सामाजिक अस्मिता को संजोने वाले युगपुरुष थे हेडगेवार
अजेय कुमार
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के बारे में यह तथ्य सर्वविदित है कि वह आजीवन हिंदुओं की सांस्कृतिक विरासत, वैचारिक एवं सामाजिक अस्मिता के लिए संघर्षरत रहे। उनकी ही बदौलत आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के करोड़ों स्वयंसेवक देशभर में पिछड़े, आदिवासियों, अनुसूचित जाति से लेकर गरीबों एवं युवाओं के बीच वैचारिक एवं सांस्कृतिक उत्थान के लिए काम कर रहे हैं।
बचपन से ही डॉ. हेडगेवार के मन में देशभक्ति एवं समाजसेवा की अलख जग गई थी। जब स्कूल में थे तो घंटों छत्रपति शिवाजी के चरित्र को तन्मयता से सुनते थे। शैशव काल से ही शिवाजी के सपने को आगे ले जाने का विचार मन में गहराई से समा गया था। 1901 में जब इंग्लैंड के बादशाह एडवर्ड सप्तम के राज्यरोहण के अवसर पर नागपुर में मिल मालिकों ने आतिशबाजी कर खुशी मनाई तो हेडगेवार का बाल मन क्रोधित हो गया था। उन्होंने मित्रों से साफ मना कर दिया कि वह एक अंग्रेज के स्तुतिगान में मनाई जाने वाली खुशी में बिल्कुल भी शरीक नहीं होंगे। जब डॉ. बालकृष्ण शिवराम मुज्जे ने डॉक्टरी व्यवसाय के साथ ही नागपुर में देशभक्ति के नए कार्यक्रम शुरू किए तो हेडगेवार उनके संपर्क में आए। अंग्रेजों की सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए हेडगेवार नागपुर की गुप्त बैठकों में हिस्सा लेने लगे। उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों को देखते हुए 1908-09 से ही सरकारी गुप्तचर उनके पीछे लग गए। कई बार जेल की सजा भी काटी। फिर भी वह देशभक्ति एवं राष्ट्र के प्रति समर्पित मन से लगे रहे।
हिंदू राष्ट्र दृष्टा डॉ. हेडगेवार का जन्म 1889 में वर्षप्रतिपदा के दिन कश्यप गोत्र के तैलंग ब्राह्मण परिवार में हुआ था। 1925 में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। यह दशहरे का दिन था। संघ का पहला वार्षिकोत्सव भी डॉ. हेडगेवार के घर पर ही मनाया गया था। संघ की शुरुआत उस वक्त हेडगेवार जी के घर पर 15-20 लोगों ने इकट्ठा होकर की थी जिसमें भावऊजी कावरे, अण्णा सोहोनी, विश्वनाथ केलकर, बाबालाजी हुद्दार एवं बापू रावभेदी आदि सज्जन मौजूद थे। हेडगेवार ने संघ के जरिए युवाओं को राष्ट्रीयता की दीक्षा दी। उनका विचार था कि हिंदुस्थान का हिंदू समाज धर्म, संस्कृति, भाषा एवं इतिहास के साधर्म्य से एक है, एक रहेगा। धीरे-धीरे संघ का स्वरूप विस्तृत होने लगा और हेडगेवार का कमरा सदैव स्वयंसेवकों से भरा रहने लगा। आयु के अनुसार, शिशु, बाल, तरुण एवं प्रौढ़ स्वंयसेवकों के अलग-अलग पथक बनाकर उन्हें लव, कुश, ध्रूव, प्रह्लाद, अभिमन्यु, भीम एवं भीष्म नाम दिए गए। 14 फरवरी 1931 को अकोला कारागृह से छूटने के बाद हेडगेवार संघ के विस्तार में जुट गए।
23 मार्च 1931 को जब लाहौर जेल में सरदार भगत सिंह, सुखदेव एवं राजगुरु को फांसी दी गई तो इस समाचार से हेडगेवार अत्यन्त दुखी हुए। भगत सिंह एवं राजगुरु से उनका परिचय था। राजगुरु के साथ नागपुर में उनका बहुत निकट का संबंध था। 1932 में हेडगेवार और गुरुजी माधवराव गोलवरकर की भेंट हुई। फिर पत्र व्यवहार शुरू हुआ। 1935 तक महाराष्ट्र एवं दूसरे शहरों में संघ की कई शाखाएं खुलने लगीं।
हेडगेवार इतने कर्मठ एवं देशभक्ति के जज्बे से भरे हुए थे कि पैर में घाव एवं चोट की वजह से चलने-फिरने में असमर्थ होने के बावजूद भी 1935 में पूना में हुई हिंदू महासभा के सम्मेलन में भाग लिया। यह सभा महामना पंडित मदन मोहन मालवीय की अध्यक्षता में हुई थी। 1939 में हेडगेवार ने गुरुजी को सरकार्यवाह नियुक्त किया।
21 जून 1940 में हेडगेवार जी ने आखिरी सांस ली। हेडगेवार के जीवन संघर्ष को एक लेख में बांध पाना असंभव है। उन्होंने संघ का विकास कर हिंदू राष्ट्र को अपने बल एवं वैभव के साथ एक बार फिर से खड़ा किया। सादी धोती, कमीज तथा कॉलरवाला कोट एवं काली टोपी हेडगेवार की वेशभूषा थी जिसे देखखर युवाओं में उत्साह भर जाता था।
(लेखक पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा के संगठन महामंत्री हैं।)