भारत में रोजगार संकट बेपर्दा
प्रवीण कुमार
रोजगार को लेकर देश के दक्षिणी राज्य तमिलनाडु से हाल ही में एक सनसनीखेज खबर निकलकर सामने आई। खबर ये है कि राज्य विधानसभा में स्वीपर के 10 और सेनीटरी वर्कर के चार पदों के लिए सचिवालय ने आवेदन मंगाए थे। इसके लिए करीब 4607 उम्मीदवारों ने प्रविष्टियां भेजीं। चौंकाने वाली बात ये रही कि इन प्रविष्टियों में इंजीनियरों और एमबीए किए उम्मीदवारों की संख्या हजारों में थी। यही नहीं इनमें डिप्लोमाधारियों ने भी आवेदन भेजे। विधानसभा सचिवालय ने इन पदों के लिए बीते साल 26 सितंबर को आवेदन मंगाए थे। उम्मीदवारों की नियुक्ति के लिए एकमात्र योग्यता शारीरिक रूप से सक्षम और न्यूनतम उम्र 18 साल रखी गई थी। अधिकतम उम्र का कोई जिक्र नहीं था। बेरोजगारी की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब देश के दक्षिणी राज्यों का ये हाल है तो फिर उत्तर भारत के उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल का क्या हाल होगा।
रोजगार के अवसर पैदा करने में सरकारों की बड़ी भूमिका होती है, लेकिन इस मामले में जाने-अनजाने में केंद्र की वर्तमान मोदी सरकार बहुत ही मुश्किल हालातों से गुजर रही है। नोटबंदी और जीएसटी के बाद आंकड़े बताते हैं कि किस तरह से देश में बेरोजगारी बढ़ी है। पिछले दिनों नेशनल सैंपल सर्वे कार्यालय की एक रिपोर्ट लीक हुई जिससे खुलासा हुआ कि वर्ष 2017-18 के दौरान भारत में बेरोजगारी दर बीते 45 वर्षों में सबसे ज्यादा रही है। एक खबर यह भी आई कि बीते साल करीब 1.10 करोड़ नौकरियां खत्म हुई हैं। हमें यह बात भूलनी नहीं चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में लोकसभा चुनाव से पहले अपने प्रचार अभियान के दौरान अपने भाषण में बार-बार कहा था कि वह सालाना 2 करोड़ नौकरियां उत्पन्न करेंगे, लेकिन नरेंद्र मोदी का वादा जुमला निकला औऱ देश में बेरोजगारों की बड़ी फौज खड़ी हो गई। ताजा आंकड़े ने एक बार फिर से मोदी सरकार के रोजगार सृजन पर सवाल उठाया है। सरकार ने अपनी किरकिरी होने पर कहा है कि डाटा को नये तरीके से तैयार किया जा रहा था, इसलिए ये रिपोर्ट जारी नहीं की गई।
बेरोजगारी के आंकड़ों की कहानी
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय के पिरियाडिक लेबर फोर्स सर्वे की रिपोर्ट को मानें तो पिछले 45 सालों की तुलना में साल 2017-18 में देश में सबसे अधिक 6.1 प्रतिशत बेरोजगारी रही। इन नए आंकड़ों से तय मानिए, रोजगार संकट बेपर्दा हो गया है क्योंकि इस वक्त देश में रोजगार की हालत पिछले 45 साल में सबसे ज्यादा खराब है। इससे पहले 1972-73 में बेरोजगारी के आंकड़े इतने अधिक थे। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) के पिरियाडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) की इसी रिपोर्ट के जारी न होने की वजह से राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग (एनएससी) के कार्यकारी अध्यक्ष सहित दो सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। दरअसल बात ये थी कि सांख्यिकी आयोग ने जिस रिपोर्ट को मंजूरी दी थी वह सरकार के मनोनुकूल नहीं थी और उसे जारी करने में आनाकानी कर रही थी।
एनएसएसओ ने जो आंकड़े जुलाई 2017 से जून 2018 के बीच जुटाए हैं वह नवंबर 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा नोटबंदी की घोषणा के बाद देश में रोजगार की स्थिति पर आया पहला सर्वेक्षण है। रिपोर्ट के अनुसार, इससे पहले 1972-73 में बेरोजगारी के आंकड़े इतने अधिक थे। वहीं साल 2011-12 में देश में बेरोजगारी दर 2.2 फीसदी तक कम हो गई थी। साल 2011-12 में ग्रामीण युवा पुरुषों (15-29 आयु वर्ग) में बेरोजगारी की दर 5 फीसदी थी जबकि 2017-18 में यह बढ़कर 17.4 फीसदी हो गई। वहीं उसी आयु वर्ग की ग्रामीण महिलाओं में बेरोजगारी दर 2011-12 की तुलना में 4.8 फीसदी से बढ़कर 2017-18 में 17.3 फीसदी हो गई। इसी तरह, शिक्षित ग्रामीण महिलाओं में 2004-05 से 2011-12 तक बेरोजगारी दर 9.7 फीसदी से 15.2 फीसदी के बीच थी जबकि साल 2017-18 में यह बढ़कर 17.3 फीसदी हो गई। वहीं इस दौरान, श्रम बल की भागीदारी दर (सक्रिय रूप से नौकरी चाहने वाले लोगों की संख्या) भी कम हो गई। श्रम बल की भागीदारी दर 2004-05 से बढ़कर 2011-12 में 39.9 फीसदी हो गई थी, वहीं 2017-18 में घटकर 36.9 फीसदी हो गई। इससे पहले, भारतीय अर्थव्यवस्था निगरानी केंद्र ने अपने सर्वेक्षण के आधार पर कहा था कि ठीक नोटबंदी के बाद साल 2017 के शुरुआती चार महीनों में ही 15 लाख नौकरियां खत्म हो गईं थीं।
इस रिपोर्ट पर गौर करें तो सबसे अधिक परेशान करने वाली बात ये है कि नोटबंदी के बाद ही हालात बदतर हुए हैं, जिसकी सबसे ज्यादा मार महिलाओं पर पड़ी है। वजह ये कि अगर कुछ पुरुष रोजगार की तलाश में जा रहे हैं, तो महिलाएं घर पर रह रही हैं। वो अपने आप को जॉब मार्केट से हटा रही हैं। एक और गंभीर बात ये निकलकर सामने आई है कि सरकार या तो डेटा छिपाती है या कोशिश करती है कि अगर कोई डेटा बाहर आता है तो उसे किसी बहस से काट दो। लेकिन ध्यान देने वाली बात ये है कि सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के जो आंकड़े पिछले दिनों आए हैं, वो भी इसी रोजगार संकट की तरफ इशारा कर रहे हैं। ये जो सर्वे है, इसका काम जून 2018 में पूरा गया था। रिपोर्ट सितंबर-अक्टूबर में सरकार चाहती तो जारी कर सकती थी। लेकिन जारी नहीं होने दिया गया। इसका नतीजा यह निकला कि दो एक्सपर्ट ने इस्तीफा दे दिया। मतलब सरकार का झूठ बोलना, आंकड़ों में घालमेल करना एक फिर से साबित हुआ है। सरकार इस बात का कोई जवाब नहीं देगी।
हां, बेरोजगारी के आंकड़ों पर इस तरह के बयान अब जरूर सामने आने लगे हैं कि केंद्र सरकार रोजगार पर नया राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) कराएगी ताकि देश में पर्याप्त रोजगार सृजन का पता चल सकेगा। रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण के फेसबुक पेज पर डाली गई एक वीडियो क्लिप में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (पीएमईएसी) के प्रमुख बिबेक देबरॉय ने कहा है नौकरियां, रोजगार और कारोबारी माहौल का एक बड़ा हिस्सा राज्यों के दायरे में आता है। देबरॉय ने कहा, हम दोबारा राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) करेंगे, जिसका ऐलान जल्द किया जाएगा। मुझे यकीन हैं कि इस सर्वेक्षण से पता चल सकेगा कि देश में रोजगार का बड़े पैमाने पर सृजन हुआ है। देबरॉय ने एक न्यूज एजेंसी पीटीआई को बताया कि यह वीडियो दो सप्ताह पहले शूट किया गया था। इस वीडियो में देबरॉय ने यह भी कहा कि साल 2011-12 के बाद से देश में रोजगार सृजन को लेकर कोई ठोस आंकड़ा नहीं है। देश में श्रमबल के अभी भी अनौपचारिक और असंगठित होने का हवाला देते हुए देबरॉय ने कहा कि उद्यम सर्वेक्षण भारत में रोजगार की स्थिति को लेकर बहुत ही अपूर्ण समझ पैदा करता है। वास्तविक मुद्दा रोजगारों की संख्या का नहीं बल्कि रोजगारों की गुणवत्ता और वेतन दरों का है। उन्होंने कहा कि सरकार सिर्फ सीमित संख्या में रोजगार उपलब्ध करा सकती है इसलिए बड़ी संख्या में रोजगार का सृजन सरकार की नौकरियों से बाहर होना चाहिए। मोदी सरकार स्वरोजगार और उद्यमशीलता को बढ़ावा देकर यही कर रही है।
उत्तर प्रदेश में हालात बेकाबू
रोजगार औऱ बेरोजगारी की जिस रिपोर्ट को लेकर हंगामा मचा हुआ है उसमें उत्तर प्रदेश का भी उल्लेख किया गया है। एनएसएसओ की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2016 से 31 अगस्त 2018 तक उत्तर प्रदेश में नये बेरोजगारों की संख्या 9 लाख पहुंच गई है। राज्य श्रम विभाग के पोर्टल पर मौजूद आंकड़ों के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में कुल 22 लाख बेरोजगार रजिस्टर्ड हैं जिनमें 7 लाख से अधिक बेरोजगार ग्रेजुएट हैं। पुलिस विभाग ने पिछले साल जुलाई में टेलीफोन मैसेंजर पद के लिए 62 पदों पर पांचवीं पास वालों से आवेदन मांगे थे, लेकिन जिन लोगों ने इन पदों पर आवेदन किया है उसे देखकर सेलेक्शन बोर्ड भी दंग रह गया। चपरासी के इन 62 पदों पर 50 हजार ग्रेजुएट, 28 हजार पोस्ट ग्रेजुएट्स सहित 3700 पीएचडी (डॉक्टरेट) धारकों ने भी आवेदन किया था। टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक, इन रिक्तियों के लिए 50,000 ग्रेजुएट और 28,000 पोस्ट ग्रेजुएट उम्मीदवारों ने आवदेन किया है। इस पद के लिए न्यूनतम योग्यता कक्षा पांच है। नौकरी में चयन के लिए उम्मीदवार को खुद से सिर्फ यह घोषणा करनी है कि उसे साइकिल चलानी आती है। हालांकि, बड़े पैमाने पर इतने पढ़े-लिखे उम्मीदवारों के आवेदन करने के कारण विभाग ने परीक्षा के माध्यम से चयन करने का फैसला किया है। ये पद बीते 12 साल से खाली पड़े थे। चौंकाने वाली बात यह है कि कुल 93,000 आवेदनकर्ताओं में से 7400 कैंडिडेट्स ही ऐसे थे, जो पांचवीं पास थे। बाकी सब के सब ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट थे जिसमें वो उम्मीदवार भी शामिल थे जिन्होंने बीटेक, एमसीए और एमबीए किया हुआ था।
नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) की रिपोर्ट जिसे सरकार ने दबा रखा था, में बेरोज़गारी की दर शहरी क्षेत्र में महिलाओं में 27.2 प्रतिशत और पुरुषों में 18.7 प्रतिशत रही। यही आंकड़ा ग्रामीण क्षेत्र में महिलाओं के लिए 13.6 प्रतिशत और पुरुषों के लिए 17.4 प्रतिशत रहा। बिज़नेस स्टैंडर्ड की रिपोर्ट कहती है कि अर्थव्यवस्था में अधिक संख्या में लोग रोज़गार से दूर हो रहे हैं। मोदी सरकार के नोटबंदी के नवंबर 2016 के फैसले के बाद के साल में बेरोज़गारी की दर तेज़ी से बढ़ी। नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था पर मानो ब्रेक लगा दी थी और छोटे व मझोले उद्योगों में बहुत सारी नौकरियां चली गईं थीं। 2011-12 में भारत की बेरोज़गारी दर 2.2 प्रतिशत रही। ये नौकरियों के बारे में आखिरी उपलब्ध आंकड़े हैं। उसके बाद इस सर्वे को बंद कर दिया गया था। अब जो नया पीरियोडिक फोर्स लेबर सर्वे जुलाई 2017 और जून 2018 के बीच किया गया था और सालाना सर्वे रिपोर्ट एनएसएसओ ने तैयार की, ये वही रिपोर्ट है जिसे मोदी सरकार सार्वजनिक नहीं कर रही है।
नीतिगत निर्णय में खोट
मोदी सरकार ने नीतिगत रूप से स्व-रोजगार, कौशल विकास, रोजगार निर्माण को प्रोत्साहित करना और निर्यातोन्मुख उत्पादन को बढ़ावा दिया। सरकार ने इन नीतियों को मेक इन इंडिया, प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना, प्रधानमंत्री रोजगार निर्माण योजना, प्रधानमंत्री मुद्रा योजना और प्रधानमंत्री रोजगार प्रोत्साहन योजना के जरिए लागू किया। अगस्त 2018 में मोदी ने दावा किया किया था कि नए भारत की नई आर्थिक व्यवस्था में रोजगार की गणना पारंपरिक तरीकों से नहीं की जा सकती, बावजूद इसके उनकी योजनाएं रोजगार निर्माण के अपने लक्ष्यों से बहुत पीछे चल रही हैं। इसका मतलब साफ है कि सरकार के रोजगार बढ़ाने के नीतिगत निर्णयों में खोट है। जानकारों का मानना है कि निर्यातोन्मुख उत्पादन से बेरोजगारी की समस्या का समाधान नहीं होगा। वैश्विक बाजार अभी मंदी से बाहर नहीं निकला है इसलिए भारतीय निर्यात एक हद से आगे नहीं जा सकता। हमें घरेलू बाजार पर ध्यान देना चाहिए। हमें इसका पता लगाना चाहिए कि भारत के लोग किन चीजों पर खर्च कर रहे हैं और फिर इनको बनाने वाले उद्योगों पर ध्यान देना चाहिए। मेक इन इंडिया कायदे से मेक फॉर इंडिया होना चाहिए। दरअसल उत्पादन क्षेत्र में आधारभूत संरचना जैसी जटिलताओं का समाधान न कर सकने के चलते मेक इन इंडिया फेल हो गया। यह एक केन्द्रीय नीति है लेकिन औद्योगिक क्षेत्र के नियम राज्य के अधीन आते हैं। इसलिए राज्यों को मेक इन इंडिया को सफल बनाने के लिए कदम उठाने होंगे।
मोदी की कर्णधार योजना के तहत लक्षित क्षेत्रों में हाल के दिनों में बेरोजगारी में बढ़ोतरी देखी गई है। मोदी ने 2014 में मेक इन इंडिया का आरंभ भारत को वैश्विक डिजाइन और विनिर्माण का केन्द्र बनाने के उद्देश्य से किया था। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार पिछले चार सालों में इस क्षेत्र ने कोई विकास नहीं किया। श्रम ब्यूरो सर्वे के अनुसार, अप्रैल और जून 2017 की तिमाही में इस क्षेत्र में 87000 नौकरियां खत्म हो गईं। एमएसएमई मंत्रालय के अनुसार कर्ज योजना के अंतर्गत रोजगार और लाभ में 2014 से कमी आई है। उत्पादन और निर्यात में 24 से 35 प्रतिशत की गिरावट पिछले चार साल में रिकॉर्ड की गई है।
सीएमआईई की रिपोर्ट में श्रम बाजार में महिलाओं की घटती तादाद पर चिंता जताई गई है। रिपोर्ट के अनुसार, 2018 में ज्यादातर महिलाओं ने और खासकर 40 से कम या 60 से अधिक आयु की दिहाड़ी और खेतों में मजदूरी करने वाली ग्रमीण महिलाओं ने काम खोया। सरकार के उद्यमशीलता और स्वरोजगार पर जोर देने के चलते महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) हाशिए पर चला गया जो एक ऐसा सरकारी कार्यक्रम था जिसमें बड़ी संख्या में महिलाओं की भागीदारी थी। स्व-रोजगार योजना मनरेगा की कीमत पर कतई नहीं होनी चाहिए।
इसी प्रकार प्रधानमंत्री रोजगार निर्माण योजना के तहत दिए गए कर्ज ने भी रोजगार के टिकाऊ अवसरों के निर्माण में मदद नहीं की। इस योजना के तहत विनिर्माण इकाइयों को 25 लाख रुपए और व्यवसाय या सेवा उद्यमों को 10 लाख रुपए का कर्ज दिया जाता है। दरअसल इन योजनाओं का अधिकतर ध्यान एकदम छोटों उद्यमों पर रहा। ये छोटे कर्ज हैं और इन पैसों से लगाए जाने वाले उद्यम बस पेट भरने भर के लिए हैं। ये कर्ज टिकाऊ रोजगार का निर्माण नहीं कर सकते। सच बात तो यह है कि भारत में बेरोजगारी संकट इस तरह की योजना के तहत स्व-रोजगार को प्रोत्साहन देने से खत्म नहीं होने वाला है। हमें बड़ा करने की जरूरत है। बड़े कर्ज और बड़े उद्योगों में पैसा लगाने की जरूरत है जो विस्तार और अधिक संख्या में कर्मचारियों को रखने में सक्षम हों। शहरी और राज्य स्तर पर स्थानीय सरकारें जब तक आधारभूत संरचना और सुविधाओं का निर्माण नहीं करती तब तक केन्द्रीय योजनाएं प्रभावकारी नहीं हो पाएंगी।
भारतीय अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंध शोध परिषद की फेलो राधिका कपूर के अनुसार, स्व-रोजगार करने वाले लोग रोजगार का निर्माण नहीं कर रहे हैं। ऐसे 80 प्रतिशत लोग मासिक तौर पर 10000 रुपए से कम कमाई कर रहे हैं। ये लोग रोजगार के अवसरों का निर्माण कैसे कर सकते हैं। 2015-16 के श्रम विभाग के रोजगार-बेरोजगारी सर्वे के अनुसार, देश के लगभग आधे श्रमिक स्व-रोजगार कर रहे हैं। इस लिहाज से भारतीय संदर्भ में स्व-रोजगार चिंताजनक बात हो गई है। स्वेच्छा से स्व-रोजगार करना और मजबूरन करने में बहुत अंतर है और भारत में अधिकांश लोग मजबूरन ऐसा कर रहे हैं। भारत में बहुत सा स्व-रोजगार संकटकालीन रोजगार है। मोदी के उस दावे के संदर्भ में जिसमें उन्होंने कहा था कि पकौड़ा तलने वाला एक आदमी दिन में 200 रुपए से अधिक की कमाई करता है और इसलिए वह बेरोजगार नहीं है, सब कुछ बहुत साफ हो जाता है। पीएम मोदी के इस दावे के जवाब में पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने पूछा था कि इस लिहाज से तो भीख मांगना भी एक काम है।
अगर आपको याद हो तो जुलाई 2015 में प्रधानमंत्री मोदी ने घोषणा की कि साल 2022 तक प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना अथवा स्किल इंडिया के तहत 40 करोड़ लोगों को प्रशिक्षण दिया जाएगा। संसद की श्रम मामलों की स्थाई समिति की मार्च 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, फरवरी 2016 में इस योजना के आरंभ से लेकर नवंबर 2018 तक योजना के तहत 33 लाख 93 हजार लोगों को प्रमाणपत्र दिए गए जिनमें से मात्र 10 लाख 9 हजार लोगों को काम मिला। कौशल विकास मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान के मुताबिक, मार्च 2018 से कुशल उम्मीदवारों की प्लेसमेंट दर 15 प्रतिशत है जो बेहद कम है। ऐसी खबरें भी हैं कि सरकारी सब्सिडी प्राप्त करने के लिए इस योजना के निजी साझेदार बोगस प्लेसमेंट कर रहे हैं। कौशल विकास एवं उद्यमशीलता मंत्रालय के सूत्रों की मानें तो स्किल इंडिया के डेटा पर भरोसा नहीं किया जा सकता क्योंकि इनको जांचने की कोई प्रमाणिक प्रक्रिया नहीं है और ये कौशल विकास केन्द्रों द्वारा उपलब्ध आंकड़े हैं। सूत्रों का कहना है कि ऐसी भी व्यवस्था नहीं हैं जिससे जाना जा सके कि प्रशिक्षण दिया भी जा रहा है या नहीं।
अल्पकालिक अथवा शॉर्ट टर्म कोर्सेज़ ने युवा ग्रैजुएट्स की एक ऐसी फौज खड़ी कर दी है जिनके पास जरूरी कौशल नहीं है और इस बात पर ध्यान नहीं दिया जा रहा कि ऐसे लोगों के साथ क्या हो रहा है। असल में सरकारी मशीनरी ने प्रशिक्षण पाठ्यक्रम ठीक से तैयार किया या नहीं इसपर ध्यान नहीं दिया। हम लोगों को रुटीन और शारीरिक काम का प्रशिक्षण दे रहे हैं। इसके तहत लाखों महिलाओं को सिलाई, बेकरी और रिटेल जैसे पारंपरिक क्षेत्रों का प्रशिक्षण दिया गया जबकि उन्हें निर्माण, इलेक्ट्रॉनिक्स, सूचना प्रोद्योगिकी एवं वित्त सेवा जैसे क्षेत्रों का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए था ताकि उन्हें रोजगार मिल सके।
मोदी सरकार का यह कैसा दावा?
महाराष्ट्र के सोलापुर जिले की एक पावर लूम (कपड़ा) फैक्ट्री पर हुए अध्ययन के अनुसार, प्रोत्साहन योजना को ठीक तरह से लागू नहीं किया जा रहा है। सोलापुर के एक केस से पता चलता है कि ईपीएफओ के तथ्यों के आधार पर रोजगार निर्माण का मोदी सरकार का दावा भ्रामक है और नए पंजीकरण का मतलब यह कतई नहीं है कि नए रोजगार का निर्माण हुआ है। उदाहरण के लिए मोदी सरकार रोजगार निर्माण करने वालों को लाभ नहीं पहुंचा रही बल्कि उन लोगों को फायदा दे रही है जो इस कानून का उल्लंघन कर रहे थे। योजना की घोषणा के बाद पुराने कर्मचारियों को नई नियुक्ति बताकर पंजीकरण कराया जा रहा है। इस योजना से मालिकों को ही फायदा हो है। रोजगार के आंकड़ों में हकीकत में कोई इजाफा नहीं हो रहा है।
सितंबर 2015 को म्याकल समूह की 15 पावर लूम इकाइयों के श्रमिकों ने कर्मचारी भविष्य निधि संगठन से ईपीएफ योजना को लागू न किए जाने की शिकायत की थी। कर्मचारी भविष्य निधि संगठन भारत सरकार के श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के अंतर्गत कार्यरत वैधानिक निकाय है। म्याकल समूह की 15 इकाइयां को इस परिवार के पांच सदस्य साझेदारी पर चलाते हैं लेकिन सभी इकाइयों को स्वतंत्र उद्यम के रूप में पंजीकृत किया गया है। ऐसा कर्मचारी भविष्य निधि एवं विविध प्रावधान अधिनियम 1952 के प्रावधानों को दरकिनार करने के लिए किया गया। 1952 के नियमानुसार 20 से अधिक कर्मचारियों वाली सभी इकाइयों को भविष्य निधि खाता रखना अनिर्वाय होता है। म्याकल समूह का दावा है कि उसकी किसी भी इकाई में 7 से अधिक कर्मचारी नहीं हैं और इस कारण वह खाता रखने के लिए बाध्य नहीं है।
मई 2017 में म्याकल समूह सहित सोलपुर की 13850 कपड़ा फैक्ट्रियों के 14400 कर्मचारियों ने इस मामले को लेकर ईपीएफओ में शिकायत की। दो महीने बाद ईपीएफओ के क्षेत्रीय आयुक्त हेमंत एम. तिरपुडे ने म्याकल समूह को निर्देश दिया कि वह ईपीएफ कानून को साल 2002 से लागू करे और अधिकारियों को निर्देश दिया कि वे म्याकल समूह जैसी काननू का उल्लंघन करने वाली फैक्ट्रियों का पता लगाए। जवाब में पॉवर लूम ऑनर एसोसिएशन (पावर लूम मालिकों का संगठन) ने अक्टूबर 2017 में हड़ताल कर दी। इसपर केन्द्र सरकार औद्योगिक अधिकरण एवं श्रम अदालत की मुंबई बेंच ने ईपीएफओ आयुक्त के आदेश पर रोक लगा दिया। मोदी सरकार के दावों के बावजूद राज्य के श्रम मंत्रालय ने इस मामले को हल करने की कोई पहल नहीं की।