प्रधानमंत्री जी! हिम्मत नहीं, विमर्श अहम है
सुब्रमण्यम स्वामी, मोहन भागवत, यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी ये सब कुछ ऐसे नामी गिरामी शख्सियतें हैं जिन्होंने प्रधानमंत्री को अर्थव्यवस्था की बिगड़ी डगर के बारे में आगाह करने का जोखिम उठाया, लेकिन पीएम ने पलट कर इन्हें नसीहत दे डाली और ऐसे लोगों को निराशावादी करार दे दिया। हिम्मत सिर्फ हमने दिखाई कह कर चुप कराने का जिगर दिखा डाला। लेकिन क्या ऐसा कह मोदी गांधारी बनने की कोशिश नहीं कर रहे?
बीएचयू में जो हुआ वो शर्मनाक
बीएचयू में लड़कियों के साथ छेड़खानी हुई, उन्होंने विरोध किया तो उन पर लाट्ठियां बरसाईं गईं- आखिर हम कौन से लोकतांत्रिक व्यवस्था में रह रहें हैं? जहां सरेआम छात्राओं को अपमानित किया जाता है सुरक्षा के लिए तैनात गार्ड मूक दर्शक बना रहता है और पुलिस आती है तो डंडा उसी के खिलाफ उठाती है जो भुक्तभोगी हैं।
'वैशाखनंदन' पर शोर क्यों?
जब वैशाख महीने में सब कुछ अस्त-व्यस्त होता है सभी जीव जंतु हरियाली के बाद कमजोर होने लगते हैं तो गधा ही एक ऐसा सीधा सच्चा प्राणी है जो फल फूल रहा होता है। उसे वैशाखनंदन की उपाधि शास्त्रों ने प्रदान की। उसकी तुलना उन मनुष्यों से की जो उपलब्धियों पर इतराते हैं और जीवन के असली उद्देश्य से अनजान रहते हैं।
राजनीति से प्रेरित है निजी स्कूलों की मनमानी
रेयान इंटरनेशनल स्कूल में 7 साल के प्रद्युम्न ठाकुर की नृशंस हत्या हमारे बिगड़ते सामाजिक व्यवहार का उदाहरण तो है ही साथ ही हमारे लिए एक संकेत भी है। इशारा कि केवल सामाजिक तानेबाने को कोसने या फिर किसी संस्थागत कमी की लकीर को पीटने भर से कुछ नहीं होगा बल्कि बात तो तब बनेगी जब हम पोलिटिकल रिफॉर्म पर बहस करेंगे।
हां, मैं आजाद नहीं!
गौरी लंकेश निर्भीक, साहसी और मुखर शख्सियत का नाम था। जिसने वही किया जो उसके दिलोदिमाग ने कहा, वही कहा जो पत्रकारिता के लिहाज से सही था और वहीं जिआ जिसमें खुद यकीन किया। फिलहाल यही बेबाकी, कट्टर हिंदूवादी सोच की मुखालफत उनकी हत्या की वजह बताई जा रही है। बेंगलुरू कि इस कन्नड़ टेबलॉयड की संपादक की मौत से हैरानी कम और कष्ट और गुस्सा ज्यादा आ रहा है। सवाल कौंध रहा है कि आखिर हम किस समाज में रह रहें हैं? क्या इस आजाद देश में हमें अपनी बात, अपने हिसाब से रखने की भी इजाजत नहीं! क्या हम अगर परम्पराओं से इतर बोलेंगे तो हमें गोलियों का सामना करना पड़ेगा?
जस्टिस दीपक मिश्रा- एक प्रो सिटीजन जज
जस्टिस दीपक मिश्रा देश के नए मुख्य न्यायाधीश हैं। अपने फैसलों को लेकर काफी चर्चा में रहें हैं। 16 महीनों में 5000 मामले निपटाने का श्रेय भी इन्हें जाता है और देश के पहले जज हैं जिन्होंने 192 शब्दों का सबसे लंबा फैसला सुनाया। मामला 2015 का है। देश को अपने 45वें CJI से उम्मीदें भी हैं और भरोसा भी की फैसले की रफ्तार में भी तेजी आयेगी। इन्हें pro-citizen जज के तौर पर ख्याति प्राप्त है। सबरीमाला में महिलाओं की एंट्री या फिर एफ़आईआर की कॉपी 24 घंटों में वेबसाइट पर डालने का आदेश- जनता की उम्मीदों पर खरा उतरने वाला फैसला लिया।
ट्रिपल तलाक- सवाल पूरे हक का
सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। इस फैसले के राजनीतिक परिणाम चाहें जो भी हों लेकिन आधी मुस्लिम आबादी को पूरा हक दिलाने की पहल के लिए सुप्रीम कोर्ट की पीठ तारीफ की हकदार है जिसने इस मसले को समाज के विकास और उत्थान से जोड़ा। साथ ही साफ किया कि हर मामले की सुनवाई और फैसला कोर्ट में संभव नहीं। ये धार्मिक आस्था का प्रश्न है इसलिए अदालत इस मामले में पूरी तरह हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। राजनीतिज्ञों को मशविरा भी दिया और नसीहत भी कि दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर फैसला लें। गेंद उन्हीं के पाले में है।
'गोली, गाली नहीं' तो फिर 'काफिल' कैसे?
प्रधानमंत्री ने लालकिले की प्राचीर से आस्था की बात की। आस्था के नाम पर किसी के साथ अत्याचार ना करने की सीख साफ थी। तो फिर महज दो दिन पहले गोरखपुर में बच्चों की मौत पर प्रदेश की भाजपा सरकार द्वारा एक शख्स काफिल को लेकर चर्चा क्यों है? फिर क्यों धर्म के नाम पर राजनीति हो रही है और पीएम सीधे-सीधे बच्चों के सामूहिक कत्ल पर सांप्रदायिक रंग दिए जा रहे प्रयासों पर बोलने से बच गए।
परिपक्वता और स्पष्टता की कमी से जूझती संसद
संसद में पिछले एक दशक से बहस का अंदाज देखकर लगता है मानो लोकतंत्र का ये मंदिर sense of maturity और sense of Clarity से दूर होता जा रहा है। पंडित नेहरू, वल्लभ भाई पटेल, अंबेडकर, अटल जैसे ज्ञानी, परिपक्व और संवेदनशील शख्सियतों की कमी साफ खल रही है। छोटे परदे पर हम वो बहस देखते हैं जिसका ना तो कोई नतीजा होता है और ना देश की किस्मत बदलने का जज्बा दिखता है। दिखता है कि कैसे संसद की कार्यवाही हंगामें की भेंट चढ़ रही है, कैसे एक नेता दूसरे पर तंज कस कर नम्बर बढ़ाने की होड़ में लगा है और कैसे फब्तियों से बढ़ते-बढ़ते नौबत कागज-तख्तियां फेंकने तक बढ़ जाती हैं।
गुजरात के शाह को मात
गुजरात में राज्यसभा सीट के लिए हुए चुनावों में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह जीत कर भी हार गए हैं। हाल फिलहाल तक अमित शाह के रणनीतिक कौशल और जोड़-तोड़ की राजनीति को लेकर कोई संशय नहीं रहा है। उत्तर पूर्व हो, गोवा हो, उत्तराखण्ड हो या फिर बिहार- भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने विरोधियों के लिए ऐसी बिसात बिछाई की सब उसमें उलझे और अपनी जमीन खोते चले गए।