गुजरात में 'जीत की हार' के हैं कई मायने
कृष्ण किशोर पांडेय
2017 का गुजरात विधानसभा का चुनाव इस अर्थ में बहुत महत्वपूर्ण माना जाएगा कि इस चुनाव ने कई ऐसी संभावनाएं पैदा की हैं जिनपर मतदाताओं को सोचना पड़ेगा। सोचने का असली मुद्दा यह है कि मतदाता अक्सर यह सोचकर वोट देता है कि वह किसी पार्टी को जिताने या हराने के लिए वोट दे रहा है। परंतु असलियत यह है कि पार्टियां जीत-हार के बाद अपने अगले चुनाव की तैयारी में लग जाती हैं। आखिर गुजरात चुनाव का मुद्दा प्रचार के दौरान बार-बार क्यों बदलता रहा? भाजपा 22 साल से वहां शासन कर रही है। पार्टी का संगठन बहुत मजबूत है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह दोनों गुजरात से हैं और मोदी ने गुजरात में अपने किए विकास के नाम पर पूरे देश को यह आश्वासन भी दिया कि उन्होंने विकास के जिस मॉडल को गुजरात में अपनाया उसी आधार पर पूरे देश में रामराज्य की स्थापना कर देंगे।
याद हो तो 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रचार के दौरान उत्तर प्रदेश में मोदी ने कहा था कि गुजरात जैसा विकास का मॉडल अपनाने के लिए 56 इंच का सीना चाहिए जो सिर्फ उनके पास है। गुजरात चुनाव में प्रचार के दौरान भाजपा को यह दिख गया कि मोदी के तथाकथित विकास मॉडल की कलई खुलने वाली है। विपक्ष ने लोगों के सामने यह मुद्दा उठा दिया कि पिछले 22 वर्षों में विकास का जो मॉडल है उसका फायदा किसको मिला और कौन वंचित रह गया। दूसरी बात थी नोटबंदी और जीएसटी से होने वाले फायदे और नुकसान का। मोदी और भाजपा के सभी नेता कभी यह मानने को राजी नहीं कि इन दोनों कदमों का देश को भारी नुकसान हुआ है। विपक्ष ने इस चुनाव को मोदी के तथाकथित विकास बनाम नोटबंदी और जीएसटी से होने वाले नुकसान का मुद्दा बना दिया। इस पूरे प्रचार के दौरान भाजपा द्वारा फैलाई गई कई अफवाहें जो मिथक बन चुकी थीं उनका पर्दाफाश हो गया। पर्दाफाश होने की वजह यह थी कि यह चुनाव गुजरात का था। यह चुनाव भाजपा के गढ़ में था और उस राज्य का चुनाव था जहां भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनाव में कुल 26 की 26 सीटें जीत ली थी। कोई भी यह अंदाजा नहीं लगा सकता कि तीन साल में इतना बड़ा परिवर्तन हो सकता है। हालांकि उदाहरण तो सबके सामने है लेकिन भाजपा के प्रचार की आंधी ऐसी चलती है कि कई बार लोग झूठ को सच मानने को मजबूर हो जाते हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में दिल्ली में भाजपा ने सातों सीटें जीती थी और छह महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया। 70 में से सिर्फ तीन सीटें मिली। वही बिहार विधानसभा चुनाव में हुआ। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा और सहयोगी दलों ने बिहार में 40 में से 31 सीटें जीती थी। एक साल बाद हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा की करारी हार हुई और 243 सीटों वाली विधानसभा चुनाव में वह सिर्फ 54 सीटें जीत पाई।
कहने का मतलब यह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने लोगों के सामने जो वायदे किए थे उनके बारे में लोगों का भ्रम जल्दी ही दूर होने लगा। न तो किसी को अपने खाते में 15 लाख रुपया आया, न ही बेरोजगारों को रोजगार मिला, न ही किसानों को कर्जमाफी की सौगात मिली और न ही कोई अन्य आश्वासन पूरे हुए। ये तमाम बातें अब ऐसी नहीं हैं कि किसी नेता के कहने पर समझ में आए। लेकिन कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने इस बात को जनता के बीच काफी मजबूती से उठाया और लोगों को यह भरोसा दिला दिया कि मोदी सरकार द्वारा दिए गए सारे आश्वासन इसलिए पूरे नहीं हुए कि सरकार उनको पूरा करने के प्रति कभी गंभीर नहीं रही। राहुल गांधी ने यह साबित कर दिया कि भाजपा नेता न सिर्फ गलत नीतियां अपना रहे हैं बल्कि उनको सुधारने के लिए भी तैयार नहीं हैं। वे अभी भी नोटबंदी और जीएसटी का ही समर्थन कर रहे हैं। करोड़ों लोगों पर जिन कदमों का उल्टा असर पड़ा उन लोगों को आप यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि कुछ भी गलत नहीं था। इसका परिणाम यह हुआ कि बड़ी संख्या में लोगों को यह विश्वास हो गया कि राहुल गांधी का यह कहना बिल्कुल सही है कि गुजरात का चुनाव सही और झूठ की लड़ाई बन गया है। राहुल गांधी का प्रचार अभियान काफी कारगर रहा और इसके दौरान जनता के बीच उनकी इमेज भी बदल गई। राहुल गांधी ने अपने खिलाफ सब तरह के आरोपों का जवाब काफी शालीनता से दिया। इसीलिए उनकी पार्टी भी पूरे उत्साह के साथ उनके साथ डटी रही। इस चुनाव में राहुल ने एक और नया प्रयोग किया और वह सफल रहा। तीन युवा नेता हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी भाजपा के खिलाफ इस तरह से मैदान में आ गए कि उन्होंने न सिर्फ अपनी ताकत दिखाई बल्कि भाजपा को ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया कि वह कुछ सीटों से जीतने के बावजूद अपने को हारा हुआ महसूस करने को बाध्य हुए। कहां तो अमित शाह 150 सीटों की बात कर रहे थे और पार्टी बड़ी मुश्किल से 99 सीटें जीत पाई। 99 सीटों के बारे में भी कुछ लोग संदेह व्यक्त कर रहे हैं। कुछ लोग यह कह रहे हैं कि ईवीएम मशीनों के साथ छेड़छाड़ की गई और इसके बारे में वे अपने तर्क भी दे रहे हैं।
चुनाव आयोग भले ही इन बातों को न माने लेकिन गुजरात के अलावा भी कई जगहों से ऐसी बातें उठ रही हैं। गुजरात जैसी जगह पर 2012 के विधानसभा चुनाव में मिली सीटों के मुकाबले 16 सीटें कम हो जाना अपने आप में स्थिति को बताने के लिए काफी है। अब तो कुछ विश्लेषक इस बात पर भी ताज्जुब कर रहे हैं कि पूरे गुजरात में वोटिंग ट्रेंड कुछ और है और सिर्फ चार शहरों अहमदाबाद, सूरत, राजकोट और बड़ोदरा में वोटिंग ट्रेंड अलग कैसे हुआ। इन चार शहरों की 55 सीटों पर हुए चुनाव में भाजपा को 46 सीटें मिल गईं। इसके अलावा कुछ अन्य मुद्दे भी देखने लायक हैं। कांग्रेस को 77 सीटें मिलीं लेकिन 16 ऐसी सीटें थीं जिनपर बहुत कम वोटों से उसकी हार हुई। भाजपा की पूरी सेना और उसके मुकाबले राहुल गांधी और तीन युवा नेताओं का अभियान ठीक वैसे ही लगता है जैसे महाभारत की लड़ाई में सर्वसाधनसंपन्न कौरव वर्ग एक तरफ था और दूसरी तरफ पांडव उसके मुकाबले दीनहीन दिखाई दे रहे थे। चुनाव में सबसे बड़ा नुकसान भाजपा को यह हुआ है कि प्रधानमंत्री मोदी की व्यक्तिगत साख सवालों के घेरे में आ गई है। मोदी ने बार-बार यह दावा किया कि वह भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए किसी भी सीमा तक जाने को तैयार हैं। लेकिन जो असलियत सामने आई वह यह है कि उन्हें विपक्षी नेताओं के खिलाफ जांच कराने का ध्यान रहा लेकिन उनके अपने लोगों के खिलाफ जब कोई मामला आया तो उन्होंने न सिर्फ चुप्पी साधी बल्कि बचाने का प्रयास भी किया। एक मुद्दा तो गुजरात से ही जुड़ा हुआ है। और वह भी उनके मित्र तथा उनकी पार्टी अध्यक्ष के बेटे से जुड़ा हुआ है। कोई भी यह पूछेगा कि जय शाह के मामले में मोदी ने जांच कराने में दिलचस्पी क्यों नहीं ली। पनामा पेपर लीक के मामले में प्रधानमंत्री ने चुप्पी क्यों साध रखी है। व्यापमं घोटाला जैसे कई घोटाले सामने आए वहां प्रधानमंत्री की बहादुरी कहां गई। बिहार के सृजन घोटाले के बारे में भी प्रधानमंत्री लगभग चुप्पी साधे हुए हैं।
इन सबको देखने के बाद एक आम आदमी भी यह बात समझ जाएगा कि भ्रष्टाचार दूर करने का उनका दावा एकपक्षीय है। इसका असर प्रधानमंत्री की छवि पर पड़ा है। जीएसटी के मामले में जिस तरह बार-बार रूख बदला गया उससे भी यही लगता है कि सरकार खुद अपनी गलती मान रही है। गुजरात चुनाव से ठीक पहले एक साथ जीएसटी की दरों में इतना बड़ा परिवर्तन आखिर क्या दर्शाता है। भ्रष्टाचार सिर्फ पैसों के मामले में नहीं, अन्य मामलों में भी दिखाई दे रहा है। हिमाचल प्रदेश का चुनाव पहले कराना और गुजरात के लिए जबरदस्ती चुनाव आयोग से अलग तिथि तय करवाना सदाचार नहीं कहा जा सकता है। खुद चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर आंच आई है। मीडिया के साथ जिस तरह का सलूक हो रहा है उससे संदेश यही गया है कि प्रधानमंत्री जानबूझकर मीडिया पर दबाव डालते हैं और भय का वातावरण बनाने का प्रयास करते हैं। गुजरात चुनाव ने इन तमाम बातों के बारे में आम जनता को सतर्क किया है। यह बात अकेले राहुल गांधी नहीं कर रहे हैं बल्कि हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी जैसे युवा नेता भी यही बात कह रहे हैं। इतना ही नहीं, गुजरात में बड़ी तादाद में लोगों ने सही स्थिति को समझा है और वोट के जरिये यह मान लिया है कि नोटबंदी और जीएसटी लागू करने का तरीका गलत था। लोगों ने यह मान लिया है कि किसानों, बेरोजगारों, छोटे कारोबारियों, मजदूरों इन सबकी हालत खराब हुई है। उन्होंने यह भी देखा है कि नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के नेता जानबूझकर इन मुद्दों से ध्यान हटाने का प्रयास भी कर रहे हैं। नेहरू ने या पुराने नेताओं ने किसने क्या किया वह आज का ज्वलंत विषय नहीं है। कोई इनकार नहीं कर सकता कि आज का ज्वलंत विषय है गरीबी और बेरोजगारी दूर करने की समस्या। कोई नेता अगर जानबूझकर इन मुद्दों से भटकाने की कोशिश करता है तो वह देश के साथ अन्याय कर रहा है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि गुजरात चुनाव में विपक्षी दलों ने यह विश्वास पैदा कर दिया है कि यदि वे सही रणनीति अपनाकर विपक्षी एकता कायम करें और देश भर में भाजपा के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश करें तो उन्हें सफलता भी मिल सकती है। भाजपा ने अपने प्रचार से कई ऐसे मिथक बना रखे थे जो गुजरात चुनाव में दूर हुए हैं। आज एक बड़ा सवाल यह भी उठता है कि आखिर चुनाव आयोग या भाजपा बैलेट पेपर से चुनाव क्यों नहीं कराना चाहती। यह उचित समय है जब तमाम भाजपा विरोधी ताकतों को एक स्वर में यह मांग करनी चाहिए कि आगे जो भी चुनाव होंगे वे सभी बैलेट पेपर से कराए जाएं। उत्तर प्रदेश नगर निगम चुनाव ने इस संदेह की पुष्टि की है कि ईवीएम के साथ छेड़छाड़ की जा सकती है। जब दुनिया के उन्नत देश ईवीएम का उपयोग बंद कर रहे हैं और खुद इन मशीनों को बनाने वाली कंपनी यह मान रही है कि इनमें छेड़छाड़ संभव है तो फिर इसको छोड़ा क्यों नहीं जा सकता। 2018 में कई राज्यों में चुनाव हैं और 2019 में लोकसभा का चुनाव होना है। इसलिए यह जरूरी है कि विपक्षी दल अभी से एकजुट होकर बैलेट पेपर से चुनाव कराने की मांग पर अभियान चलाएं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। इस आलेख में दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं और ये लेखक के निजी विचार हैं।)