गांधी शरणं गच्छामि
कृष्ण किशोर पांडेय
भारत में आज जो माहौल बन गया है उसका विश्लेषण करना हर भारतवासी के लिए जरूरी हो गया है। जनता को यह तो लग गया है कि चार साल पहले देश की राजनीति में आये एक नए मोदीवाद का प्रयोग सफल नहीं हुआ। 2014 में स्वयं मोदी और उनके समर्थकों ने मिलकर एक ऐसा माहौल बना दिया था जिसमें हर भारतवासी को दो बातें दिखाई दे रहीं थी। एक तरफ सत्ताधारी कांग्रेस के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप इतने जोर-शोर से लगे कि बहुत लोगों को लगने लगा कि वास्तव में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। यहां तक कि भ्रष्टाचार के आरोप के सामने कांग्रेस के विकास के सारे काम और दावे भी धुंधले पड़ते चले गए। दूसरी तरफ मोदीवाद में एक ऐसी तस्वीर पेश की गई जिसमें यह दिखाया गया कि सारा कालाधन वापस आएगा, देश के हर आदमी को बैठे-बिठाये 15 लाख रुपये मिलेंगे, हर साल 2 करोड़ नौजवानों को रोजगार मिलेगा, गंगा सहित अन्य नदियों को स्वच्छ बनाया जाएगा, सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार खोजने से भी नहीं मिलेगा और हर तरफ विकास ही विकास दिखाई देगा। मोदीवाद द्वारा खीची गई तस्वीर इतनी आकर्षक और विश्वसनीय बनी कि लोगों ने उसपर विश्वास किया और उसे केंद्र से लेकर कई राज्यों में सत्ता सौंप दी। लेकिन पिछले चार वर्षों में दोनों अर्थों में मोदीवाद विफल हुआ है। कांग्रेस के खिलाफ जितने गंभीर आरोप लगाए गए वे न सिर्फ झूठे साबित हुए बल्कि उनसे साजिश की बू भी आती है। सबसे बड़ा आरोप 2जी स्पेक्ट्रम मामले को लेकर लगा। कैग के तत्कालीन प्रमुख विनोद राय ने आरोप लगाया कि करोड़ों का उसमें घोटाला हुआ है और सरकार को चूना लगाया गया है। उसमें कई गिरफ्तारियां भी हुईं। एक मंत्री को बाहर निकाला गया और सीबीआई की गहन जांच हुई। सीबीआई की अदालत में मुकदमा चला। आखिर में जो असलियत सामने आईं वह यह थी कि सीबीआई के जज ने न सिर्फ दोषियों को आरोपमुक्त किया बल्कि यह कहा कि लंबी प्रतीक्षा के बावजूद सीबीआई उनके सामने आरोप से संबंधित कोई भी साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर सकी। सीबीआई जज द्वारा खुलासा करने के बाद कैग हो या सीबीआई या सरकार, कोई कुछ बोलने की स्थिति में नहीं रहा। मतलब साफ है कि यह भ्रष्टाचार का मामला नहीं, बल्कि एक साजिश का हिस्सा था। यह देखा गया कि मोदीवाद में विपक्ष को सिर्फ कमजोर करने की ही नहीं, पूरी तरह नेश्तनाबूत करने की भी चेष्टा की गई।
कोई भी समझदार आदमी यह सोच सकता है कि लोकतंत्र में कांग्रेसमुक्त भारत बनाने की चेष्टा संविधान के अंतर्गत जायज मानी जाएगी? यह तो ठीक वही बात हो गई कि 'आये थे हरि भजन को लोटन लगे कपास'। जनता ने मोदीवाद को एक नया प्रयोग समझकर मौका दिया यह सोचकर कि जो वायदे किए हैं उनमें से कुछ भी पूरा हो और कम से कम आगे बढ़ने का संकेत मिले तो यह भी तसल्ली देने वाला होगा। लेकिन हुआ यह कि मोदी सरकार और उसके समर्थकों ने सिर्फ अपने विरोधियों के खिलाफ काम करने में अपनी पूरी ताकत लगा दी। आज मोदी दावा करते हैं कि लोकतंत्र उनकी रग-रग में बसा हुआ है। जैसे पूरी भाजपा के अंदर जलेबी की रस की तरह लोकतंत्र का रस समाया हुआ है। जबकि असलियत यह है कि उत्तराखंड हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने एक मामले में साफ टिप्पणी की थी कि केंद्र सरकार लोकतंत्र की हत्या कर रही है। लोग इस बात को स्वीकार कर सकते हैं कि अगर कहीं भ्रष्टाचार की आशंका दिखती हो तो उसकी जांच कराई जाए और दोषियों को दंडित किया जाए। लेकिन लोग इस बात की इजाजत नहीं देगें कि विरोधियों के भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए या दोषियों को पकड़ने के लिए सबकुछ किया जाए और भाजपा के लोगों या उनके समर्थकों के खिलाफ लगे आरोपों को ढकने और दबाने के लिए हरसंभव प्रयास किया जाए।
आज ऐसे-ऐसे आरोप भाजपा समर्थकों के खिलाफ लगे हैं कि लोग यह सोचने को बाध्य हो गए हैं कि वास्तव में भ्रष्टाचारी या चोर कौन है? क्या यह सिर्फ इत्तफाक है कि विजय माल्या, ललित मोदी और अब नीरव मोदी जैसे बड़े-बड़े घोटालेबाज देश को नुकसान पहुंचाने के बाद आराम से विदेश भागने में सफल हो गए? इनकी गतिविधियों के बारे में मोदी सरकार का सारा तंत्र विफल हो गया। अब तो लोगों को ऐसा लगने लगा है कि इन लोगों को भगाने में सरकारी तंत्र का हाथ है। और यह तभी हो सकता है जब घोटालेबाजों ने खूब खाया, खुद खाया और सरकारी तंत्र को भी खिलाया। मोदीवाद में एक जुमला निकला था- न खुद खाएंगे और खाने देंगे। जुमले की असलियत जो सामने आई है वह यह है कि खाएंगे भी, कुछ को खिलाएंगे भी और किसी को खबर भी नहीं होने देंगे। नीरव मोदी के मामले में तो सारी हदें पार हो गईं और अब तो यह लग रहा है कि मोदीवाद में एक मोदी नहीं, कई मोदी अपनी करतूते बारी-बारी से दिखा रहे हैं। अब जो खबरें आ रही हैं उनसे लग रहा है कि नीरव मोदी तीन साल से बैंक में धोखाधड़ी का काम कर रहा था और रिजर्व बैंक सहित कई लोगों ने उपयुक्त जगह पर चेतावनियां भी जारी की थी। कहते हैं कि प्रधानमंत्री कार्यालय तक को खबर थी लेकिन हुआ यही कि उधर बैंक घोटाले का भंडाफोड़ हुआ और इधर नीरव मोदी भारत से बाहर भाग गया। कमाल की बात तो यह है कि कुछ भाजपा नेता अपने-अपने बचाव में यह कहने लगे कि इस घोटाले की शुरूआत कांग्रेस सरकार में ही हो गई थी। बचाव संबंधी इस बयान में अर्थ यह छिपा हुआ है कि नींव तो रखी गई थी कांग्रेस के जमाने में लेकिन घोटाले का भव्य महल मोदी सरकार के कार्यकाल में बनकर तैयार हुआ। अगर घोटालों की लिस्ट बनाई जाए तो बिहार का सृजन घोटाला कम नहीं माना जाएगा। मध्यप्रदेश का व्यापमं घोटाला, छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री और उनके बेटे के खिलाफ आरोप आदि अनेक घटनाएं हैं जिनको दबाने की कोशिश होती रही। नोटबंदी के जमाने में एक नाम आया था महेश शाह का। उनके पास 13 हजार 500 करोड़ का कैश बरामद हुआ। उन्होंने कानून के अंतर्गत आयकर की रकम चुका दी और अपने पास 6500 करोड़ रुपये रख लिया और उसके खिलाफ कोई जांच नहीं हुई कि इतना पैसा उसके पास कहां से और कैसे आया। अमित शाह के शाहजादे की एक कंपनी जो 50 हजार का कारोबार करती थी अचानक 80 करोड़ की कंपनी बन गई और मीडिया ने जब इस बात को उठाया तो उसके खिलाफ मानहानि का मुकदमा चला। कहने का मतलब यह कि मोदीवाद के दौरान चार साल में लोकतंत्र विरोधी ही नहीं, संविधानविरोधी भी एक से बढ़कर एक काम किये गए।
जहां तक मोदीवाद की उपलब्धियों की चर्चा की बात करें तो यह असलियत है कि चार वर्षों में 2014 के वायदों में से कुछ भी पूरा नहीं हुआ है। उपलब्धियों के नाम पर सिर्फ यह गिनाया गया है कि मोदी जो कुछ कर रहे हैं उसका फायदा आगे चलकर मिलेगा। नोटबंदी एक बड़े तमाचे के रूप में लोगों को महसूस हुआ। जीएसटी की गड़बड़ियां तब से दूर की जा रही हैं जबसे यह लागू हुआ। अभी भी व्यवसायी वर्ग इससे संतुष्ट नहीं है। यह सच है कि मोदीवाद में उठाए गए आर्थिक कदमों से अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है। ताजा प्रमाण शेयरों का सूचकांक है। लाख प्रयासों के बावजूद अर्थव्यवस्था को गति नहीं मिल रही है। रोजगार सृजन का दावा तो अलग, करोड़ों लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रोजगार से वंचित हो गए। अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए बहुत कुछ करना पड़ेगा। विदेश नीति के मामले में अपने पड़ोसियों के साथ अच्छे संबंध तो दूर, ऐसे संबंध बन रहे हैं जहां परेशानियां दिखाई दे रही हैं। मालदीव, चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार इत्यादि पड़ोसी देशों के साथ भी संबंध अच्छे नहीं रहे। कश्मीर की स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है। नेताओं की बात तो छोड़ दी जाए, सेनाध्यक्ष की तरफ से ऐसे बयान आ रहे हैं जिसकी उम्मीद लोगों को नहीं थी। मतलब यह कि मोदीवाद में किसी भी क्षेत्र में ऐसा कोई काम नहीं हुआ है जिससे लोग अपने को गौरवान्वित महसूस कर सकें।
मोदी और मोदीवाद के समर्थक कुछ भी दावा करें, लेकिन आम आदमी आज यह सोचने को मजबूर है कि आखिर यह प्रयोग विफल क्यों हुआ। सोचने की दिशा में लोग इस नतीजे पर पहुंच रहे हैं कि मोदीवाद की विफलता का कारण उसके जन्म में ही छिपा हुआ है। मोदीवाद का मंत्र यह समझ में आता है कि इसमें कहा कुछ जाता है और किया कुछ और जाता है। कुल मिलाकर मोदीवाद गांधीवाद के विपरीत है। गांधीवाद में सहिष्णुता, अहिंसा, आपसी भाईचारा, स्वतंत्र विदेश नीति और लोकतंत्र में गहरी आस्था ये सब गुण आधार स्तंभ के रूप में माने जाते थे। मोदीवाद में अनेक ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं जिससे लगता है कि समाज सहिष्णुता और अहिंसा भूलता जा रहा है, भाईचारा खत्म हो रहा है, समाज टुकड़ों में बंट रहा है, देश के अंदर छोटी-छोटी बातों पर विवाद हो रहा है और सीमाओं पर असुरक्षा बढ़ती जा रही है। सरकारी प्रयासों की समीक्षा की जाए तो ऐसा नहीं लगता कि समाज का बंटवारा रोकने या नफरत की दीवार ढहाने की दिशा में कोई गंभीर प्रयास किए गए हों। कई बार तो ऐसा लगता है कि गांधीवाद के विरोध में मोदीवाद पैदा हुआ है। इस असलियत को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि गांधीवाद में इस देश के लोगों की गहरी आस्था है। गांधीवाद का असर सिर्फ भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में देखा गया है। अब वक्त आ गया है जब इस देश के लोग एक बार गंभीरता से सोचें कि गांधीवाद और मोदीवाद में अधिक फायदेमंद और कारगर कौन सा है। गांधीवाद यह सिखाता है कि अहिंसा को एक हथियार के रूप में हमें इस्तेमाल करना है। मोदीवाद कहता है कि संविधान से लेकर अन्य तमाम संस्थाओं पर जो गांधीवाद का असर है उसको खत्म कर मोदीवाद का असर कायम किया जाए। चुनना आपको है। अगर हमें अहिंसा को छोड़कर हिंसा का रास्ता अपनाना है तो वह भी निर्णय हमें ही करना होगा। मोदीवाद में एक नया प्रयोग यह हुआ है कि मुंह से सरकार गांधीवाद की जय, सत्य अहिंसा की जय, प्रेम और भाईचारे की जय सब बोलेगी, लेकिन आचरण उसके ठीक उल्टा करेगी। तात्पर्य यह हुआ कि मोदीवाद का असली हथियार छद्मवाद है जिसमें झूठ, धोखा और फरेब का बोलबाला है। भारत में हमें किस तरह का समाज बनाना है इसका निर्णय करने का समय आ गया है। सही वक्त पर अगर निर्णय करने से चूके तो खामियाजा भी भुगतना पड़ेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। इस आलेख में दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं और ये लेखक के निजी विचार हैं।)