जानिए! क्या है जेनेवा संधि और क्या होता है युद्धबंदियों के साथ
सत्ता विमर्श ब्यूरो
नई दिल्ली : द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1949 में जहां 50 देशों ने मिलकर युद्ध से संबंधित एक संधि तैयार की थी जिसे जेनेवा संधि कहा जाता है। आज 194 देश इसके सदस्य हैं। इसके तहत कोई भी देश दुश्मन देशों के युद्धबंदियों को नुकसान नहीं पहुंचा सकता है। भारत और पाकिस्तान ने भी इस संधि पर हस्ताक्षर किए हैं। युद्धबंदियों के अधिकारों को बरकरार रखने के जेनेवा संधि (Geneva Convention) में कई नियम दिए गए हैं। इसमें चार संधियां और तीन अतिरिक्त प्रोटोकॉल (मसौदे) शामिल हैं, जिसका मकसद युद्ध के वक्त मानवीय मूल्यों को बनाए रखने के लिए कानून तैयार करना है।
मानवता को बरकरार रखने के लिए पहली संधि 1864 में हुई थी। इसके बाद दूसरी और तीसरी संधि क्रमश: 1906 और 1929 में हुई। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1949 में 50 देशों ने मिलकर चौथी संधि की थी। इंटरनेशनल कमेटी ऑफ रेड क्रॉस के मुताबिक, जेनेवा समझौते में युद्ध के दौरान गिरफ्तार सैनिकों और घायल लोगों के साथ कैसा बर्ताव करना है इसको लेकर दिशानिर्देश दिए गए हैं। इसमें साफ तौर पर बताया गया है कि युद्धबंदियों के क्या अधिकार हैं। साथ ही समझौते में युद्ध क्षेत्र में घायलों की उचित देखरेख और आम लोगों की सुरक्षा की बात कही गई है। जेनेवा समझौते में दिए गए अनुच्छेद 3 के मुताबिक, युद्ध के दौरान घायल होने वाले युद्धबंदी का अच्छे तरीके से उपचार होना चाहिए।
युद्धबंदियों के साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार नहीं होना चाहिए। उनके साथ किसी भी तरह का भेदभाव नहीं होना चाहिए। साथ ही सैनिकों को कानूनी सुविधा भी मुहैया करानी होगी। जेनेवा संधि के तहत युद्धबंदियों को डराया-धमकाया नहीं जा सकता। इसके अलावा उन्हें अपमानित भी नहीं किया जा सकता। इस संधि के मुताबिक, युद्धबंदियों पर मुकदमा चलाया जा सकता है। इसके अलावा युद्ध के बाद युद्धबंदियों को वापस लौटाना होता है। कोई भी देश युद्धबंदियों को लेकर जनता में उत्सुकता पैदा नहीं कर सकता। युद्धबंदियों से सिर्फ उनके नाम, सैन्य पद, नंबर और यूनिट के बारे में पूछा जा सकता है।
जेनेवा संधि से जुड़ी मुख्य बातें इस प्रकार से हैं...
- इस संधि के तहत घायल सैनिक की उचित देखरेख की जाती है।
- संधि के तहत उन्हें खाना-पीना और जरूरत की सभी चीजें दी जाती है।
- संधि के मुताबिक किसी भी युद्धबंदी के साथ अमानवीय बर्ताव नहीं किया जा सकता।
- किसी देश का सैनिक जैसे ही पकड़ा जाता है उस पर ये संधि लागू होती है चाहे वह स्त्री हो या पुरुष।
- संधि के मुताबिक युद्धबंदी को डराया-धमकाया नहीं जा सकता है।
- युद्धबंदी की जाति, धर्म, जन्म आदि बातों के बारे में नहीं पूछा जाता है।
क्यों बनाया गया जिनेवा कन्वेशन?
जिनेवा कन्वेंशन इसलिए बनाया गया है ताकि सुरक्षा बलों को युद्ध के दुष्प्रभावों से बचाया जा सके। युद्ध के दौरान जैसे ही कोई सैनिक घायल होता है और आत्मसमर्पण करता है तो इस संधि के तहत यह शत्रु सैनिकों का दायित्व है कि वे उस घायल जवान के अधिकारों की पूरी रक्षा करें। इसके तहत घायल को न सिर्फ चिकित्सकीय सुविधा उपलब्ध कराई जाती है, बल्कि उसके मानवाधिकारों का भी पूरा ख्याल रखा जाता है। इस संधि के अधिकांश प्रावधान कस्टमरी इंटरनेशनल लॉ बना दिये गए हैं, अर्थात् कोई देश इस संधि का हिस्सा है अथवा नहीं, पर उसे इसके प्रावधानों को मानना ही होगा। कह सकते हैं कि जिनेवा संधि के प्रावधान विश्व के सभी देशों के लिये बाध्यकारी हैं।
जिनेवा की तीसरी संधि की धारा-4 में युद्धबंदियों की परिभाषा और उनके अधिकारों का उल्लेख है। इसमें विस्तार से यह बताया गया है कि युद्धबंदियों को किस तरह की बुनियादी सुविधाएँ मिलनी चाहिये। इसमें यह भी तय किया गया है कि पकड़े गए सैनिक के पद और पदनाम का पूरा सम्मान किया जाना चाहिये। इसके तहत युद्धबंदी को इसके लिये भी बाध्य नहीं किया जा सकता कि वह अपने देश की गुप्त सूचनाएँ जाहिर करे। इस संधि की धारा-13 युद्धबंदी के साथ मानवीय व्यवहार की बात कहती है। इसमें युद्धबंदी का स्टेटस आड़े नहीं आना चाहिये। यहां ‘स्टेटस’ का मतलब उसकी पहचान से है कि वह वाकई सुरक्षा बल का जवान है या नहीं?
पहला जिनेवा कन्वेंशन : पहला जिनेवा कन्वेंशन 1864 में हुआ। इसमें युद्ध के दौरान घायल और बीमार सैनिकों को सुरक्षा प्रदान करने की बात कही गई। इसके अलावा, चिकित्सा-कर्मियों, धार्मिक लोगों और चिकित्सा परिवहन की सुरक्षा की बात भी कही गई।
दूसरा जिनेवा कन्वेंशन : दूसरा जिनेवा कन्वेंशन 1906 में हुआ। इस कन्वेंशन में विशेषकर समुद्री युद्ध और उससे जुड़े प्रावधानों को शामिल किया गया। इसमें युद्ध के दौरान समुद्र में घायल, बीमार और जलपोत के सैन्य-कर्मियों की रक्षा और अधिकारों की बात की गई।
तीसरा जिनेवा कन्वेंशन : 1929 में हुआ तीसरा जिनेवा कन्वेंशन युद्धबंदियों पर लागू होता है। इस कन्वेंशन में कैद की स्थिति और स्थानों को अधिक सटीक रूप से परिभाषित किया गया है। यह कन्वेंशन 'प्रिजनर ऑफ वॉर' को परिभाषित करता है और ऐसे कैदियों को उचित और मानवीय उपचार देने के बारे में बात करता है जिनका उल्लेख पहले कन्वेंशन में मिलता है। विशेष रूप से युद्धबंदियों के श्रम, उनके वित्तीय संसाधनों, उन्हें मिलने वाली राहत और उनके खिलाफ न्यायिक कार्यवाही के संबंध में।
कन्वेंशन इस सिद्धांत को स्थापित करता है कि युद्धबंदियों को युद्ध की समाप्ति के बाद बिना देरी किये रिहा किया जाएगा।
चौथा जिनेवा कन्वेंशन : दूसरे विश्वयुद्ध की घटनाओं से सबक लेते हुए 1949 में चौथे जिनेवा कन्वेंशन का आयोजन हुआ। इसमें तीसरे जिनेवा कन्वेंशन के नियम का आयोजन हुआ। इसमें तीसरे जिनेवा कन्वेंशन के नियम कानूनों में संशोधन किया गया। यह कन्वेंशन कब्जे वाले या युद्ध वाले क्षेत्र के साथ-साथ नागरिकों के संरक्षण की बात कहता है। इस कन्वेंशन के तहत बड़े पैमाने पर युद्धबंदियों के युद्धकालीन बुनियादी अधिकारों को परिभाषित किया गया है। इसमें नागरिक और सैन्य अधिकार शामिल हैं। इसके मुताबिक युद्ध क्षेत्र तथा आसपास के क्षेत्रों में नागरिकों और घायलों की सुरक्षा व्यवस्था सुनिश्चित की गई है।
जिनेवा कन्वेंशन का बढ़ता दायरा
1949 का जिनेवा कन्वेंशन 21 अक्तूबर, 1950 को लागू हुआ और समय के साथ-साथ इसके सदस्य देशों की संख्या की बढ़ती गई। 1950 के दशक में जहां 50 देशों ने इस कन्वेंशन को मान्यता दी, वहीं 1960 के दशक के दौरान 48 देश, 1970 के दशक के दौरान 20 देश, जबकि 1980 के दशक में 20 और देशों ने इस जिनेवा कन्वेंशन को मान्यता दी। 1990 के दशक में 26 देशों ने, जबकि साल 2000 के बाद सात देशों ने इस कन्वेंशन को अपनाया। फिलहाल 194 देश इस कन्वेंशन के दायरे में हैं। कुल मिलाकर जिनेवा कन्वेंशन युद्ध की बर्बरता से दुनिया को बचाने की एक कोशिश है, साथ ही हर परिस्थिति में मानवीय मूल्य बरकरार रहें इस दिशा में भी यह बेहद महत्त्वपूर्ण है।