अटल बिहारी वाजपेयी: एक समर्पित राजनेता
अटल बिहारी वाजपेयी किसी एक शख्सियत का नाम नहीं बल्कि एक युग का नाम है। जिसमें लोगों को उतार-चढ़ाव, हृदय भेदी शब्दों के पुरोधा और एक समर्पित संघ सदस्य को जानने का मौका मिलता है। अटल ने राजनीति के उस पुराने दौर को अपने जीवन में ताउम्र अपनाए रखा। विरोधियों पर तंज तो कसे लेकिन शालीनता के दायरे में रहकर और नाटकीयता से कोसों दूर रहकर।
सिस्टम को चैलेंज करते हैं ये!
मॉब लिचिंग के बाद इन दिनों कावंड़ियों के तांडव को लेकर खबरें काफी डराने वाली आ रहीं हैं। हमारे सिस्टम को चैलेंज करने का इन्होंने एक भी मौका नहीं छोड़ा है। इसी मसले को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों को एक बार फिर उनके अधिकारों को लेकर खरी-खरी सुनाई है। हाल ही में एक तीर्थ यात्रा के तौर पर खास मुकाम बना चुकी कांवड़ यात्रा के दौरान ऐसी कई घटनायें हुईं जो सरकारों की नीयत पर सवाल खड़े करती है। धर्म के नाम पर राजनीति चिरकाल से हो रही है लेकिन उसकी शह पाके हुड़दंग और उत्पात का ऐसा शो समाज की बदलती सोच और हिंसा के प्रति लगाव को दर्शाता है।
स्कूलों की गुणवत्ता पर बात कब?
देश के दो राज्यों से ऐसी खबर आईं जो स्कूलों की बदहाल तस्वीर को पेश करती हैं। एक देश का हृदय है तो दूसरे को धान का कटोरा कहा जाता है। यानी एक मध्यप्रदेश तो दूसरा उसका पड़ोसी छत्तीसगढ़। और दोनों ही सूबों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। सरकारी विद्यालयों के हालात बेहद खतरनाक और सोचनीय है। तभी तो जब सरकारों ने नहीं सुनी तो भुक्तभोगियों ने सत्ता के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचाने का काम अपने हाथों में उठा लिया। लेकिन सवाल उठता है कि शिक्षा के अधिकार के बावजूद कब तक मूलभूत सुविधाओं से महरूम रहेंगे हमारे सरकारी विद्यालय? और सरकारें कब तक खामोश तमाशा देखती रहेंगी या फिर इंतजार करेंगी- तब तक, जब तक चुनाव नहीं आता।
मोबोक्रेसी पर SC का चाबुक
21 वीं सदी के भारत में मॉब लिंचिग या भीड़तंत्र के लिए जैसे सख्त रूख की जरूरत थी सुप्रीम कोर्ट ने ठीक वैसा ही किया। मोबोक्रेसी की डिमोक्रेसी में कोई जगह नहीं है और इसकी जिम्मेदारी सरकारों की है। कानून-व्यवस्था का दारोमदार जहां राज्य सरकारों पर है वहीं नए कानून को गढ़ने की मशक्कत केन्द्र को करनी होगी। कानून सख्त हो, लोगों को सबक सिखाए इसका पूरा ख्याल सर्वोच्च अदालत ने रखा है। इसलिए दिशा निर्देश का ऐसा चाबुक चलाया है जो भीड़तंत्र को काबू करने में सक्षम हो और इसके खिलाफ जाने वालों को, चाहें वो बड़ा अधिकारी हो या फिर जिम्मेदार प्रतिनिधि उसकी नकेल कस सके।
दबाव की राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं नीतीश
नीतीश कुमार ने जनता दल युनाइटेड की कार्यकारिणी में जिस तरह पूरी धमक के साथ अपनी बात रखी और कहा कि 2019 में जदयू को नकारा नहीं जा सकता, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि वो भारतीय जनता पार्टी पर दबाव बनाने में जुट गए हैं। अब तक भाजपा के सहयोग के बाद जिस तरह नीतीश खामोश मुद्रा में दिख रहे थे, प्रधानमंत्री की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे सवाल उठता है कि उन्हीं जदयू अध्यक्ष ने अचानक ही अपने तेवर तल्ख क्यों कर लिए?
बेमेल 'बियाह' का हश्र, क्या तय था!
बिना मेल के ब्याह, कनपटी भर सेनुर...भोजपुरी बेल्ट की ये कहावत भारतीय जनता पार्टी और पीडीपी पर सटीक बैठती है। पहले दिन से ही इस बेमेल गठजोड़ को लेकर संदेह था। तीन साल तक साथ चला लेकिन अब भाजपा ने अचानक ही अपने हाथ खींच लिए। लेकिन ये हैरान करने वाला फैसला यूं ही नहीं लिया गया। तैयारी कई दिनों से थी। प्रेस कान्फ्रेंस में पार्टी के तेवरों से स्पष्ट हो गया है कि अब बात सॉफ्ट नहीं बल्कि हार्ड कोर हिन्दुत्व की होगी।
मोदी सरकार के 4 साल : उम्मीदों से छल
नरेंद्र मोदी सरकार के चार साल पूरे हो चुके हैं। वर्ष 2014 में जब इस सरकार ने सत्ता संभाली थी तब जनता की उम्मीदें सातवें आसमान पर थीं। 30 साल बाद केंद्र में किसी पार्टी को अकेले बहुमत जो हासिल हुआ था। जाहिर सी बात है इस मजबूत सरकार से कुछ बड़े बदलावों की उम्मीदें जनता ने संजोई थी और खुद मोदी व उनके सहयोगियों ने इसका वादा भी किया था। लेकिन आज क्या हुआ चार साल के बाद? मोदी सरकार ने उम्मीदों से सिर्फ छल ही तो किया है। अमीर और अमीर हो गया। गरीब और गरीब। देश की 125 करोड़ जनता को यह जानना जरूरी है कि बीते चार सालों में देश को खर्चीली रैलियों, गढ़े हुए भाषणों, रेडियो पर मन की बातों और जुमलों के अलावा हासिल क्या हुआ है?
नहीं चला लिंगायत दांव
कांग्रेस एक और राज्य में हार गई। भारतीय जनता पार्टी ने फिर साबित कर दिया कि आज की तारीख में वो राजनीतिक कौशल में कांग्रेस से काफी आगे है। कर्नाटक में सत्ताधारी पार्टी ने हर वो पैंतरा आजमाया जो उसे बीस साबित करे लेकिन आखिरकार नतीजा भाजपा के पक्ष में गया। सवाल उठ रहें हैं कि आखिर कांग्रेस से चूक कहां हो गई? जवाब कई हैं। सिद्धारमैया ने ऐन मौके पर लिंगायत नाम का दांव चला। विश्लेषक भी मानते रहे कि ये अचूक अस्त्र है जिससे कांग्रेस को फायदा दिलाएगा। लेकिन नतीजों ने उस सोच को भोथरा कर दिया। दरअसल, लिंगायत के चक्कर में कांग्रेस ने अपना पारम्परिक वोटर भी खो दिया। वो जो वोकालिंगा समाज से आता था, जो दलित था और जो मुस्लमान था।
आर्थिक नहीं बल्कि मामला 90 फीसदी राजनीतिक है
देश पर फिर एक चुनाव के बाद तेल की बढ़ी कीमतों की गाज गिर गई है। हाल के दिनों में ऐसा होना कोई अनोखी घटना नहीं है। पिछले एकाध साल से सूरते हाल कुछ ऐसे ही बने हैं। तेल का खेल हर सरकार के दौर में होता है। अंतर्राष्ट्रीय पॉलिटिक्स भी पेट्रोलियम उत्पादों के इर्द गिर्द ही घूमती है। शायद तभी तेल बाजार में कहा जाता है कि ऑयल इज़ 90 फ़ीसदी पॉलिटिक्स एंड 10 फ़ीसदी इकोनॉमी। यानी राजनीति इकोनॉमी पर हावी है। भले ही सरकारें कुछ भी कहें, दलील कोई भी दें।
डूबता भविष्य
कुशीनगर जैसा हादसा कोई पहली बार नहीं हुआ, बल्कि बार-बार ऐसा होता है और डिजीटल होते इंडिया और भारत के बीच जो लगातार खाई बढ़ रही है उसकी ओर इशारा करता है। ऐसे हादसों और वाकयों की कमी नहीं है। कमी है तो कानून के खौफ की। कमी है तो जिम्मेदार लोगों के जज्बे की, कमी है तो संवेदनशीलता की और हादसों से सीख लेकर सुधार करने की। इस हादसे के बाद भी वही हो रहा है जो हमेशा होता है यानी खानापूर्ति। हमारा भविष्य बिखर रहा है, डूब रहा है लेकिन हैरत की बात है कि हम फिर भी खामोश देख रहें हैं।