और अब 'बबुआ' का समाजवाद!
लगता है अब वो समय आ गया है जब बॉलीवुड उत्तर प्रदेश में वंशवाद की समाजवादी राजनीति पर एक फिल्म बनाए। फिल्म का नाम होना चाहिए 'बबुआ का समाजवाद' और उसका शीर्षक गीत (टाइटल सांग) जनवादी कवि गोरख पांडेय की समाजवाद के भटकाव पर लिखी कविता से शुरू होनी चाहिए- 'समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई...हाथी से आई, घोड़ा से आई...लाठी से आई, डंडा से आई...समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई...
रोजगार सृजन और मोदी सरकार की उम्मीदें
सरकार ने केंद्रीय सूक्ष्म, लघु और एवं मध्यम उद्योग मंत्री कलराज मिश्र का सुझाव स्वीकार कर लिया और उद्योगों के विकास के लिए भारतीय प्रशासनिक सेवा की तर्ज पर ‘भारतीय उद्यम विकास सेवा’ के गठन के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। माना जा रहा है कि इससे स्टार्टअप इंडिया, स्टैंडअप इंडिया और मेक इन इंडिया को प्रोत्साहन मिलेगा तथा छोटे उद्योगों को बढ़ावा देने का लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा।
आडवाणी को गुस्सा क्यों आता है?
देश के पूर्व उप-प्रधानमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ सांसद तथा मार्गदर्शक मंडल के सदस्य लालकृष्ण आडवाणी संसद की कार्यवाही पूरे शीतकालीन सत्र में नहीं चल पाने से यदि आहत हैं और लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा देने तक की बात कर रहे हैं तो यह समझने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि समस्या कितनी गंभीर है।
विदेशों में भारतीयों ने कैसे छुपाया काला धन?
पनामा पेपर्स के मुताबिक 500 से ज्यादा भारतीयों ने पनामा, न्यू समोआ, ब्रिटिश वर्जिन आइलैंड्स, सेशेल्स जैसे देशों में कंपनियां बनाईं जो टैक्स हैवन्स कहे जाते हैं। सवाल यह है कि क्या इन भारतीयों को विदेशों में कंपनी बनाने की इजाजत थी? लेकिन कंपनियां बनीं और भारत में अवैध कमाई करने वालों का पैसा उसमें लगा। अब कोई यह बताएगा कि मोदी सरकार की नीति से देश के बाहर का कोई कालाधन देश में वापस आया है या नहीं।
एक महासंकट का आगाज
नोटबंदी का फैसला उन सभी भारतीयों के लिए बड़ा संकट लेकर आया है, जो ईमानदारी से अपनी मज़दूरी नकदी में कमाया करते थे। कहा जाता है, 'कई विचारों में पैसा विश्वास की जननी है'। 9 नवंबर, 2016 की आधी रात को करोड़ों भारतीयों का यह विश्वास चकनाचूर हो गया। प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद 500 और 1000 के नोट रातों रात रद्दी में बदल गया। प्रधानमंत्री के इस एक फैसले से करोड़ों भारतीयों का सरकार और अपने देश की मुद्रा में निहित विश्वास हमेशा के लिए जाता रहा।
अप्रैल 2017 से दिखने लगेंगे विमुद्रीकरण के सार्थक नतीजे
विमुद्रीकरण के सरकार के फैसले ने एक नई बहस खड़ी कर दी है। लेकिन इस बहस के बीच लालू प्रसाद यादव भी सरकार के बड़ी नोटों को बंद करके नई नोटों को लाने के फैसले के विरोध में नहीं हैं। ये बड़ी खबर है और इसी से समझ में आ जाता है कि देश के जनमानस को समझने वाला कोई भी नेता या राजनीतिक दल इस फैसले का विरोध करने का साहस क्यों नहीं जुटा पा रही है। सच भी यही है कि इस फैसले के विरोध की कोई पुख्ता वजह नहीं है।
सत्ता की कसौटी पर अटल बड़े या मोदी?
देश की वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में एक सवाल यह उठ रहा है कि भाजपा के नेतृत्व में बने अटल सरकार और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चल रही वर्तमान भाजपा सरकार की कार्यप्रणाली में अंतर है या नहीं। और अगर है तो उसकी दिशा क्या है। वाजपेयी की कार्यप्रणाली और मोदी सरकार की कार्यप्रणाली की तुलना इसलिए जरूरी है ताकि यह पता चल सके कि भाजपा की नीतियों के अनुरूप कौन सी कार्यप्रणाली अपनी कसौटी पर खरी उतरती है।
गैरसैंण पर भाजपा-कांग्रेस का चुनावी स्टंट
गैरसैंण कोई एक स्थान नहीं बल्कि पहाड़ की भावना का प्रतिनिधित्व करता है। जिस पहाड़ के लिए इस राज्य की परिकल्पना की गई थी, इन 16 सालों में वह लगातार उजड़ता, बर्बाद होता चला गया है। 16 साल में बर्बाद होते जा रहे पहाड़ों में पहली बार एक सीमा तक गैरसैंण चुनावी मुद्दा बनता दिखाई दे रहा है। इसलिए भाजपा और कांग्रेस स्टंटबाजी कर इस संभावना को अपने पक्ष में करने की फिराक में जुटे पड़े हैं।
'ठगों की राजनीति' के सामने संसद बेबस
मोदी जी ने नोटबंदी क्या की, देश की राजनीति ही बदल गई। गजब का विरोधाभाष है। सभी विपक्ष वाले नोटबंदी को लेकर संसद को जाम किये हुए है, जैसे इनके बाप दादा ने संसद का निर्माण कराया हो। जैसे उनकी निजी संपत्ति हो। हर दिन करोड़ों की लागत से संसद चलने को तैयार होती है और सत्ता-विपक्ष संसद की खर्च राशि गपक जा रहे हैं। यह भी एक तरह का घोटाला ही है जो आजादी के बाद से ही चल रहा है।
नोट बदलने से आर्थिक मंदी का खतरा
नोट बदलने, करेंसी रद्द करने से आर्थिक मंदी की चपेट में देश क्यों आ सकता है, इस बारे में कहना चाहूंगा कि आपको दिल दिमाग खोलकर पढ़ना समझना पड़ेगा। थोड़ी देर के लिए मोदी विरोध या समर्थन को किनारे कर दीजिए। उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश की बात करते हैं। यहां चुनाव करीब है। यहां हर दल के नेताओं/प्रत्याशियों ने पांच साल में जो सैकड़ों करोड़ का कैश इकट्ठा किया है ऐन केन प्रकारेण, वह आज की तारीक में रद्दी हो गया। ये वो पैसा था जिसे जनता तक जाना था, वोट खरीदने के लिए, एक-एक वोटर को पांच-पांच सौ या हजार हजार रुपये।