जर्मनी की तरह हमारे देश में क्यों ना हो फेसबुक एक्ट?
किरण राय
सोशल मीडिया के जरिए किस कदर लोगों के जेहन में जहर फैलाया गया है इसका ताजातरीन उदाहरण है पश्चिम बंगाल। जहां ऐसी पोस्ट ने सांप्रदायिक हिंसा को जन्म दिया जिसने कईयों की जान ली और लोगों के बीच बीज बोने का काम किया। राजनीतिक छींटाकशी का दौर जारी है लेकिन कोई इस असंतोष के मूल में झांकने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा शायद इसकी वजह सोशल प्लेटफार्म से जुड़े वो सैंकड़ों लोग हैं जो राजनीतिक दलों का वोटबैंक हैं। सवाल पूछे जाने लगे हैं कि क्या सोशल मीडिया पर नकेल कसने का वक्त आ गया है? या फिर इसे असंतोष, गालियों और भद्दी टिप्पणियों के सहारे छोड़ दिया जाना चाहिए?
हाल ही में जर्मनी जैसे आधुनिक देश ने सोशल मीडिया को दायरे में बांधने का फरमान जारी कर दिया है। यहां की संसद ने एक कानून बनाया है जिसके मुताबिक नफरत फैलाने वाले पोस्ट दिखे तो संबंधित कम्पनी को 370 करोड़ रुपए तक का जुर्माना देना होगा तो वहीं आपत्तिजनक पोस्ट डालने वाले शख्स को भी 5 साल तक की सजा का प्रावधान होगा। इसे नाम भी फेसबुक एक्ट दिया गया है। अपने देश की बात करें तो फिलवक्त बंगाल जल रहा है ज्यादा समय नहीं बीता जब कश्मीर में सोशल प्लेटफॉर्म के जरिए आग भड़की थी। ये आग अब भी धधक रही है। कई राज्य इसके लपेटे में हैं। सोशल मीडिया के जरिए कई बेहतरीन काम भी हो रहें हैं लेकिन इसके जरिए जिस प्रकार इन दिनों देशहित के नाम पर युवाओं को बहकाया जा रहा है वो भी कम चिंता का विषय नहीं है। तो क्या अब वक्त जर्मनी की नजीर से सबक लेने का नहीं है?
वक्त आ गया है कि नफरत और सौहार्द, मेल-मिलाप और दुराव, प्यार और जंग के बीच के फर्क को समझा और समझाया जाए। एक आंकड़े के मुताबिक देश में 4.5 करोड़ फेसबुक यूजर्स हैं तो 35 लाख लोग रोजाना ट्विट करते हैं। आंकड़े ये भी बताते हैं कि देश के 75 फीसदी यूजर्स 15 से 34 वर्ष तक की उम्र के हैं जिसका 25 फीसदी से ज्यादा का समय इंटरनेट पर ही गुजरता है। यानी देश की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा इस मीडिया से मुत्तासिर है। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि इनको सही गलत के बीच की महीन लकीर के अंतर को ठीक से समझाया जाए। इस मामले में जर्मनी के कानून मंत्री हाइको मास की राय काफी मायने रखती है। उन्होंने कहा कि हमारे चमचमाते लोकतंत्र में अभिव्यक्ति का बहुत अधिक महत्व है लेकिन अभिव्यक्ति की आजादी वहीं खत्म हो जाती है जहां से आपराधिक कानून लागू होता है। तो क्या हमारे देश के सियासतदां अभिव्यक्ति की आजादी और आपराधिक कानून के बीच की दूरी को पाटने का जिगर दिखा पायेंगे?