'वैशाखनंदन' पर शोर क्यों?
किरण राय
मृणाल पांडे का 'जुमला जयंति पर आनंदित वैशाखनंदन' कईयों को अखर रहा है। उनसे एक ही सवाल क्या देश के जो हालात हैं, मुखर विरोधियों पर गोलियां बरसाई जा रहीं हैं, बेरोजगारी दर में लगातार इजाफा हो रहा है, सीमा पर जवान और घर में किसान जान गंवा रहा है...कुल मिलाकर देश के हालात आनंदित होने के तो नहीं हैं। फिर क्या ऐसे में खुशी से चौड़े होने वाले 'सरकार' पर तंज इतना कसैला है, कि उस पर शब्द बाण ना चलाए जाएं? ट्विटराइट्स, फेसबुकियाइट्स या फिर सोशल मीडिया पर 24/7 भिड़े फैन्स से अपेक्षा की जा सकती है लेकिन क्या पत्रकार बिरादरी से ताल्लुक रखने वालों को व्यंग्य की परम्परा को आगे बढ़ाने वालों को हौसला नहीं देना चाहिए? क्या वो नहीं जानते कि हमारे देश में स्वस्थ बहस और कटाक्ष की परम्परा सदियों पुरानी है? बीरबल, तेनालीराम जैसे पात्र अपनी हाजिर जवाबी और ढके छुपे अंदाज में बड़े बड़ों को पानी पिलाने का माद्दा रखते रहें हैं। आजादी के बाद ऐसे कई व्यंग्यकार और कार्टूनिस्ट हुए जिन्होंने सत्ताधीशों को देश का नजरिया कलात्मक और बुद्धिमानी से समझाया। इनमें शंकर पिल्लै, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, अबु अब्राहम, रंगा कुट्टी, उन्नी जैसे नाम शामिल हैं। इन्होंने गुदगुदाया भी और हमारे जज्बातों को कुरेदा भी। ऐसा नहीं है कि तब इनका सियासी विरोध नहीं हुआ लेकिन आज जिस तरह के हालात जानबूझकर पैदा किए जा रहें हैं वो हमारे मानसिक दिवालिएपन को ही उजागर करते हैं।
दरअसल, गधे को शास्त्रों में वैशाखनंदन भी कहा गया है। जब वैशाख महीने में सब कुछ अस्त-व्यस्त होता है सभी जीव जंतु हरियाली के बाद गर्म मौसम में कमजोर होने लगते हैं तो गधा ही एक ऐसा सीधा सच्चा प्राणी है जो फल फूल रहा होता है। वजह यह है कि जब हरियाली मैं गधा घास चरता है और बार-बार पीछे मुड़कर देखता है कि- मैं कितनी घास खा चूका हूँ तब वह पाता है कि पीछे तो हरा ही हरा नजर आ रहा है... यानी मैंने अभी बहुत ही कम घास खाई है। वो बहुत ज्यादा खाकर भी मानसिक रूप से अतृप्त ही रहता है। वहीं वैशाख में जब वो बार-बार पीछे मुड़कर देखता है तो पात़ा है कि पीछे खाली मिटटी ही है तब वह तृप्त होता है कि- अरे वाह मैंने तो पूरी घास चुन-चुनकर खा डाली, पीछे बिलकुल भी घास नहीं छोड़ी। इस प्रकार उसे वैशाखनंदन की उपाधि शास्त्रों ने प्रदान की और उसकी तुलना उन मनुष्यों से की जो भौतिक जीवन में अपनी उपलब्धियों पर नजर डालते हैं और जीवन के असली उद्देश्य के प्रति अनजान बना रहता है। यहां मृणाल जी यही कहना चाहती थीं। उन्होंने देश की वर्तमान स्थिति को समझाने की कोशिश भर की ।
भारतीय राजनीतिक कार्टून्स के पितामह कहे जाते हैं शंकर पिल्लै लेकिन इन्होंने भी तब के दौर में महात्मा गांधी से लेकर देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद, जीबी पंत जैसों को भी नहीं बख्शा। 1948 में उन्होंने साप्ताहिक पत्रिका शुरू की शंकर्स वीकली। जिस पर खुद नेहरू ने कहा था- Don't Spare Me Shankar (शंकर मुझे भी मत छोड़ना)। कहने का अर्थ ये कि दरअसल, कार्टून या व्यंग्य हमारे समाज, हमारे राजनीतिक परिदृश्य को कुछ इस अंदाज में कह जाते हैं जो हमें अंदर तक उद्वेलित करते हैं और अपेक्षा रखते हैं कि जो हम पर काबिज हैं उन्हें सद्बुद्धि आएगी। व्यंग्यकारों की इसी फेहरिस्त में शामिल हैं परसाईं। सटीक टीका-टिप्पणी के माहिर। 50 साल पहले जो लिख गए वो अब भी प्रांसगिक है। उनके कुछ व्यंग्य बाण जैसे गाय भारत में दंगा कराती है, अर्थशास्त्र जब धर्मशास्त्र के ऊपर चढ़ता है, शासन का घूंसा, चूहे के लिए चूहेदानियां...ऐसे अनगिनत वाक्य हैं, लेख हैं जो कचोटते हैं और हमें आईना दिखाते हैं।
हमारा समाज अहसहिष्णु होता जा रहा है। हम वही सही मान रहे हैं जो हमारे खाके में फिट बैठ रहा है। हम भूल रहें हैं कि व्यंग्य किसी व्यक्ति पर नहीं बल्कि व्यवस्था पर होता है और मृणाल पांडे का व्यंग्य इसी की बानगी है। वर्तमान व्यवस्था पर चोट करने के लिए उन्होंने 17 सितंबर का दिन चुना और देश की परिस्थितियों से साक्षात्कार कराया। अब अगर अच्छे दिन सियासतदांनों के आए हैं और जनता घिसट रही है तो भला उनकी खुशी को वैशाखनंदन का आनंद क्यों ना कहा जाए?