365 दिन की मोदी सरकार
एनडीए सरकार को बने पूरे एक साल हो गए हैं। सरकार अपनी कामयाबियों का बखान कर रही है तो विपक्ष इसे सरकार के अच्छे दिन और जनता के बुरे दिनों की शुरूआत के तौर पर देख रही है। इन सबके बीच मोदी मैजिक को साकार करने वाली जनता सोच में है कि आखिर वो अच्छे और बुरे दिनों के बीच फर्क कैसे करे। सरकार के मुखिया तकनीकी कौशल का भरपूर इस्तेमाल अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनाने में लगे हैं। आकंड़ों के खेल के जरिए देश की तरक्की की तस्वीर पेश की जा रही है। आम आदमी और किसान की बेहतरी की बात करने वाले पीएम वाकपटुता के सहारे अपनी सरकार द्वारा बढ़ाए गए औद्योगिक उत्पादन, बिजली उत्पादन, विदेशी मुद्रा भंडार में हुई प्रगति, ट्रांसमिशन लाइनों की बढ़ती संख्या के आंकड़ों की लम्बी फेहरिस्त गिनवा रहें हैं। और पूर्व की यूपीए सरकार की नाकामयाबियों को भी तराजू के दूसरे पलड़े में रखकर अपनी पीठ थपथपाने की कोशिश साफ तौर पर कर रहें हैं, लेकिन इन सबके बीच किसान खुद को ढूंढ रहा है। किसान पहले भी आत्महत्या कर रहा था और अब भी हाशिए पर है। प्रकृति की मार तो उसे पड़ ही रही है लेकिन सरकार भी उसके लिए कुछ खास कर रही हो ऐसा दिख तो नहीं रहा है। किसानों की आत्महत्या का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है।
राहुल गांधी का नया अवतार!
राजनीतिक पंडित यह कहते सुने जा रहे हैं कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी अब 'अपना' बोलने लगे हैं। राहुल गांधी अब कैमरों की तरफ लौटने लगे हैं। 17 अप्रैल 2015 को जब राहुल गांधी की छुट्टी खत्म हुई और नई दिल्ली के 12 तुगलक रोड स्थित अपने लुटियन बंगले में उन्होंने कदम रखा, कांग्रेस नेताओं को भी इस बात का अंदाजा नहीं रहा होगा कि आने वाले समय में राहुल गांधी का अवतार कुछ इस तरह से सामने आएगा। कांग्रेस पार्टी ने अपने युवराज के स्वागत में रामलीला मैदान में भव्य किसान रैली का आयोजन किया। बड़ी बेवाकी से राहुल ने किसानों के समक्ष अपनी बात रखी। फिर संसद में राहुल की आवाज गूंजी। पहले भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर, फिर नेट न्यूट्रैलिटी और फिर किसानों की खुदकुशी के मुद्दे पर। जो लोग संसद की कार्यवाही देखते हैं उनका कहना है कि पिछले 10 साल के राहुल से यह अलग राहुल है। बिल्कुल नए अवतार की तरह।
राष्ट्रनीति का हिस्सा नहीं भूमि अध्यादेश
भाजपा और मोदी सरकार भले ही इस बात से इंकार करे कि उन्हें रामलीला मैदान में कांग्रेस की किसान रैली से कोई असर नहीं पड़ता लेकिन, इसमें कोई दो राय नहीं कि भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी निश्चित रूप से इस रैली से विचलित थे। यही वजह रही कि किसान रैली के ऐन वक्त पर भाजपा ने मोदी सर की पाठशाला लगाई। मोदी सर अपनी पाठशाला के माध्यम से देश को राजनीति और राष्ट्रनीति का फर्क तो बता गए, लेकिन यह समझाने में विफल रहे कि किसानों की जमीन छीनकर कॉरपोरेट को दे देने से गरीबों, मजदूरो और किसानों की ताकत कैसे बढ़ जाएगी। आखिर भूमि अधिग्रहण पर अध्यादेश लाने की इतनी जल्दी क्या जरूरत पड़ गई थी। सरकार के पास बहुत सी जमीनें पड़ी हैं जिसपर उद्योग लगाकर देश की गरीब जनता और किसानों के भरोसे को सरकार जीत सकती थी। यह कदम राजनीति है, राष्ट्रनीति तो कतई नहीं कही जा सकती।
ईमानदारी पचाना सीखो सत्ताधारियों
हरियाणा के बहुचर्चित और विवादास्पद व्हिसलब्लोअर आईएएस अधिकारी अशोक खेमका की ईमानदारी को भाजपा की खट्टर सरकार भी नहीं पचा पाई। ऐसा लगता है कि अब देश में सत्ताधारियों का हाजमा इतना कमजोर हो गया है कि वह ईमानदारी को पचा नहीं पाता है। दबंग कार्यशैली के लिए चर्चित 1993 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के अधिकारी अशोक खेमका पांच महीने में दो बार तबादले से दुखी हैं। 24 साल के कार्यकाल में यह 46वीं बार तथा मौजूदा भाजपा सरकार में दूसरी बार तबादला हुआ है। सवाल यह कि कायदे कानूनों का पालन करने का दावा करने वाली सरकार ने देश की सर्वोच्च अदालत के निर्देश की अवहेलना क्यों की। सर्वोच्च अदालत का कहना है कि दो साल से पहले तबादला करने पर सिविल सर्विसेज बोर्ड को कारण बताना होगा। दूसरा बड़ा सवाल यह कि हरियाणा की नई स्टेट कैरिज स्कीम (नई परिवहन नीति) लाने से पहले ही अशोक खेमका का तबादला सरकान ने क्यों किया?
भाजपा पर भारी केजरी की वॉटर पॉलिटिक्स
गरीबों की आड़ में 'पानी' को राजनीतिक जामा पहनाकर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने ऐसी राजनीतिक चाल चली है कि हरियाणा में भाजपा की खट्टर सरकार से लेकर केंद्र में भाजपा नीत मोदी सरकार तक चकरा गई है। दो दिवसीय विधानसभा सत्र के अंतिम दिन बुधवार को अरविंद केजरीवाल ने अपने वक्तव्य में साफ लहजे में कहा कि गरीबों की कीमत पर अब वीआईपी और मंत्रियों को असीमित पानी की आपूर्ति नहीं की जाएगी। आम आदमी की बुनियाद पर खड़ी आम आदमी पार्टी की सरकार ने हरियाणा से पानी आपूर्ति और दिल्ली में पानी कटौती की नीति को लेकर भाजपा को जिस तरह से घेरा है उससे आप को मुसीबत में डालकर उनका बच निकलना आसान नहीं होगा।
फैशन और फीगर के फेर में फंसे शरद
शरद यादव की महिलाओं को लेकर क्या सोच है, ये जगजाहिर है। पहले भी कई मौकों पर वो महिला विरोधी बयान देते रहें हैं। लेकिन इधर कुछ वर्षों से जिस तरह के गैर जिम्मेदाराना बयान वो लोकतंत्र के मंदिर में दे रहें हैं उसकी जितनी निंदा की जाए कम है। आश्चर्य होता है कि लोहिया को अपनी नेता मानते रहे शरद यादव की सोच फैशन और फीगर से बाहर निकल ही नहीं पाई है। और शायद तभी शरद यादव जैसे जिस कद्दावर नेता की तूती बोलनी चाहिए वो अपनी इमेज का बंटाधार कर रहा है।
अवसरवादी सत्ता के नुकसान
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सदन में आतंकवाद पर जीरो टॉलरेंस की बात कही। उन्होंने जम्मू कश्मीर के सीएम मुफ्ती मोहम्मद सईद का नाम तो नहीं लिया लेकिन इशारा उन्हीं की ओर था। पीएम का सदन में दिया बयान गंभीर है लेकिन सवाल उठता है कि क्या सीएमपी यानी कॉमन मिनिमम प्रोग्राम (जिसकी बात पीएम कर रहें हैं) तय करते समय क्या इन मुद्दों पर बात नहीं हुई थी? क्या ये तय नहीं किया जाना चाहिए था कि देश की अखंडता को प्रभावित करने वाले बयान देने से बचा जायेगा? भाजपा इसे पीडीपी की निजी राय बता सकती है और इसे गठबंधन की मजबूरी का नाम भी दे सकती है लेकिन क्या इससे खुद को राष्ट्रीय हितों के प्रति समर्पित बताने वाली पार्टी की छवि धूमिल नहीं होती।
क्या प्रभु ने गुड फील कराया!
रेलमंत्री सुरेश प्रभु का रेल बजट पिछले रेल बजटों से काफी अलग और अनोखा है। कई मायनों में इसमें फील गुड फैक्टर भी है। पहली बार किसी लोकलुभावन वायदों की झड़ी नहीं लगाई गई और ना किसी वीआईपी या फिर राज्य विशेष को खास तरजीह दी गई बल्कि इसमें हमारी रेलवे को अगले पांच वर्षों में विस्तृत करने का विजन साफ नजर आया। बजट ऐसा है जिसे पढ़ कर, सुन कर लगता है कि ये किसी रेल मंत्री का नहीं बल्कि आम आदमी के नजरिए से -उसकी तकलीफों से वाबस्ता है। वैसे रेलमंत्री ने कान सीधे ना पकड़ कर उलटे हाथ से पकड़ने का हुनर भी दिखाया ही है। यात्री भाड़े में तो इजाफा नहीं किया लेकिन माल ढुलाई भाड़े में बढ़ोतरी कर महंगाई का चाबुक तो जनता पर चला ही दिया है। फिलहाल जिस बजट को लेकर जनता उत्साहित दिख रही है क्या वो महीने भर बाद भी ऐसी ही दिखेगी, इसमें संशय है।
सख्त मोदी की 'मुलायम' कूटनीति
देश के प्रधानमंत्री लगभग 45 मिनट तक एक ऐसे समारोह का हिस्सा बने जो ना तो भाजपाईयों का था और ना संघ का बल्कि ये शानदार आयोजन समाजवादियों का था। मोदी ने उप्र के सीएम अखिलेश की बिटिया को गोद में बिठाया, पुचकारा। अब मोदी की शैली को हम क्या नाम दें। राज्यसभा में जरूरी भूमि अधिग्रहण बिल पास कराने की कवायद या फिर जनता के बीच आम नेता की छवि बनाने वाला राजनेता। शायद इसे ही सख्त मोदी की मुलायम कूटनीति कहते हैं। सैफई में नेता जी के पोते का भव्य तिलोकोत्सव मानो एक राष्ट्रीय पर्व बन गया था। राजनीति की सभी जानी मानी हस्तियां अपने लाव लश्कर के साथ नेताजी के दर पर खड़ी दिखीं। वही सैफई था, वही भव्यता थी लेकिन इस पर उंगली उठाने वाले नेता इसका अंग बने आनंद उठा रहे थे। उस पर हमारे पीएम का व्यवहार किसी भी तरह से देश के उच्च पद पर आसीन व्यक्ति की गरिमा के अनुसार नहीं दिखा।
आप : नई राजनीति की बड़ी जीत
दिल्ली का सिंहासन आम आदमी पार्टी के खाते में यूं ही नहीं गया बल्कि इसे पाने में पूरे एक वर्ष की मेहनत रही। दिल्ली के इलाकों की खाक छानते आप के नेता और कार्यकर्ता जिन्होंने ना सिर्फ अपनी पार्टी के सिर पर जीत का सेहरा बांधने का ख्वाब पाला बल्कि उसे मिशन मान कर पूरा भी किया। भाजपा जैसी 'कैडर' आधारित पार्टी को उसी के लहजे और तरीके से इस नई नवेली पार्टी ने जवाब दिया। एक नए तरीके की राजनीति और उसपर भारी भकरम जीत। भाजपा के लिए निश्चित तौर पर मंथन का समय है। आखिर कांग्रेस को लोकसभा चुनावों में हराने वाली पार्टी कैसे 8 से 9 महीनों में धूल धूसर हो गई। ऐसे में अगर भाजपा की सीएम उम्मीदवार किरण बेदी के पति बृज बेदी पार्टी कार्यकर्ताओं की निष्क्रियता को जिम्मेदार ठहरा रहें हैं तो क्या गलत है।