पीएम मोदी को लुभाता है इजरायल का राष्ट्रवाद
किरण राय
भारत की आजादी के 70 साल में किसी प्रधानमंत्री की पहली इजराइल यात्रा को लेकर नरेंद्र मोदी काफी उत्सुक है। भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगवानी के लिए भी इजरायल भी पूरी तरह से तैयार है। हालांकि मोदी इससे पहले 2006 में भी इस यहूदी देश की मेहमानवाजी का लुत्फ उठा चुके हैं। लेकिन तब वह गुजरात के मुख्यमंत्री थे। आज वह प्रधानमंत्री हैं। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर इतने साल बाद भारत को इजरायल की याद क्यों आयी? ऐसा क्या है जो पहले के प्रधानमंत्रियों ने नजरअंदाज किया और मोदी इतनी तवज्जो दे रहे हैं? निश्चित रूप से इसमें दो चीजें अहम हैं- पहला इजरायल की राष्ट्रवादी सोच और दूसरा- इजरायल का आतंकवाद पर नजरिया। इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने कहा है कि आतंकवाद जैसी चुनौती से डटकर मुकाबला करना दोनों देश की प्राथमिकता है।
आजादी से लेकर अब तक इजरायल को लेकर भारत की नीति अस्पष्ट रही है। इजरायल के साथ भारत ने रक्षा सौदे तो किए हैं, लेकिन दुनिया के मंच से कभी खुलकर उसका समर्थन नहीं किया। 1947 में देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू खुलकर इजरायल के पक्ष में अपनी राय नहीं रख पाये थे। वजह तब के राजनीतिक और कूटनीतिक हालात थे। एक और अहम वजह तत्कालीन परिवेश के लिहाज से मुस्लिम समुदाय को नाराज ना करने की सोच थी। हालांकि वो भी मानते थे कि इजरायल का अपने क्षेत्र पर सैद्धांतिक और पवित्र अधिकार है। अब तक तकनीकी तौर पर सक्षम इस यहूदी राष्ट्र को लेकर भारत के फ्रंट फुट पर ना खेलने की एक वजह फिलीस्तीन भी रहा है। फिलीस्तीन जिससे इजरायल की अदावत जगजाहिर है। इतिहास बहुत लंबा और काला रहा है। खैर, चूंकि फिलीस्तीन मुस्लिम बहुल राष्ट्र है और उसे अरब देशों का समर्थन प्राप्त है इसलिए भारत फिलीस्तीन को लेकर हमेशा नरम रही है। इसके अलावा एक और वजह कच्चा तेल, प्राकृतिक गैस जैसे संसाधन भी रहे जिनके लिए हम अरब देशों का मुंह ताकते रहे हैं।
पीएम मोदी की इस यात्रा से देश सामरिक तौर पर और सक्षम होने की ओर कदम बढ़ा रहा है। कृषि, जल और अंतरिक्ष तकनीक को लेकर बात चल रही है लेकिन सबसे अहम है रक्षा सौदा। भारत इजरायल के रक्षा उपकरणों का सबसे बड़ा खरीदार है। आंकड़ों की मानें तो भारत एक साल में करीब एक बिलियन डॉलर के हथियार खरीदता है। इस अति महत्वपूर्ण यात्रा में दोनों देशों के साझा प्रयास को भी दुनिया के सामने रखा जाएगा। अत्याधुनिक बराक-8 डिफेंस प्रणाली इस मुलाकात का अहम बिंदु है जो प्रधानमंत्री के मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट के सपने को और आगे बढ़ायेगा। इजरायल के मुताबिक दोनों देश साथ मिलकर काम करेंगे और इस प्रक्रिया में स्थानीय कम्पनियों (भारत) को तवज्जो दी जायेगी। निश्चित तौर पर भारत सेना के आधुनिकीकरण की ओर बढ़ रहा है। देश के सामने चीन और पाकिस्तान जैसे देश चुनौती पेश कर रहें हैं। ऐसे में सरकार इसे उनके मंसूबों के खिलाफ खड़े रहने की कवायद की तरह पेश कर रही है। मोदी सरकार पहले ही ऐलान कर चुकी है कि वो हर उस देश के साथ काम करने को तैयार है जो हमारे साथ तकनीक साझा करने को तत्पर है। फिलहाल इस फेहरिस्त में इजरायल के अलावा रूस और अमेरिका शामिल हैं।
हालांकि प्रधानमंत्री के इस कूटनीतिक यात्रा को लेकर देश के भीतर भी सवाल उठने लगे हैं। वो इसलिए क्योंकि पीएम मोदी अपनी यात्रा के दौरान फिलीस्तीन के कब्जे वाले रामल्ला नहीं जाएंगे जिसे अब तक कई देश दोनों देशों के बीच पुल की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं। जो भी इजरायल जाता है वो रामल्ला जरूर जाता है ताकि दोनों ओर के रिश्तों में खिंचाव और दुराव ना आने पाये। शायद पीएम मोदी इजरायल की उस नाराजगी को दूर करना चाहते हैं जिसमें उसने हमेशा कहा है कि भारत उसको हमेशा एक 'मिस्ट्रेस' की तरह प्रयोग में लाता रहा है। अब भारत के लिए इजरायल इसलिए भी अहम है क्योंकि वो फिलीस्तीन के मुकाबले तकनीकी तौर पर ज्यादा सम्पन्न और बेहतर है। अरब स्प्रिंग की वजह से पश्चिम एशिया की स्थिति खराब है। आईएसआईएस अपने पैर पसार चुका है। वहीं, इजरायल के कौशल को दुनिया सलाम करती है। चीन के भी संबंध काफी अच्छे हैं। जानते सभी हैं कि इस क्षेत्र में चीन और भारत के कोई राजनीतिक मायने नहीं हैं। दोनों यहां की राजनीतिक उठापटक को प्रभावित करने का माद्दा भी नहीं रखते हैं। वहीं, अरब देश आतंरिक युद्ध के शिकार हैं, मजबूर हैं और जानते हैं कि वो अपने खरीदारों को चुनौती नहीं दे पायेंगे।
ऐसे कई मौके आये हैं जब इजरायल भारत की मदद के लिए आगे आया है। चाहे वो 1960 का दौर हो या फिर 1990 के बाद का। तब भारत सलाह मशविरे के लिए उसकी तरफ हाथ बढ़ाता था और अब तो रक्षा सौदों को लेकर भी रूचि दिखाता है। मोदी की इस यात्रा के पीछे अमेरिका द्वारा भारतीय कम्पनियों को लेकर दिखाई गई बेरूखी भी एक कारण मानी जा रही है। बेरोजगारी की दर बढ़ रही है और पढ़ेृ-लिखे, प्रशिक्षित युवाओं के लिए इजरायल एक बेहतरीन विकल्प हो सकता है। भारत को एक स्टार्टअप नेशन की दरकार है जो कहीं ना कही इजरायल पर आकर थमती है। इजरायल एक ऐसा देश है जिसने अपनी तकनीक के जरिेए कूटनीति को साधा है। उसकी स्टेट-टू-आर्ट तकनीक के सब कायल हैं।
इस यात्रा के कई मायने हैं। वर्तमान प्रधानमंत्री उस पार्टी से वास्ता रखते हैं जो तकरीबन 180 मिलियन मुस्लिम अल्पसंख्यकों की नाराजगी को नजरअंदाज करने में कोई हानि नहीं समझती। भाजपा इजरायल और खुद में एक समानता भी पाती है। पार्टी मानती है कि उनके जैसी राष्ट्रवादी छवि इजरायल की भी है। देशहित को लेकर जिस तरह से वो समझौता नहीं करते हैं कुछ उसी तरह की सोच भाजपा भी रखती है। यानी राष्ट्रवादी राजनीति भी इस संबंध की एक अहम कड़ी है। हालांकि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था इन दोनों देशों के रिश्तों में एक संशय जरूर पैदा करता है। जहां इजरायल और चीन के संबंध बिना किसी टोका टाकी के टिके रहेंगे वहीं हमारे देश में ऐसा होना मुमकिन नहीं है क्योंकि यहां किसी एक पार्टी की नहीं चलती। भारत में बहुदलीय लोकतांत्रिक व्यवस्था है। केन्द्र सरकार को कोई भी फैसला लेने से पहले विपक्ष से भी राय मशविरा करना पड़ेगा और मतदाताओं की अपेक्षाओं का भी ख्याल रखकर आगे बढ़ना होगा।