भीम आर्मी, मायावती, सोशल मीडिया और उत्तर प्रदेश में बदलती दलित राजनीति
सत्ता विमर्श ब्यूरो
नई दिल्ली : सहारनपुर में जो हुआ वो सबके सामने है। दो जातियों के बीच संघर्ष इतना बढ़ा की दंगों का रूप इख्तियार कर लिया। स्पष्ट दिख रहा है कि सूबे में दलितों पर राजनीति का परिदृश्य बदल रहा है। दंगों के काफी अरसे बाद मायावती दंगा पीड़ितों से मिलीं जरूर लेकिन पहले वाली चमक नहीं दिखी। इस उपद्रव के बीच एक नई सेना लोगों के दिलों में पैठ बना चुकी है। रंग वही नीला है लेकिन चेहरा बदला-बदला सा है। भीम आर्मी का युवा चेहरा हैं चंद्रशेखर आजाद 'रावण'। दलितों को अपना भविष्य अब चंद्रशेखर आजाद में दिखने लगा है।
ऐसा युवक जिसकी एक पुकार पर जंतर मंतर पर हजारों जुटे और दिल्ली तक को हिला कर रख दिया। रैली की, जिसमें उत्तर प्रदेश के अलावा बिहार, हरियाणा, झारखंड और पंजाब जैसे राज्यों से भी बड़ी संख्या में दलित पहुंचे। अनुमानतः करीब 50,000 लोग इकट्ठा हुए। भीम आर्मी की टोपी लगाए हुए। चंद्रशेखर को एक गुजराती युवक का भी साथ मिला। जिसका नाम है गिजणेश मवानी। दोनों के नेतृत्व में दलितों के बीच काफी लंबे अर्से बाद इस तरह की एकता देखी गई। भीम आर्मी के समर्थन में जंतर मंतर पर हुए विरोध प्रदर्शन ने राज्य और केन्द्र सरकार के खिलाफ गुबार तो जाहिर किया ही इसने बहनजी को भी बेचैन कर दिया। उन्हें भी लगा कि शायद उनका जनाधार घटने लगा है। अब उनके दिन लदने लगे हैं। तभी एक महीने बाद जलते सहारनपुर में कदम रखने का फैसला लिया।
मायावती जानती हैं कि अब उनका वो रसूख और समय नहीं रहा है। दलितों का उनसे मोहभंग हो रहा है। अगर ना होता तो हालिया चुनावों में सोशल इंजिनयरिंग की बात करने वाली बहनजी को महज 19 सीटों से संतोष ना करना पड़ता। आंकड़ें बताते हैं कि कोर दलित बैंक उनसे छिटक गया है। युवा दलित अब पुरानी तरह की रोने-गाने और विलाप में यकीन नहीं रख रहा बल्कि अटैक इज द बेस्ट डिफेंस की तर्ज पर अगुवा बनने को तत्पर है और चंद्रशेखर उसकी सोच के खाके में फिट बैठते हैं।
मिलिए दलितों के आजाद से..
दो साल पहले नौकरी की तलाश में भटकते दो युवकों, विनय रत्न और चंद्रशेखर ने तय किया कि उन्हें अपने दलित समाज की उन्नति के लिए कुछ सार्थक कदम उठाने चाहिए। शिक्षा ही सबसे अच्छा रास्ता सूझा। सो, सहारनपुर के फतेहपुर भादों गांव में एक पाठशाला खोली गयी, दलित बच्चों की नि:शुल्क शिक्षा के लिए। आज पश्चिम उत्तर प्रदेश के सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ और शामली जिलों में ऐसी 350 पाठशालाएं हैं। अभियान सिर्फ शिक्षा तक सीमित नहीं रहा। कुएं से पानी पी लेने जैसे मुद्दों पर दलित उत्पीड़न, महिलाओं पर अत्याचार और भेदभाव के कई मुद्दे भी उठने लगे। इस तरह भीम सेना बनी।
पाठशालाओं के साथ सदस्यता बढ़ती गयी। उत्पीड़न के खिलाफ आवाज दबायी जाने लगी, तो वह और जोर से उठने लगी। पिछले दिनों शब्बीरपुर में सवर्णों के हाथों एक दलित युवक की मौत के विरोध को प्रशासन ने दबाया, तो वह भड़क उठी। उसके नेताओं पर नक्सली होने तक के आरोप लगे। भीम सेना के एक आह्वान पर जंतर-मंतर पर बड़े और आक्रामक प्रदर्शन ने देश का ध्यान खींचा है।
आजाद ने 2015 में भीम आर्मी एकता मिशन की स्थापता की थी और देखते ही देखते वे इलाके में खासा प्रसिद्ध हो गए। पेशे के वकील आजाद ने देहरादून से कानून की पढ़ाई और खुद को 'रावण' और 'द ग्रेट चमार' की उपाधि से पुकारा जाना पसंद करते हैं। उनका दावा है कि उनकी संस्था में यूपी, हरियाणा और राजस्थान सहित सात राज्यों में कुल 40,000 सदस्य हैं। इन्हें जोड़ने के लिए नीली क्रांति का सहारा लिया गया।
'नीली क्रांति' से ऐसे जुड़े युवा
'रावण' की इस नीली क्रांति के आज सब कायल है। इस युवक ने सोशल मीडिया के जरिए युवाओं को उद्वेलित किया, उन्हें मोबलाइज किया है। उन्हें खुद से जोड़ पुराने दलित संरक्षकों को आईना दिखाने का काम किया है। उसने अपने साथ लोगों को जोड़ने के लिए उस सोशल मीडिया को हथियार बनाया है, जिसे दलित राजनीतिज्ञों ने तवज्जो नहीं दी थी। बताया जाता है कि इसकी शुरुआत एक वॉट्सएप ग्रुप से हुई। जिसमें दलित चिंतक और समर्थक जुड़े हुए थे। उन्होंने अब फेसबुक, ट्विटर और वॉट्सएप पर ‘नीली क्रांति’ की शुरुआत कर दी है।
आज इस क्रांति के समर्थक हजारों की संख्या में दलित और पिछड़े युवा हैं। ये बदलते भारत के वो चेहरे हैं जिनके हाथ में एंड्रायड फोन है। जो फेसबुक और ट्विटर पर सक्रिय हैं, इसलिए इन दिनों चर्चा के केन्द्र में है। इस संगठन में फेसबुक और ट्विटर के माध्यम से यूपी के अलावा पंजाब और हरियाणा के युवा भी जुड़े हैं। फेसबुक पर भीम आर्मी के कई पेज हैं। जिलों के भी पेज बनाए गए हैं। जिसके फालोअर्स की संख्या में दिन प्रतिदिन वृद्धि हो रही है। स्थानीय स्तर पर यह संगठन इतना मजबूत है कि हर गांव में इस संगठन से जुड़े दलित युवक हैं।
दलित राजनीति
दरअसल, उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति कई दौर से होकर गुजरी। 90 के दशक में कांशीराम और मायवती के झण्डे तले सवर्ण विरोधी राजनीति। जिसमें दलितों को बताया गया कि उनकी दयनीय स्थिति की जिम्मेदार दरअसल वो बड़ी जातियां हैं जो उन्हें दबाए रखना अपना अधिकार समझती हैं। तब बसपा एक आंदोलनरत पार्टी की तरह काम कर रही थी। उत्तर प्रदेश के उन गरीब क्षेत्रों में दस्तक दे रही थी जहां दलितों की स्थिति बेहद शोचनीय थी। पार्टी दलितों की उप-जातियों को इकट्ठा करने में जुट गई थी। आगे चलकर दो अति अहम बदलाव दिखे। पहला- दलितों के भीतर ही बड़ा बिखराव दिखा। शैक्षिक योग्यता बढ़ी तो खेतों में मजदूरी को छोड़ शहरों में पलायन करने लगे। विकल्प की तलाश में निकले और अवसर भी ढेरों पाए। ये बिखराव और एक तबके का शिक्षित होना ही राजनीति को नई दिशा दे गया। हुआ ये कि आर्थिक तौर पर पहचान बनते ही वो विकास की भाषा बोलने लगे। नतीजतन जो राजनीति दलितों को उनकी पहचान देने का दावा कर रही थी वो कहीं पीछे छूटती गई। बसपा के अलावा भी विकल्प खोजे जाने लगे। ऐसी पार्टियों को ढूंढा गया जो आर्थिक सुदृढ़ता का वायदा करते थे। ये बिखराव गैर-जाटवों में ज्यादा देखने को मिला।
दूसरा अहम बदलाव साल 2000 के बाद दिखा। जहां भाजपा के विकास का मंत्र दलितों को भाने लगा। भाजपा ने इस दौरान पिछड़ी और दलित जातियों को एक सूत्र में पिरोने का अथक प्रयास किया। अमित शाह की अगुवाई में महा-हिंदू की परिभाषा गढ़ी जाने लगी। इससे हुआ ये कि दलित अपना और मुस्लमान गैर की श्रेणी में आ गया। ये भेद भी दलितों में बिखराव लेकर आया, जिसे सहारनपुर में वर्षों से महसूस किया जा रहा है। सहारनपुर में भाजपा समर्थक और बसपा समर्थक दलित बंटे हुए हैं। भाजपा का विकास मंत्र जहां युवाओं को पसंद आ रहा है वहीं बुजुर्ग अब भी बसपा के प्रति वफादार हैं। यहां ऐसे कई धड़े हैं जो दलितों के नाम पर बंटे हैं। इसमें राजनीतिक टकराव तो है ही साथ ही सांस्कृतिक और धार्मिक टक्कर भी बनी रहती है। भाजपा समर्थक रविदास धर्म धड़ा संत रविदास के पद्चिन्हों पर चलने का दावा करता है तो बसपा समर्थक प्रगतिशील युवा मंच अम्बेडकर को अपना गुरु मानता है और बौद्ध धर्म के प्रति आस्था रखता है।
सहारनपुर में कई बार दंगे हिन्दू मुस्लिम के बीच नहीं बल्कि दलित और मुस्लमानों के बीच होते रहे हैं। ऐसे में विभिन्न राजनीतिक पार्टियों ने अपनी सुविधा और वोट बैंक के हिसाब से गोटियां सेट की हैं। नतीजतन दलित एकजुट नहीं अपनी पसंद और नापसंद के मुताबिक बंटा हुआ है। ऐसे में ही चंद्रशेखर उनके लिए उम्मीद का सवेरा बन कर आये हैं। युवा हैं, शिक्षित हैं, निडर हैं और अपने समाज को बेहतर बनाने के संकल्प के साथ मैदान में हैं। यही वजह है कि इस युवा वकील की एक आवाज पर हजारों सड़क पर उतर कर जय भीम का नारा बुलंद कर रहें हैं। चंद्रशेखर विभिन्न पार्टियों के लिए एक खतरे की घंटी हैं जिनसे पार पाना फिलहाल आसान नहीं दिख रहा है। भीम सेना के उभार में नये जाटव नेतृत्व के उभार के संकेत मिल रहे हैं, जो यकीनन मायावती और बसपा के लिए खतरे का सबब हैं।