मुंह में राम बगल में छुरी
ADR की रिपोर्ट वर्तमान सरकार की महिला सुरक्षा को लेकर गंभीरता की पोल पट्टी खोलती है। बताती है कि सरकार कितना भी खुद को पाक साफ जताने की कोशिश कर रही हो लेकिन हकीकत इसके उलट है। ये रिपोर्ट महिलाओं के साथ हो रही हिंसा या दुर्व्यवहार को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों की मंशा पर भी सवाल खड़े करती है।
इसे कुप्रबंधन ना कहें तो क्या कहें
डिजिटल होते इंडिया की ये अजब सी परेशानी है। सरकार विमुद्रीकरण के बाद लगातार अपनी पीठ थपथपा रही है। अब तक काले धन पर नकेल का राग अलापा जा रहा है। और इन सबके बीच बेचारी आम जनता फिर ऑटोमैटिक टेलर मशीन के सामने खाली हाथ लिए खड़ी है। अपना ही पैसा नहीं निकाल पा रही है। सरकार कितने भी तर्क गढ़े लेकिन ये साफ हो गया है कि वर्तमान सरकार जितना चुनावों के प्रबंधन में माहिर है उतनी ही अपनी नीतियों को लागू कराने में नाकाम साबित हो रही है। इसे कुप्रबंधन ना कहा जाए तो और क्या कहा जाए?
रेप के लिए समाज नहीं, राजनीति है जिम्मेदार
एक आठ साल की मासूम थी तो दूसरी 17 साल की किशोरी। दोनों के साथ घिनौना अपराध हुआ। मामला रसूखदारों का था सो असर होने में वक्त लगा। कश्मीर का कठुआ हो या फिर उत्तर प्रदेश का उन्नाव, आम आदमी की तकलीफ एक सी दिखी। राजनीति के खिलाड़ियों ने पूरी कोशिश की गेंद को अपने हिसाब से खेलने की और क्रम अब भी जारी है। जानकार और विशेषज्ञ इस स्थिति के लिए हमारी वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को दोषी ठहरा रहें हैं। लेकिन ध्यान से देखें और वस्तु स्थिति को समझें तो पायेंगे कि दरअसल, ये समाज का नहीं बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति का गिरता स्तर है जो ऐसे अपराधों पर नकेल नहीं कस पा रहा है।
एससी/एसटी एक्ट: मौनं स्वीकृति लक्षणम
एस/एसटी एक्ट को लेकर हंगामा बरपना था और वैसा ही हुआ। 2 अप्रैल को विरोध प्रदर्शनों का दौर चला, उग्र हुआ और कई लोगों को लील गया। हमारी सरकार को शायद इस हंगामे और हिंसक प्रदर्शन का आभास नहीं था या था तो शायद वो मौके के इंतजार में थी और हालात बिगड़ने के साथ ही पुनर्विचार याचिका कोर्ट में डाल दी। आखिर सरकार ने पहले केस को मजबूत करते आंकड़ें और दलीलें अदालत के सामने क्यों नहीं रखी? क्या इसे सोच समझकर वोट बैंक के लिए रचा गया? इसे मौनं स्वीकृति लक्षणम ना कहा जाए तो और क्या कहा जाए!
क्या वाकई रंग लाएगी डिनर डिप्लोमेसी?
कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी एक बार फिर डिनर डिप्लोमेसी के जरिए विपक्ष को एकजुट करने की जद्दोजहद में लगी हैं। मिशन 2019 से पहले, मोदी-शाह के जादू के असर को कम करने और बिखरते विपक्ष को साधने का ये प्रयास लगता है। इससे पहले भी अलग-अलग मौकों पर सोनिया विपक्ष को एक सूत्र में बांधने की कोशिश करती दिखीं हैं। नहीं भूलना चाहिए कि लोकतंत्र की खूबसूरती उसकी विविधिता में ही निहित है, एकरूपता में नहीं।
ईमानदारी जीत का सर्टिफिकेट नहीं
देश के सबसे गरीब मुख्यमंत्री माणिक सरकार हार गए। देश की सभी पार्टियां और राजनेता इनकी ईमानदारी की तारीफ करते नहीं अघाते तो आखिर उन्हें हार क्यों मिली, ये सवाल मौजूं हो चला है। किसी भी राज्य की जनता को क्या चाहिए- एक साफ सुथरे व्यक्तित्व वाला मुखिया या फिर एक ऐसा राजनेता जो अपनी छवि से इतर लोगों की समस्याओं को संबोधित करे।
कैसे हो बैंकों पर भरोसा!
पहले विजय माल्या और अब नीरव मोदी। दो ऐसे उद्योगपति जिन्होंने देश के बैंकिंग सेक्टर को हिला कर रख दिया। इन दोनों ने गाढ़ी कमाई को जमा कराने वालों के विश्वास को डिगा दिया है। जहां एक आम हिन्दुस्तानी को अपना लोन पास कराने में एड़ी चोटी का दम लगाना पड़ता है, कर्ज पर पैसे लेने के लिए बैंकों के चक्कर लगाने पड़ते हैं, कागज दुरुस्त कराने पड़ते हैं वहीं एक रसूखदार कितनी आसानी से अपनी मंजिल पा लेता है माल्या और मोदी उसी की मिसाल है।
महाभारत भी याद आ गया
रेणुका चौधरी की हंसी इतनी गहरी और चुभन भरी थी कि प्रधानमंत्री को रामायण सीरियल याद आ गया। काश! उन्हें महाभारत में द्रौपदी की हंसी भी याद आ जाती। दरअसल, संसद में जिस तरह की सोशल मीडिया की तर्ज पर चलताऊ फिकरे या हाजिरजवाबी का दौर चल पड़ा है वाकई वो काफी अटपटा और अपचनीय है। प्रधानमंत्री ने रामायण के बहाने रावण और शूर्पणखा की तुलना चौधरी से की। मर्म समझकर पूरा सत्तापक्ष ठहाकों से गूंज गया। हैरानी है कि अब हमारी संसद में महिला की हंसी पर भी मेजें थपथपाई जाएंगी।
भरोसा नहीं खुशफहमी वाला बजट
बजट देश के लिए होता है और उससे जुड़ी होती हैं आम आदमी की ढेर सारी उम्मीदें। 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले मोदी सरकार का यह आखिरी पूर्ण बजट था। उम्मीद तो यही थी कि जब वित्त मंत्री अरुण जेटली संसद में बजट पेश करने के लिए खड़े होंगे और उनकी पोटली से जो बजट निकलेगा, लोग कहेंगे- वाह! क्या बजट है। चार साल के सारे गिले-शिकवे खत्म। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हुआ नहीं।
ओछी राजनीति
देश की सबसे पुरानी पार्टी के मुखिया को पहली, दूसरी तो छोड़िए छठी पंक्ति में बिठा दिया जाए तो ये सत्ताधारियों के इमान में इजाफा नहीं करता बल्कि ओछी राजनीति का तमगा उन्हें जरूर देता है। भाजपा पुराने दौर को भुनाने में लगी है अपने साथ हुए सुलूक को गिना रही है लेकिन अच्छा होता कि खुद को वो पूर्व की सरकारों से अलग साबित कर पाती। काश ऐसा होता! तो कवि बिहारी का दोहा- कनक-कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय वा खाए बौराए जग, या देखे बौराए...भाजपा के संदर्भ में याद नहीं आता।