दलीय स्वार्थ से ऊपर उठना जरूरी
कृष्ण किशोर पांडेय
आईना हमारे चेहरे का दाग मिटा तो नहीं सकता लेकिन दिखा जरूर सकता है। इसीलिए उसकी भूमिका महत्वपूर्ण है। जब तक आईना न देखें तो हमें खुद पता नहीं लगेगा कि चेहरे पर वह दाग कहां और कैसे लगा। यही काम इतिहास करता है। इतिहास ना तो अपने आप को बदल सकता है और ना ही वर्तमान को। लेकिन वह एक ऐसा आईना है जो हमें बहुत कुछ देखने और सीखने का मौका देता है। जैसे बिना आईना देखे हमें अपने चेहरे का दाग नहीं दिखता वैसे ही इतिहास को देखे बिना वर्तमान को समझना कठिन है।
इतिहास हमें एक उस शख्स का चेहरा दिखाता है जिसने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया। खासकर द्वितीय विश्व युद्ध शुरू करके पूरे यूरोप को उसने तहस नहस कर दिया। हालत इतनी गंभीर थी कि सोवियत संघ के लेनिनग्राद शहर के बाहर हिटलर की सेना ने 900 दिन तक घेरा डाला। उस शहर के अंदर अनाज-पानी खत्म हो गया तब लोग जानवरों को मारकर खाने लगे। जब जानवर खत्म हो गए तो घास और पत्ते चबाने लगे और एक ऐसी भी स्थिति आई जब एक लाख लोग भूख से मर गए। लेकिन प्रकृति की अपनी भी कुछ लीला होती है, हिटलर की फौज जिसने यूरोप के कई देशों में तबाही मचाई वह आखिर में लेनिनग्राद में बर्फ के माहौल को झेल नहीं पाई और उसे पीछे भागना पड़ा। हिटलर की फौज भागती रही और सोवियत संघ की लाल सेना उसका पीछा करती गई और उसके कब्जे में जो देश आ गए थे उनमें से अधिकांश को आजाद करवाया और वहां लाल झंडा फहराया। हिटलर को भी आखिर में आत्महत्या करनी पड़ी। हिटलर की सोच क्या थी और उसकी ताकत क्या थी उसे भी इतिहास ही बताता है।
हिटलर का मानना था कि उसके जैसे लोग उच्च कुल के हैं और दुनिया पर राज करने का हक सिर्फ उनका है। यूरोप में जो भी लोग उसके विचारधारा से सहमत नहीं हैं उन सबपर हमला करके पराजित करना और उनकी भूमि दखल करना उसका अधिकार है। हिटलर मानता था कि जर्मनी में जितनी जमीन है वह उसकी विचारधारा वाले कुलीन लोगों के लिए पर्याप्त नहीं है। इसलिए उनपर हमला करके यूरोपीय देशों की जमीन को हथियाना है। समाज को उसने विभिन्न वर्गों में बांटने और एक दूसरे के खिलाफ लड़ाने का सिलसिला शुरू किया। उसका असली दोस्त और सलाहकार गोबेल्स स्वयं में झूठ का अवतार था। बड़ी सफाई से लेकिन दबंगई वाली आवाज में वह झूठ बोलता और अफवाहें फैलाता। हिटलर ने अपनी फौज में एक खास यूनिट बनाई जिसका नाम था पैंजर्स डिवीजन। उस समय हिटलर ने तमाम आधुनिक तकनीक और हथियार सब जुटाए। जर्मनी के लोग हिटलर से पहले लोकतांत्रिक परंपराओं से प्रभावित थे और हिटलर को इसलिए चुना था क्योंकि वह नई-नई बातें करता था और आश्वासनों के जरिये लोगों के मन में एक चमत्कार पैदा करता था। उसका मित्र गोबेल्स उसके एजेंडे को आगे बढ़ाने में पूरी तरह से उसकी मदद करता था। लेकिन जब हिटलर का असली चेहरा लोगों के सामने आया तो जर्मनी के लोग कुछ नहीं कर पाए और मूकदर्शक बनकर उसकी करतूतों को देखते रहे। द्वितीय विश्वयुद्ध में अगर हिटलर जीत जाता तो पूरी दुनिया को गुलाम बनाने का सपना पूरा कर लेता लेकिन वक्त की गंभीरता को देखते हुए यूरोप के तीन देश फ्रांस, ब्रिटेन और सोवियत संघ एक गठजोड़ में शामिल हुए और बाद में अमेरिका भी उसमें आ गया। यह गठबंधन मित्रराष्ट्र के नाम से मशहूर हुआ। हिटलर की ताकत इतनी बढ़ गई थी कि मित्रराष्ट्र उसके रोक नहीं पा रहे थे। लेकिन लेनिनग्राद में बर्फ का सामना करते हुए उसकी फौज की हिम्मत पस्त हो गई और तब उसे पीछे भागना पड़ा।
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आज दुनिया के अधिकांश देशों में अगर लोकतंत्र को लोकप्रियता प्राप्त हुई है तो उसकी असली वजह यह है कि दुनिया दो-दो विश्वयुद्ध देख चुकी है और उसका नुकसान भुगत चुकी है। भारत में उपनिवेशवाद के खिलाफ देश की जनता ने गांधीजी के नेतृत्व में जो लड़ाई लड़ी वह एक अभिनव प्रयोग था। सत्य, अहिंसा के बल पर इतनी बड़ी जंग इस देश की जनता ने जीत ली। कुर्बानियां बहुत देनी पड़ी लेकिन वह आजादी सबको प्रिय लगने लगी सिर्फ इसलिए कि भारत में जो संविधान बना और बाद में जिन नीतियों पर देश आगे बढा उसकी बुनियाद में एक खास बात यह थी कि जनता में देश के प्रति समान रूप से प्यार था। भारत के लोगों ने इतिहास से सबक सीख लिया था। चूंकि आजादी की जंग में जनता के सभी वर्गों और सभी क्षेत्रों के लोगों ने कंधे से कंधा मिलाकर तन-मन-धन अर्पित करने की कसम खाई इसलिए देश को चलाने में भी उनके अंदर वह भावना विद्यमान रही।
चूंकि लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनाई गई इसलिए विभिन्न राजनीतिक दल बने। उनकी विचारधाराओं में ज्यादा अंतर नहीं था। फर्क सिर्फ इतना था कि देश को किस रास्ते से आगे बढ़ाया जाए उसके बारे में अलग-अलग राय थी। राजनीतिक दलों की विचारधारा में थोड़ा बहुत फर्क होते हुए भी देश की एकता और अखंडता की रक्षा करने और आर्थिक तथा सामाजिक सभी क्षेत्रों में तरक्की करने के बारे में सभी दल एकमत थे। जाहिर है कि आजादी के समय समाज के कुछ वर्ग आर्थिक और सामाजिक दोनों दृष्टियों से पिछड़े हुए थे। उनकी तरक्की के लिए विशेष कदम उठाना जरूरी था। यह भी सच है कि भारत में विविधता बहुत थी। जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र, खानपान, वेषभूषा आदि सभी मामलों में विभिन्नता थी। लेकिन सभी विविधताओं के बीच भारतीयता का भाव एक ऐसा भाव था जिसने पूरे देश को एक सूत्र में बांधकर रखा। आज भी देश की जनता अपनी अलग पहचान रखते हुए भी यह मानती है कि वह भारतीय है और भारत के विकास में ही उसका भी विकास छिपा हुआ है।
पिछले 70 साल में यहां लोकतंत्र की जड़ें काफी गहराई तक गई हैं। राजनीतिक दलों में मतभेद सिर्फ इतना है कि कोई उत्पादन के साधड़नों पर जनता के अधिकार की बात करता है, कोई समाज को अधिक प्रमुखता देना चाहता है, कोई दलितों की आर्थिक और सामाजिक हालत सुधारने में अपने आपको केंद्रित करना चाहता है, कोई पिछड़ों को आगे बढ़ाकर सामाजिक न्याय स्थापित करने की बात करता है और कोई निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र दोनों के सहयोग से देश को आगे बढ़ाने की बात करता है। लेकिन इस सच्चाई को कोई इनकार नहीं कर सकता कि पिछले 70 साल में इस देश ने सभी क्षेत्रों में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की है। विज्ञान, तकनीक, शिक्षा, आर्थिक विकास, सुरक्षा प्रणाली, सूचना और संचार, महिला और बाल विकास, स्वास्थ्य तथा उद्योग व्यापार किसी भी क्षेत्र में अगर देखा जाए तो पिछले सात दशक की उपलब्धियां उल्लेखनीय मानी जाएगी।
इन तमाम सच्चाईयों के बीच एक सच यह भी है कि एक राजनीतिक विचारधारा ऐसी भी है जो तमाम राजनीतिक दलों की विचारधारा से अलग दिखती है। एक विचारधारा जिसे 'भारत माता की जय' और 'जय हिन्द' के बीच बहुत अंतर दिखाई पड़ता है। इस विचारधारा को वंदे मातरम और जनमनगण अधिनायक के बीच अंतर दिखाई देता है। यह विचारधारा एकमात्र ऐसी विचारधारा है जो दावा करती है कि पिछले 70 साल में इस देश में कुछ हुआ ही नहीं। इन तमाम बातों से ऐसा लगता है कि बाकी सभी राजनीतिक दल सच्चाई को स्वीकार कर अपने-अपने रास्ते पर आगे बढ़ना चाहते हैं लेकिन एक विचाराधारा ऐसी है जो बाकी तमाम दावों को झुठलाकर सिर्फ अपनी बात मनवाने की जिद पर अड़ी है। इस देश में लोकतंत्र के प्रति लोगों की आस्था ज्यों की त्यों है। लोग यह भी मानते हैं कि उन्होंने काफी तरक्की भी की है लेकिन अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है। राजनीतिक दल अपने-अपने ढंग से अपनी-अपनी बातें जनता के सामने रखते हैं। लोकतंत्र का तकाजा यही है कि जनता सभी दलों की बात सुनती है और एक जज की तरह अपना फैसला भी सुनाती है।
पिछले 70 साल में केंद्र में भी और राज्यों में भी विभिन्न दलों की सरकारों को जनता ने मौका दिया है। पहले की तरह आज भी जनता सबकी बात सुनेगी और वह अपने हिसाब से ही फैसला देगी। लेकिन राजनीतिक दलों को यह जरूर सोचना चाहिए कि वे अपनी बात जनता तक सही ढंग से पहुंचा सकें। अगर देश की जनता को गुमराह करने का कोई प्रयास होता है तो उसे सही रास्ते पर लाने का प्रयास करना भी राजनीतिक दलों की ही जिम्मेदारी है। जिन दलों में सिद्धांत और विचार के आधार पर समानता स्थापित हो सकती है उन्हें आपस में मिलकर अपनी बात को मजबूती से जनता के बीच रखना चाहिए। अगर सभी राजनीतिक दल पहले की तरह यह मानकर चलें कि विकास का अलग-अलग मॉडल रखते हुए भी राष्ट्रहित के नाम पर सभी एक हैं तो परेशानी पैदा नहीं होगी। दिक्कत तब होगी जब समाज के विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे से अलग करने की कोशिश हो और समाज में अविश्वास का वातावरण पैदा हो। हमारा मानना यह है कि राजनीतिक दलों को अपने-अपने दल के स्वार्थ से ऊपर उठकर राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानना चाहिए। जब तक बुनियाद मजबूत रहेगी तब तक कोई भी इसको नुकसान नहीं पहुंचा सकता।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। इस आलेख में लेखक द्वारा दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)