आरक्षण के बहाने अगड़ों की राजनीति
बिहार चुनाव सिर पर हैं। वायदों और इमानदार कोशिशों का ढिंढोरा पीटा जा रहा है। कौन कितना और किस वर्ग को लुभा पाता है इसकी होड़ लगी है। भाजपा ने चुनाव घोषणा से पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि वो पिछड़ों और दलितों की राजनीति करेगी। इस बीच हार्दिक पटेल के आंदोलन और सरसंघचालक ने कुछ ऐसा कर दिया जो आरक्षण की व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है। इस सबके बीच अब भाजपा भी अगड़े जातियों को आरक्षण दिए जाने की वकालत कर रही है। इसको राजस्थान विधानसभा द्वारा ध्वनिमत से पारित विधेयक के बाद और बल मिला है। राजस्थान विधानसभा ने विशेष पिछड़ा वर्ग (एसबीसी) के तहत गुज्जरों एवं अन्य समुदायों को पांच प्रतिशत और अनारक्षित वर्गों के आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों (ईबीसी) के लिए 14 प्रतिशत आरक्षण उपलब्ध कराने के लिए अलग अलग विधेयक पारित किए। हालांकि ये लागू हो पायेगा इसमें संशय है क्योंकि इसे कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है।
जुमलेबाजी की राजनीति!
कोई हवाबाज कह रहा है तो किसी को हवालाबाज कहने से गुरेज नहीं है। ये है स्टैंडर्ड हमारी राजनीति का। सियासत में जवाबदेही की गुंजाइश हमेशा से है और इसे बने रहना चाहिए लेकिन क्या पॉपुलैरिटी के चार्ट में बने रहने के लिए इस तरह की जुमलेबाजी समाज और राजनीति के लिए सही है। 48 घण्टे का समय नहीं बीता जब कांग्रेस अध्यक्ष ने अपनी पार्टी की बैठक में पीएम को हवाबाज कहा था और इसके जवाब में पीएम ने अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए भोपाल एयरपोर्ट पहुंचते ही कांग्रेस पर हवालाबाजों की जमात होने का कटाक्ष किया।
संघ के बुलंद इकबाल के आगे झुकी सरकार
आरएसएस और भाजपा के घनिष्ठ संबंधों से कोई इनकार नहीं करता। आरएसएस की विचारधारा पर ही पार्टी चलती है ये भी छुपी हुई बात नहीं है। लेकिन आश्चर्य इस बात पर है कि पूरी सरकार एक ऐसे संगठन के सामने नतमस्तक दिखाई देती है जिसका कोई संवैधानिक आधार नहीं है। तीन दिवसीय बैठक में एनडीए सरकार के सभी आला मंत्री और नेता शामिल हुए। आखिरी दिन पीएम की हाजिरी भी लग गई, जिसने तस्दीक कर दिया कि वर्तमान सरकार की चूलें हिलाने का दम और दंभ आरएसएस में है।
स्वतंत्रता दिवस भाषण: PM ने सच से किया किनारा
देश के 69वें स्वतंत्रता दिवस पर पीएम नरेन्द्र मोदी का भाषण कई लोगों के लिए निराशा का सबब रहा। सबसे ज्यादा अपेक्षा पूर्व सैनिकों की वन रैंक वन पेंशन को लेकर थी, उन्हें भरोसा था कि पीएम लालकिले की प्राचीर से इस मसले के त्वरित निपटारे का भरोसा दिलायेंगे। लेकिन उन्हें फिलहाल 'सैद्धांतिक सहमति' के कड़वे घूंट से गुजारा करना होगा। यकीनन अपेक्षाओं के टूटने से वो जरूर उपेक्षित महसूस कर रहें होंगे। भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, किसानों के लिए विकास योजनाओं जैसे मुद्दे छू भर कर चले गए। हैरानी इस बात की भी हुई कि पीएम अपने प्रिय विषय यानी भारत की विश्व मंच पर उपस्थिति पर कुछ बोले ही नहीं। भाषण सुनकर लगा कि वो अभी भी 'इलेक्शन मोड' पर हैं, भाषण में देश के विकास योजनाओं के बारे में कम जबकि लफ्जों की बाजीगरी ज्यादा दिखी। इस मौके पर भी वो विपक्ष पर कटाक्ष करने से नहीं चूके, जो अप्रत्याशित तो नहीं ही था।
'मिसाइलमैन' कलाम का जाना
देश के ग्यारहवें राष्ट्रपति अब्दुल कलाम नहीं रहे। वो जो सही मायने में भारत रत्न रहे। किसी एक धर्म के मानने-जानने वाले नहीं रहे बल्कि हर एक ग्रंथ को पढ़ा ही नहीं अपने जीवन में आत्मसात भी किया। ताउम्र शिक्षा को लेकर अपनी क्रांतिकारी सोच से दुनिया को रुबरू कराते रहे। ये वही शख्स रहे जिनके दिशानिर्देशन में 1998 का पोखरण परमाणु परीक्षण हुआ और तत्कालीन पीएम अटल बिहारी वाजपेयी ने एक अमिट नारा दिया-जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान।
शांता की चिट्ठी के मायने
अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा और आडवाणी के बाद अब शांता कुमार ने भाजपा की बेचैनी को बढ़ा दिया है। उन्होंने सवा साल के भीतर हुए घोटालों पर केन्द्र नेतृत्व की चुप्पी को कटघरे में खड़ा किया है। हालांकि चिट्ठी की टाइमिंग पर सवाल उठ रहें हैं और मोदी के खिलाफ काम कर रहे एक धड़े को इसके लिए जिम्मेदार माना जा रहा है। वजह चाहें जो भी हो लेकिन पार्टी की पहली पीढ़ी के नेता की शर्मिंदगी का कुछ तो सबब है। विषय गंभीर है। मोदी समर्थक मान रहें हैं कि दरअसल ये उन नेताओं की भड़ास है जिन्हें सरकार ने कोई खास जिम्मेदारी या मंत्री पद नहीं दिया है।
हंगामेदार होगा मानसून सत्र!
पिछले कई वर्षों से ये परम्परा सी बन गई है कि संसद के मानसून सत्र में बाहर के मौसम की तरह ही भीतर भी गरज के साथ छिंटे पड़ते हैं। छिंटे सत्ताधारी पक्ष पर पड़ते हैं और पूरा सत्र हंगामे की भेंट चढ़ जाता है। इस बार भी कुछ ऐसा ही होने की उम्मीद है। एनडीए सरकार इन दिनों आरोपों के भंवर जाल में फंसी दिख रही है। ललित मोदी के साथ भाजपा के दिग्गजों के घनिष्ठ सम्बंध, मप्र का व्यापक व्यापम घोटाला और हाल ही में जारी ना की गई जाति आधारित जनगणना। हाल ही में 2011 में हुई जनगणना को सार्वजनिक किया गया। ये आंकड़ा आधा अधूरा ही जारी किया गया इसमें जाति आधारित जनगणना को बड़ी चालाकी से दरकिनार कर दिया गया। अब विपक्ष इस पर ही त्योरियां चढ़ाए है। चूंकि बिहार में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं सो सियासी पारा वहां पर ज्यादा चढ़ा है।
'डैमेज' 'मैनेज' करने का खेल
ललित मोदी और राजस्थान की सीएम वसुंधरा राजे सिंधिया को लेकर रोज नए खुलासे हो रहें हैं लेकिन भाजपा पहले दिन से जिस तरह वसुंधरा को बचाने की मुद्रा में नजर आ रही थी अब भी उससे इतर कुछ करती नहीं दिख रही है। पूरा देश पीएम नरेन्द्र मोदी की तरफ देख रहा है। ट्विटर पर अपने हर जज्बात जाहिर करने वाले मोदी इस प्रकरण पर चुपी साधे हैं जिससे उनके साथ ही एनडीए सरकार की साख भी दांव पर लगी है। महारानी भी अपनी कुर्सी का मोह त्यागती नहीं दिख रहीं हैं। ठसक इतनी की पहले शाह से मिलने का समय मांगने वाली वसुंधरा नीति आयोग पर हुई बैठक से सीधे अपने राज्य को कूच कर गईं, किसी बड़े नेता से समय लेकर मिलने की जहमत तक नहीं उठाई।
ताकि कायम रहे 'आशीर्वाद'
देश के पहले सुपर स्टार राजेश खन्ना के आशीर्वाद पर बुलडोजर चलने वाला है। आशीर्वाद राजेश खन्ना यानी काका का बंगला जिसे वो अपने संग्रहालय का रूप देना चाहते थे। उनकी अंतिम इच्छा- अपनी चीजों, अपनी यादों को दुनिया से रूखसत होने के बाद संजोये और सहेजे जाने की थी लेकिन जैसा कि होता है संपत्ति विवाद के भंवर जाल में फंसे इस बंगले को 95 करोड़ में बेच दिया गया।हैरानी ये कि ना तो सत्ता पक्ष में बैठे दिग्गजों को और ना ही विपक्ष में बैठे नेताओं ने इसकी सुध ली। सबसे बड़ा सवाल तो उस कांग्रेस पार्टी पर है जिसके राजेश खन्ना चेहरे रहे और संसद तक का सफर कांग्रेस के टिकट पर ही तय किया।
केन्द्र बनाम दिल्ली सरकार
किसी भी दो टीम के बीच अगर प्रतिस्पर्धा हो तो वो रोमांचक होती है, लेकिन यही खेल अगर छीछालेदर पर उतर आये तो ना खेलने वाले को मजा आता है ना देखने वाले को। इन दिनों ये खेल केन्द्र सरकार बनाम दिल्ली सरकार के बीच चल रहा है। आम आदमी पार्टी जो कि दावा करती रही है कि वो बाकी राजनीतिक पार्टियों से अलहदा है फिलहाल बैकफुट पर है, लेकिन इस खेल में ऐसा भी नहीं है कि केन्द्र सरकार फ्रंटफुट पर है। सोशल मीडिया हों, अखबार हो या फिर स्टूडियों की बहस सबमें अगर कोई आप की मज्जमत कर रहा है तो ऐसा भी नहीं कि परदे के पीछे से खेल संचालित करने वाली पार्टी की इज्जत अफजाई कर रहा है। लड़ाई वहीं से शुरू हो गई थी जब आम आदमी पार्टी नाम का राजनीतिक दल अस्तित्व में आया था। भूलना नहीं चाहिए की आंदोलन की राह पकड़ने वाली ये पार्टी दूसरों की फजीहत करके ही लोगों के दिलों में घर बना पाई थी।