संसद सत्र में देरी सरकार की मनमानी
कृष्ण किशोर पांडेय
2017 में संसद के शीतकालीन सत्र में विलंब करने के पीछे सरकार की क्या सोच है यह लोग जरूर जानना चाहते हैं। सरकार की ओर से ऐसा कोई कारण भी नहीं बताया गया जिससे लोगों को संतुष्टि हो सके। भारतीय लोकतंत्र में संसद की सर्वोच्चता पर किसी तरह का कोई विवाद नहीं होना चाहिए। क्योंकि इस प्रणाली का नाम ही संसदीय लोकतंत्र है। सुप्रीम कोर्ट संविधान का रक्षक है इस हैसियत से उसे संसद द्वारा पारित किसी भी कानून की संवैधानिकता पर निर्णय करने का अधिकार है। अगर सुप्रीम कोर्ट को लगता है कि संसद ने कोई ऐसा कानून बनाया है जिससे संविधान की व्यवस्थाओं का उल्लंघन होता है तो वह उस कानून की संवैधानिकता के उल्लंघन के आधार पर कानून को अवैध घोषित कर सकता है। उसके बाद संसद के पास या सरकार के पास एक ही रास्ता बचता है कि वह संविधान में संशोधन करे। अगर संविधान में संशोधन होता है तो फिर वह लागू हो जाता है।
संवैधानिक व्यवस्थाओं के अलावा संसदीय लोकतंत्र में परंपराओं का भी बड़ा महत्व है। कुछ परंपराएं ऐसी होती हैं जिनके लिए कानून तो नहीं बनाया जाता, लेकिन लंबे समय से चली आ रही उस परंपरा का पालन अवश्य किया जाता है। संसद का अधिवेशन साल में तीन बार अर्थात एक बार बजट सत्र, फिर मानसून सत्र और साल के अंत में शीतकालीन सत्र चलाया जाता है। संसद के अधिवेशन का आयोजन करने और उसका सत्रावसान करने का अधिकार राष्ट्रपति को है। जाहिर है राष्ट्रपति केंद्रीय मंत्रिपरिषद की सलाह के आधार पर इसे आहूत करते हैं। शीतकालीन सत्र परंपरा के अनुसार नवंबर के मध्य में आहूत किया जाता है और तकरीबन एक महीने तक चलता है। दिसंबर के मध्य में सत्र समाप्त होता है और उसके कुछ दिन बाद राष्ट्रपति सत्रावसान की घोषणा करते हैं। इस बार सरकार ने परंपरा का पालन नहीं किया। लेकिन एक बड़ी बात यह है कि उसका कोई कारण भी नहीं बताया गया। चूंकि सत्र बुलाने संबंधी परंपरा के लिए कोई कानून नहीं है इसलिए सरकार के इस कदम को अवैध घोषित नहीं किया जा सकता। मतलब अदालत का डर सरकार को नहीं है इसीलिए उसने मनमाना फैसला किया है। तो यह मुद्दा संविधान या कानून का मुद्दा न रहकर सीधे-सीधे राजनीतिक मुद्दा बन गया है।
बहुत सारी बातें कानून और संविधान दोनों से अलग होती हैं और लोकतंत्र में उनकी मर्यादा कानून की तरह बचाई जाती है। संसद का अधिवेशन बुलाने की परंपरा कई बार स्थगित भी की जा सकती है। लेकिन उसके लिए पर्याप्त कारण होना चाहिए। मान लीजिए, देश पर कोई बाहरी आक्रमण हो जाए या देश के आंतरिक मामलों में कोई इमरजेंसी की स्थिति आ जाए तो संसद का सत्र कुछ समय के लिए टाला जा सकता है या पहले भी बुलाया जा सकता है। जहां तक चुनाव की बात है, अगर देशभर में मध्यावधि चुनाव कराने का निर्णय लिया जाए तब भी अधिवेशन आगे पीछे किया जा सकता है, लेकिन किसी एक या दो राज्य में विधानसभा चुनाव होने वाला हो तो उसके आधार पर संसद के अधिवेशन का समय बदलना या उसे टालना उचित नहीं कहा जा सकता।
अभी हाल में एक समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह मांग उठाई कि न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच अधिकारों की सीमा रेखा संविधान में जो निश्चित की गई है उसका उल्लंघन किसी को नहीं करना चाहिए। उसके जवाब में मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा हर हालत में की जानी चाहिए। आशय यह था कि मौलिक अधिकारों में कटौती करने या उनकी भाषा बदलकर अधिकारों के महत्व को कम करने के प्रयास कार्यपालिका कर सकती है। लेकिन वैसी स्थिति में न्यायपालिका किसी सीमा की मर्यादा से अपने को नहीं बांधेगी। मतलब यह कि मौलिक अधिकारों की रक्षा उसके लिए बहुत मायने रखती है। इन तमाम बातों को देखते हुए ऐसा लगता है कि कार्यपालिका अर्थात केंद्र सरकार ने शीतकालीन सत्र को टालने का निर्णय राजनीतिक कारणों से ही लिया है। विपक्षी दल इसके बारे में आरोप लगा भी रहे हैं।
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने अभी हाल में आरोप लगाया कि तीन ऐसे मामले हैं जिनके बारे में सरकार बहस कराने से बचना चाहती है। मतलब कि सरकार नहीं चाहती कि गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले उन मुद्दों पर संसद में बहस हो और बातें जनता तक पहुंचे। उन्होंने उन तीन मामलों का जिक्र भी किया और उनमें से पहला मामला अमित शाह के बेटे के कारोबार से जुड़ा है। दूसरा राफेल विमान की खरीद में कथित हेराफेरी से जुड़ा है और तीसरा सोहराबुद्दीन केस की जांच में शामिल सीबीआई जज जस्टिस लोया की 2014 में कथित हत्या से संबंधित है। वैसे विपक्ष की ओर से और भी कई मामले उठाए जा रहे हैं। शीतकालीन सत्र को टालना खुद ही ऐसा मामला है जिसपर बहस की मांग विपक्ष करता रहा है।
सरकार और विपक्ष दोनों की बातों से अलग हटकर अगर निष्पक्ष रूप से विचार किया जाए तो ऐसा लगता है कि संसद के शीतकालीन सत्र को टालने की आवश्यकता नहीं थी। कहीं एक राज्य में चुनाव हो रहा है तो वहां स्थानीय मुद्दे प्रमुख होते हैं। सरकार अपनी उपलब्धियों का जिक्र करती है और जनता के पास उन्हीं उपलब्धियों को लेकर जाती है तो विपक्ष सरकार की कमजोरियों और असफलताओं का मुद्दा उठाता है। राष्ट्रीय स्तर के मुद्दे भी बहस में आते हैं। राजनीतिक दलों के नेता अपने-अपने तरीके से प्रचार में लगे रहते हैं। संसद सत्र से किसी एक चुनाव का कोई लेना-देना नहीं होता है। अब केंद्र सरकार ने शीतकालीन सत्र को टाला है और विपक्ष आरोप लगा रही है तो केंद्र सरकार को विपक्ष के आरोपों का जवाब तो देना ही पड़ेगा और यदि वह उन सवालों के भी जवाब टालना चाहती है तो लोगों को ऐसा लगेगा कि विपक्ष द्वारा उठाए गए सवाल उचित हैं। लोकतंत्र की सफलता के लिए संविधान और कानून की मर्यादा के साथ स्थापित मर्यादाओं और परंपराओं का पालन भी महत्वपूर्ण है। अगर सरकार इस मामले में मनमानी दिखाती है तो वह लोकतंत्र की सेहत के लिए उचित नहीं होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। इस आलेख में दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं और ये लेखक के निजी विचार हैं।))