फिर से राम मंदिर का मुद्दा
कृष्ण किशोर पांडेय
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने यह मांग कर के कि सरकार अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए शीघ्र कानून बनाए, असल में सरकार की दुखती रग को छेड़ दिया है। राम मंदिर बनाने का मुद्दा बहुत पुराना है और देश के लिए यह एक ऐसा सवाल बन गया है जिस पर हर दृष्टिकोण से विचार करने की जरूरत होती है। यह सिर्फ धार्मिक मामला नहीं है, यह सिर्फ सांप्रदायिक भी नहीं है, लेकिन कुल मिलाकर बातें ऐसे उलझ गई है कि उनको सुलझाने में न्यायपालिका को भी अच्छी खासी कसरत करनी पड़ेगी। यह मुद्दा भावनात्मक बन चुका है। जहां तक इस मुद्दे के राजनीतिक पहलू का सवाल है तो खासकर भाजपा के लिए यह एक प्रतिष्ठा का भी सवाल बन गया है। जब केंद्र में और उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकारें नहीं थीं तब भाजपा लोगों के सामने यह कहकर अपनी प्रतिष्ठा बचाती थी कि जब तक सत्ता की ताकत न मिले तब तक इस मुद्दे को सुलझाना मुश्किल है। आज केंद्र में भी भाजपा की सरकार है और उत्तर प्रदेश में भी भाजपा की सरकार है। इतना ही नहीं केंद्र और उत्तर प्रदेश की सरकारों में बैठे मंत्रिगण बारी बारी से यह आश्वासन देते रहते हैं कि अयोध्या में राम मंदिर जरूर बनाएंगे। यहां तक कि 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले और 2017 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के पहले अनेक भाजपा नेताओं ने कई बार यह आश्वासन दिया कि अयोध्या में राम मंदिर जरूर बनाएंगे। केंद्र सरकार चार साल से अधिक का कार्यकाल पूरे कर चुकी है और उसके पास बहुत समय नहीं बचा है। कम से कम मंदिर निर्माण की प्रक्रिया शुरू भी हो जाए तो जनता को एक तरह का आश्वासन मिल जाएगा। सबको यह भी पता है कि मामला शीर्ष अदालत के पास है और बहुत जल्द ही सुनवाई भी शुरू होने वाली है। ऐसी हालत में केंद्र सरकार के पास कानून लाना बहुत आसान नहीं रह गया है। यह सही है कि राम मंदिर बनाने के खिलाफ कोई नहीं है, लेकिन यह भी सबको मालूम है कि अदालत अपने रास्ते पर चलती है। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू होगी और फिर सभी पक्षों की ओर से अपने-अपने तर्क और सुझाव रखे जाएंगे। सुनवाई पूरी हो जाए इसके बाद कोई फैसला आएगा और फिर जो नई परिस्थिति पैदा होगी उसके हिसाब से सरकार को अपनी रणनीति बनानी पड़ेगी। ऐसा नहीं है कि इन तमाम अड़चनों से कोई अनभिज्ञ है। इसके बावजूद मोहन भागवत का यह सुझाव कि सरकार इसके लिए कानून बनाए, एक चुनौती की तरह ध्वनित होती है। अगर सरकार कानून बनाने की प्रक्रिया शुरू नहीं करती है तो यह माना जाएगा कि उसने आरएसएस के सुझाव को दरकिनार कर दिया जो भाजपा की राजनीति के लिए अच्छा संकेत नहीं है। अगर सरकार अपनी ओर से ईमानदारी से प्रयास भी करे और इतनी जल्दी कोई कानून न बना पाए तो आरएसएस की नजर में सरकार की किरकिरी होगी। उससे भी बड़ी चुनौती यह है कि जब मामला सुप्रीम कोर्ट के पास है और सुनवाई शुरू होने वाली है तो ऐसी स्थिति में सरकार द्वारा कानून बनाने की प्रक्रिया शुरू करना कितना उचित होगा। सवाल यह उठता है कि एक आरएसएस जैसे संगठन के मुखिया ने ऐसा सुझाव क्यों दिया जो असंभव सा लगता है।
जानकार लोगों का मानना है कि मोहन भागवत ने 2014 में ही राम मंदिर निर्माण का मुद्दा उठाया था और इसके बाद चार साल तक लगातार चुप्पी साधे रखी। फिर अचानक वह यह मुद्दा लेकर आए हैं और वह भी एक कठिन सुझाव के साथ। इसका अर्थ ये हुआ कि बिना कुछ कहे वह यह कहना चाहते हैं कि अपने कार्यकाल के दौरान केंद्र की मोदी सरकार ने राम मंदिर के सवाल पर उस तरह से ध्यान नहीं दिया जिसकी जरूरत थी। ऐसा लगता है जैसे कोई आदमी जब धैर्य खो देता है तो वह निराशा की स्थिति में ऐसे सुझाव देता है। इसमें कोई शक नहीं है कि राम मंदिर के निर्माण का मुद्दा पूरे भारत में और कम से कम उत्तर प्रदेश में राजनीति को प्रभावित करेगा। वजह यही है कि केंद्र और राज्य की सरकारों को कोई बहाना बनाने का मौका नहीं मिल पाएगा। इधर वास्तविकता यह है कि अक्टूबर के अंतिम सप्ताह में जब सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई शुरू होगी तो उसमें समय तो लगेगा। ऐसी संभावना तो नहीं हो सकती कि सुनवाई शुरू हो और अदालत की ओर से कोई अंतरिम आदेश दे दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट के सामने भी इलाहाबाद हाईकोर्ट का वह फैसला पड़ा हुआ है जिसमें विवादित स्थल को तीन भागों में बांटने का निर्णय दिया गया था। इलाहाबाद हार्इकोर्ट के उस निर्णय पर अमल नहीं हुआ। अगर उस समय किसी तरह की सहमति सभी पक्षों के बीच हो जाती तो समस्या का समाधान निकल सकता था। कोई सहमति नहीं बन पाई तो इसकी वजह यही रही कि अभी भी विभिन्न पक्ष अपने-अपने तर्कों पर अड़े हुए हैं। सामान्य आदमी तो यही सोचेगा कि अगर अदालत ने विभिन्न पक्षों को पक्ष के रूप में स्वीकार कर लिया है तो उनका अस्तित्व कायम है और रहेगा। किसी भी पक्ष को मुद्दे से बाहर कर देना आसान नहीं है। और जब सभी पक्ष मौजूद हैं तो एक ही रास्ता बचता है कि उनमें आपसी बातचीत से जमीनों के लेन-देन के बारे में बातचीत हो और उनमें आपस में कोई सहमति बने। दूसरी तरफ जनता के बीच यह मुद्दा ऐसा भावनात्मक रूप ले चुका है कि कोई भी पक्ष अपनी मांगों से पीछे हटने को तैयार नहीं है। जाहिर है कि बहुत आसानी से हल निकालना संभव नहीं है। शीर्ष अदालत की सुनवाई कितनी लंबी चलती है यह देखने की बात है।
बहरहाल, यह मानकर चलना चाहिए कि शीर्ष अदालत की सुनवाई में भी समय लगेगा और केंद्र सरकार के लिए कोई नया कानून बनाना भी इतनी जल्दी संभव नहीं है। इस प्रक्रिया को भी समय लगेगा। इतना ही नहीं, सरकार के सामने कानून बनाने के लिए एक दिक्कत और है। इसकी कोई गारंटी नहीं है कि सरकार जो कानून बनाए उसको फिर से चुनौती न दी जाए। सरकार ने कानून बना दिया और किसी पक्ष ने फिर सुप्रीम कोर्ट में उस कानून को चुनौती दे दी तो फिर एक लंबी प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। कुल मिलाकर आरएसएस के सरसंघचालक का सुझाव सरकार के लिए बहुत सुविधाजनक नहीं लगता। यह कहानी एक अजीब मोड़ लेती जा रही है। अभी तक लोग यही समझ रहे थे कि भाजपा आरएसएस की राजनीतिक शाखा है। यह धारणा इतनी पुरानी और प्रबल हो चुकी है कि कोई भी यह मानने को तैयार नहीं कि आरएसएस और भाजपा में कोई सैद्धांतिक या प्रक्रिया संबंधी कोई मतभेद है। परंतु मोहन भागवत का सुझाव निश्चित रूप से एक नई दिशा की ओर संकेत कर रहा है। इसके पहले भी कुछ घटनाएं ऐसी हुई हैं जिनको लेकर लोगों के मन में भाजपा और आरएसएस के आपसी संबंधों के बारे में गलतफहमियां पैदा हो रही हैं। आरएसएस के एक महत्वपूर्ण सम्मेलन में पूर्व राष्ट्रपति और कांग्रेस के पूर्व वरिष्ठ नेता प्रणब मुखर्जी को आमंत्रित किया गया था। प्रणब मुखर्जी ने अपने भाषण में आरएसएस को अपना रवैया बदलने की सलाह दी और एक नई दिशा की ओर बढ़ने का संकेत दिया। सम्मेलन के दौरान और उसके बाद भी प्रणब मुखर्जी के भाषण का आरएसएस द्वारा कहीं कोई विरोध नहीं हुआ। सामान्य तौर पर ऐसा नहीं होता है। इसका दो ही मतलब हो सकता है- एक तो यह कि वास्तव में मोहन भागवत के नेतृत्व में आरएसएस अपने आपको बदलने की राह पर है अथवा दूसरा अर्थ यह निकलता है कि केंद्र की वर्तमान सरकार और आरएसएस की सोच समझ में अंतरविरोध खुलकर सामने आ रहे हैं।
राम मंदिर बनाने के मुद्दे को हल करने में कितना समय लगेगा यह तो कहना मुश्किल है। लेकिन इसका जो राजनीतिक प्रभाव होने वाला है उस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है। जहां तक आरएसएस और भाजपा के आपसी संबंधों का सवाल है तो इसमें कोई शक नहीं है कि चूंकि भाजपा एक राजनीतिक पार्टी है इसलिए अपनी हार-जीत का ध्यान रखना उसके लिए जरूरी है। आरएसएस बाहर रहते हुए भी भाजपा की मदद करता आया है। लेकिन संभवतः आरएसएस ऐसा कभी नहीं चाहेगा कि भाजपा की हार-जीत का असर उसकी अपनी रीति-नीति पर पड़े। आरएसएस की प्रकृति अन्य संगठनों से अलग है। वह राजनीति में घोषित रूप से हिस्सा नहीं लेता लेकिन राजनीतिक क्रियाकलापों में उसकी पूरी दिलचस्पी भी है। हालांकि वह स्वंय को एक सांप्रदायिक संगठन नहीं मानता लेकिन यह दावा जरूर करता है कि उसे हिन्दू हितों का बहुत ख्याल है। आमतौर पर यह बात भी मानी जाती है कि आरएसएस का सदस्य अपने संगठन के प्रति बहुत निष्ठावान और समर्पित है। भाजपा भी कभी भी यह दिखाना नहीं चाहती कि अपने मूल संगठन आरएसएस से उसका कहीं कोई मतभेद है। लेकिन कई बार संगठनों के बीच आपसी मतभेद नहीं होने के बाद भी व्यक्तित्वों के टकराव से समस्या खड़ी हो जाती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि यह एक बहुत नाजुक घड़ी है। नवंबर-दिसंबर में पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं। उसके कुछ महीने बाद ही संभवतः मार्च-अप्रैल में देश भर में लोकसभा के चुनाव कराए जाएंगे। राजनीतिक स्थिति का एक संक्षिप्त आंकलन यह बता रहा है कि अधिकांश विपक्षी दल एक मोर्चा बनाकर चुनाव में भाजपा को हराना चाहते हैं। भाजपा पहले की तरह अब भी अपनी सफलता के दावे कर रही है। लेकिन वास्तविक स्थिति यह है कि अगर वाकई विपक्ष एकजुट हो गया तो भाजपा के लिए जीत हासिल करना आसान नहीं होगा। ऐसे समय में जब कि विपक्षी दल केंद्र की भाजपा सरकार पर तरह-तरह के आरोप लगा रहे हैं उस समय भाजपा को यह उम्मीद बनती है कि आरएसएस उसके बचाव में आगे आएगा। अगर ऐसा नहीं होता है और आरएसएस तथा भाजपा के आपसी संबंध पहले की तरह बहुत मधुर नहीं होते हैं तो यह भाजपा के लिए शुभ संकेत नहीं माना जाएगा। यह एक मौका है जब कि आरएसएस के वरिष्ठ नेताओं और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं के बीच खुलकर बातचीत हो और पहले जैसी आपसी सहमति बनाने की कोशिश की जाए। फिलहाल, राम मंदिर का मुद्दा फिर एक बड़ा मुद्दा बनने जा रहा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक चिंतक हैं।)