'कुछ हठी लोगों की सनक' से निपटना जरूरी
अर्जुन सिंह मेमोरियल लेक्चर में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने देश में बहुलवाद और सहिष्णुता के खिलाफ कुछ हठी लोगों की सनक पर जिस तरह से सवाल उठाए हैं उसपर देश के हर नागरिक को गौर करना चाहिए। ये मुट्ठीभर लोग देश और समाज में असहिष्णुता फैलाकर सांप्रदायिकता का बीज बो रहे हैं और देश को बांटने की हर नापाक कोशिश में जुटे हैं। दरअसल बीते कुछ वर्षों में धर्म और संप्रदाय के नाम पर राजनीति चमकाने और देश में अराजकता फैलाने का एक खतरनाक खेल देश के अंदर खेला जा रहा है। राष्ट्रपति ने अपने व्याख्यान में इस खतरनाक खेल की तरफ इशारा करते हुए अपनी बात देश के समक्ष रखी है जिसपर समय रहते निपटना जरूरी है। निश्चित रूप से 'कुछ हटी लोगों की सनक' के खिलाफ हम सबको निकलकर आगे आना होगा।
'भारत माता की जय' पर बखेड़ा कब तक?
देश की राजनीति भटक सी गई है। कभी आरक्षण का मुद्दा, कभी अभिव्यक्ति की आजादी का मुद्दा तो कभी राष्ट्रीय नारा और राष्ट्रगान को लेकर बहसबाजी। ये सभी मुद्दे सत्ता में बने रहने की जद्दोजहद के लिए की जाने वाली राजनीति तो हो सकती है, लेकिन इससे राजनीति के असल मायने 'लोकतंत्र के विकास' की अवधारणा टूटती दिख रही है। देश में बड़ा बखेड़ा खड़ा होता दिख रहा है। जी हां! हम बात करे रहे हैं 'भारत माता की जय' पर चल रहे बखेड़ा की। बड़ा सवाल जिसका जवाब कोई नहीं दे रहा कि 'भारत माता की जय' बोलने या ना बोलने से 125 करोड़ देशवासियों के जीवन को बेहतर बनाने की दिशा में हासिल क्या हो रहा है? क्या इससे गरीबी मिट जाएगी? क्या इससे लातूर जैसे इलाके में पानी का संकट दूर हो जाएगा? क्या इससे स्वास्थ्य और शिक्षा के स्तर पर देश ऊंचाईयों की बुलंदी छू पाएगा? और सबसे बड़ी बात ये कि 'भारत माता की जय' का नारा लगा-लगा कर मोदी सरकार 'सबका साथ सबका विकास' के लक्ष्य को हासिल कर अच्छे दिन का जो सपना देश दिखाया है, पूरा कर पाएगी?
उत्तराखंड में सरकार बचाने की जद्दोजहद
उत्तराखंड में रावत सरकार को बचाने और गिराने की सियासती लड़ाई अब अदालत में लड़ी जा रही है। केंद्र के राष्ट्रपति शासन की सिफारिश और राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद नैनीताल हाईकोर्ट की एकल बेंच ने जिस तरह से उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने के फैसले को गलत ठहराते हुए रावत सरकार को 31 मार्च को कोर्ट के रजिस्ट्रार की मौजूदगी में विधानसभा में बहुमत सिद्ध करने का आदेश दिया है उससे केंद्र सरकार की किरकिरी तो हुई ही है, लेकिन संतुलन बनाने के लिए कोर्ट ने यह भी कहा है कि कांग्रेस के नौ बागी विधायकों को भी वोटिंग का अधिकार होगा। हालांकि इन विधायकों के वोट अलग से सीलबंद लिफाफे में डाले जाएंगे और इसे अगले दिन यानी एक अप्रैल को कोर्ट में खोला जाएगा। ताकि यह पता चल सके कि जिन बागी विधायकों की सदस्यता रद्द की गई है वे वाकई रावत सरकार के खिलाफ थे।
भाजपा की चूक पर राष्ट्रपति शासन का पर्दा
16 साल में 8 मुख्यमंत्री देख चुके उत्तराखंड में पहली बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया है। केंद्र सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति ने रविवार को इसकी मंजूरी दे दी। हालांकि विधानसभा को अभी निलंबित रखा गया है। मालूम हो कि 28 मार्च को रावत की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार को सदन में बहुमत साबित करना था, लेकिन इससे पहले केंद्र द्वारा राष्ट्रपति शासन लगाने का फैसला मोदी सरकार का एक और आत्मघाती फैसला है। कहते हैं कि जब सत्ता राजनीति का अंतिम लक्ष्य हो जाए तो वही होता है जो देवभूमि उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन के रूप में सामने आया है। हरीश रावत सरकार को बहुमत सिद्ध करने के लिए दी गई समयसीमा से एक दिन पहले ही उत्तराखंड में विधानसभा को निलंबित कर राष्ट्रपति शासन लगाने का फैसला बेहद चौंकाने वाला है। हालांकि इस हालात के लिए कांग्रेस की अंदरूनी अंतरकलह, भितरघात और अवसरवादिता कम जिम्मेदार नहीं है। लेकिन पूरा का पूरा राजनीतिक घटनाक्रम सत्ता के लिए किसी भी हद तक गिर जाने का एक और शर्मनाक उदाहरण है।
'जय हिन्द' से परहेज क्यों?
'जय हिन्द' और 'भारत माता की जय' को मुद्दा बनाया जा रहा है। MIM अध्यक्ष ने भारत माता की जय नहीं बोला तो उन्हें 'देशद्रोही' की संज्ञा दी गई और पार्टी विधायक वारिस पठान को निलंबित कर दिया गया। पठान का तर्क गौर करने लायक है कि आखिर 'जय हिन्द' बोलने का विरोध क्यों? भारत माता की जय करने से किसी को इंकार नहीं होना चाहिए और बतौर इस देश का नागरिक ये उसका अधिकार है। लेकिन माता की जगह अगर 'जय हिन्द' बोला जा रहा है तो उससे परहेज क्यों? क्या 'जय हिन्द' देश की भावनाओं को प्रकट नहीं करता। क्या इस नारे में हमारे देश के लोकतंत्र की महक नहीं है ? अगर है तो इसकी मुखालफत इतनी पुरजोर तरीके से क्यों?
कन्हैया की हुंकार से लगा, बिखरा नहीं निखरा है युवा
कन्हैया के एक-एक शब्द तीर की तरह भेद कर चले गए। पिछले लगभग डेढ़ महीने से सियासतदारों ने जिस तरह विश्वविद्यालयों की राजनीति में दखलअंदाजी की है, जिस तरह से युवाओं को दबाने, झुकाने और सताने की कोशिश की गई है- उससे लगा तो यही था कि शायद देश का युवा परेशान है वो टूट चुका है। लेकिन कन्हैया की आपबीती ने जता दिया कि अभी बहुत कुछ शेष है। युवा कुछ देर के लिए भटक तो सकता है, पर बिखरने को अभी तैयार नहीं है। दरअसल, जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार की लड़ाई उसकी अकेली नहीं है। उसके निखरने की वजह तो वो गरीबी रही, वो महरूमियत रही जिसने उसे तपा कर आज बड़े-बड़े सूरमाओं को बगलें झांकने पर मजबूर कर दिया है। जमानत पर रिहा होने के बाद कन्हैया ने जिस तरह से सत्ताधारियों के खिलाफ बिगुल फूंका है, मानों उसने खुलेआम चुनौती दे डाली कि संविधान में आस्था रखने वाले और देशभक्त युवाओं को अब देशद्रोही करार देने से पहले आपको सौ बार सोचना होगा। आप चाहें जितने ताकतवर हों, सत्ता पर काबिज होकर हमें अनदेखा नहीं कर सकते।
अब बचत पर भी नजर!
2016-17 का बजट लोकलुभावन नहीं होगा ये तो तय था। अर्थशास्त्र के पंडित इसे कृषि क्षेत्र के लिए लाभकारी बता रहे थे, सो ये भी तय था कि कृषि क्षेत्र को तवज्जो दी जाएगी। लेकिन ये नहीं पता था कि सरकार की नजर मध्यम वर्ग की गाढ़ी कमाई से की गई बचत पर होगी। ईपीएफ की आंशिक रकम निकालते हुए अब 60 प्रतिशत टैक्स देना होगा, जबकि बाकी 40 फीसदी टैक्स फ्री होगा। तय है कि नौकरीपेशा (आमतौर पर मध्यमवर्ग) इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होगा। माना जा रहा है कि इसकी जद में करीब छह करोड़ लोग आयेंगे। नया नियम 1 अप्रैल, 2016 से लागू होगा। ये किसी झटके से कम नहीं तो क्या है। अब तक पांच साल तक की ईपीएफ निकासी पर कोई टैक्स नहीं लगता था। वेतनभोगी नौकरी छोड़ने या छुटने की दशा में बिना किसी टैक्स की अदायगी के रकम निकाल सकता था। साथ ही मान्यताप्राप्त भविष्यनिधि में नियोक्ता (कंपनी) के वार्षिक अंशदान की अधिकतम सीमा डेढ़ लाख रुपए तय कर दी गई है हालांकि नए कर्मचारियों का सरकार ने ख्याल जरूर रखा है और तीन साल तक उनका अंशदान अपनी तरफ से करने का ऐलान भी।
राष्ट्रवाद की लकीर खींचनी ही होगी
राष्ट्रवाद क्या है? क्या राष्ट्रवाद ही वो पैमाना हो जिसके आधार पर किसी को देशभक्त तो किसी को देशद्रोही करार दे दिया जाए। देश में इन दिनों बहस इसी को लेकर है। ऐसे में क्या अब वो वक्त नहीं आ गया है जब राष्ट्रवाद की लकीर खींची जाए। सभ्य समाज को बताया जाए कि दरअसल, राष्ट्रवाद है क्या। इस एक शब्द को लेकर इन दिनों जिस तरह की असमंजस की स्थिति बनी हुई है उसे देखते हुए यह बेहद जरूरी हो गया है। राष्ट्रवाद को लेकर इसी कन्फ्यूजन ने जेएनयू विवाद को जन्म दिया है। जेएनयू विवाद ने हमारे चरमराते सिस्टम की पोल भी खोलकर रख दी है। देशद्रोह और देशभक्ति की मोटी सी लकीर के बीच ऐसा बहुत कुछ है जो हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हमारी सरकारें, हमारा सिस्टम सही तरह से अपने काम कर रहा है।
फ्रीडम ऑफ च्वाइस के बहाने युवाशक्ति पर नजर
हैदराबाद विश्वविद्यालय में होनहार दलित छात्र रोहित वेमुला की खुदकुशी को मुद्दा बनाने में राहुल गांधी फिलहाल सफल दिखाए दे रहें हैं। 10 दिन के भीतर वहां दो बार पहुंचकर जिस तरह उन्होंने सक्रियता दिखाई है उससे साफ हो चला है कि वो अब इस मुद्दे से हाथ नहीं धोना चाहते। दलित छात्रों के बहाने राहुल की कोशिश युवाओं के बीच अपना आधार बढ़ाने की है। अगर कोई ये समझ रहा है कि कांग्रेस दलितों की खैरख्वाह बनने की जुगत में हैं तो उसे राहुल के उस बयान पर जरूर गौर करना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा है कि केन्द्र की सरकार युवाओं को अभिव्यक्ति की आजादी से वंचित करना चाहती है। साफ है कि राहुल दलित प्रेमी दिखते हुए भी अगड़ों का जनाधार नहीं खोना चाहते और युवाशक्ति की अहमियत जानते हैं।
आखिरी खत से दागदार हुई सत्ता
...अगर आप मेरे लिए कुछ कर सकते हैं तो मुझे सात महीने की फैलोशिप मिलनी है एक लाख 75 हजार रुपये, प्लीज देखिएगा ये पैसे मेरे परिवार को मिल जाएं...। और भी ऐसा बहुत कुछ है पहली बार लिखी गई इस 'अंतिम चिट्ठी' में, जो किसी भी आम इंसान को बींधने के लिए काफी है। लेकिन हमारे नेता आम नहीं खास हैं और वो भी तब जब वो सियासतदां हों तो भावनाएं तो कब की मर जाती हैं। आत्महत्या करने वाले छात्र रोहित वेमुला द्वारा लिखी गई चिट्ठी की इन पंक्तियों ने केन्द्र की जनकल्याण नीतियों की भी हवा निकाल दी है जो अपनी नीतियों और नीतिगत फैसलों का सीधा फायदा वंचितों को दिलाने की बात करती है। यहां तो एक गरीब दलित छात्र, जो अपनी प्रतिभा के बल पर यूनिवर्सिटी तक पहुंचा, जो पीएचडी कर रहा था और काबिल था उसका स्टाइपेंड तक छीन लिया गया। जिस साल को पूरा देश अम्बेडकर की 125वीं जयंती के रूप में समर्पित कर रहा है, कितनी कष्टप्रद बात है कि उन्हीं अम्बेडकर के नक्शेकदम पर चलने वाले युवा को यूं ही मानसिक पीड़ा सहते-सहते दुनिया से विदा होना पड़ा।