों ने आजिज आकर राष्ट्रपति को खत लिखा तो कलई खुल गई। कैसे कोई प्रदेश सवर्णिम कहला सकता है जब उसका भविष्य ही आवश्यक चीजों की बाट खोज रहा हो। वो भी तब जब शिवराज मामा ने पिछले साल से मास्टरी का मन बनाया। दरअसल, उन्होंने मिल-बांचे कार्यक्रम के तहत बच्चों से मिलकर उनकी तकलीफ जानने का प्रयास शुरू किया है। मुख्यमंत्री ने अपने विधायकों और मंत्रियों की टीम को भी इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए कहा। लेकिन एक साल बाद लगता है कि ये भी राजनीतिक कौशल का एक हिस्सा थी।
छत्तीसगढ़ से अकसर खबरें दिल दहलाने वाली ही आती हैं। नक्सलवाद, भुखमरी, कुपोषण से लड़ती जिंदगी इस धान के कटोरे की हकीकत बन गए हैं। जब यहां भी सरकार ने बलरामपुर के एक विद्यालय की शिकायतों पर ध्यान नहीं दिया तो शिक्षकों ने बच्चों के साथ स्कूल पेड़ के नीचे ही लगा लिया। खबर बनीं तो प्रशासन ने इसे जमीन के विवाद से पैदा हुई स्थिति बता दिया। ऐसा नहीं है कि इन दो राज्यों की ही यह कहानी है लेकिन दिक्कत ये है कि ना तो ये राज्य पिछली सरकार का रोना रो सकते हैं और ना ही केन्द्र को कोस सकते हैं। क्योंकि पिछले 15 साल से राज भाजपा का ही है और केन्द्र में भी एनडीए की ही सरकार है। फिर भी हालात दयनीय हों तो सवाल उठेंगे ही।
यहां मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा 2016 में जारी उस रिपोर्ट का जिक्र अनिवार्य है जिसमें दावा किया गया कि देश में एक लाख पांच हजार से ज्यादा स्कूल ऐसे हैं जो सिर्फ एक शिक्षक के भरोसे पर चल रहे हैं। इस मामले में सबसे खराब दशा मध्य प्रदेश की है, जहां 17,884 स्कूलों में एक अध्यापक है जबकि दूसरे नंबर पर उत्तर प्रदेश है। यहां भी आंकड़ा 17 हजार के पार है और तीसरे नंबर पर राजस्थान है। स्थिति साफ है। सरकारें अपने स्कूलों को बेहतर कर पाने में लाचार साबित हुई हैं। हाल ही में सरकार ने शिक्षा की गुणवत्ता को ध्यान में रखकर नि:शुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार (दूसरा संशोधन) विधेयक, 2017 ध्वनिमत से पारित किया। जिसमें आठवीं कक्षा तक फेल नहीं करने की नीति में संशोधन करने की बात कही गई है। अपने तर्क में केन्द्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि "यह महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक विधेयक है और इससे स्कूलों, खासकर सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर सुधरेगा।'' बात अच्छी है और सराहनीय है। लेकिन और अच्छा होता अगर टपकती छत, शौचालय और टीचरों की गुणवत्ता का भी खास ख्याल रखा जाता।