भारत के राष्ट्रपति
भारत के राष्ट्रपति राष्ट्र के प्रमुख और भारत के प्रथम नागरिक होते हैं, साथ ही भारतीय सशस्त्र सेनाओं के प्रमुख सेनापति भी। सिद्धांतत: राष्ट्रपति के पास पर्याप्त शक्ति होती है। लेकिन कुछ अपवादों के अलावा राष्ट्रपति के पद में निहित अधिकांश अधिकार वास्तव में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले मंत्रिपरिषद के द्वारा उपयोग किए जाते हैं। राष्ट्रपति को भारतीय संसद के दोनो सदनों (लोक सभा और राज्य सभा) तथा साथ ही राज्य विधायिकाओं (विधान सभाओं) के निर्वाचित सदस्यों द्वारा पांच वर्ष की अवधि के लिए चुना जाता है। पदधारकों को पुनः चुनाव में खड़े होने की अनुमति दी गई है। भारत में अब तक बने राष्ट्रपति और उनका कार्यकाल इस प्रकार रहा है--
भारत के राष्ट्रपति (1950 से अब तक)
रामनाथ कोविन्द-- 25 जुलाई 2017 से निरंतर
प्रणब मुखर्जी -- 25 जुलाई 2012 से 24 जुलाई 2017
प्रतिभा पाटिल -- 25 जुलाई 2007 से 24 जुलाई 2012
डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम -- 25 जुलाई 2002 से 24 जुलाई, 2007
के. आर. नारायणन -- 25 जुलाई 1997 से 24 जुलाई 2002
डॉ. शंकर दयाल शर्मा -- 25 जुलाई 1992 से 24 जुलाई, 1997
रामास्वामी वेंकटरमण -- 25 जुलाई 1987 से 24 जुलाई, 1992
ज्ञानी ज़ैल सिंह -- 25 जुलाई 1982 से 24 जुलाई 1987
नीलम संजीव रेड्डी -- 25 जुलाई 1977 से 24 जुलाई 1982
फखरुद्दीन अली अहमद -- 24 अगस्त 1974 से 11 फरवरी 1977 (कार्यकाल में मृत्यु)
वाराहगिरि वेंकट गिरि -- 24 अगस्त, 1969 से 23 अगस्त 1974
डॉ. ज़ाकिर हुसैन -- 13 मई 1967 से 3 मई 1969 (कार्यकाल में ही मृत्यु)
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन --13 मई 1962 से 12 मई 1967
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद -- 26 जनवरी 1950 से 12 मई 1962
कार्यवाहक राष्ट्रपति
वाराहगिरि वेंकट गिरि (उपराष्ट्रपति) -- 3 मई, 1969 से 20 जुलाई, 1969
जस्टिस एम. हिदायतुल्ला (भारत के चीफ जस्टिस) -- 20 जुलाई, 1969 से 24 अगस्त, 1969
बी.डी. जत्ती (उपराष्ट्रपति) -- 11 फरवरी, 1977 से 25 जुलाई, 1977
राष्ट्रपति को भारतीय संसद के दोनो सदनों (लोक सभा और राज्य सभा) तथा साथ ही राज्य विधायिकाओं (विधान सभाओं) के निर्वाचित सदस्यों द्वारा पांच वर्ष की अवधि के लिए चुना जाता है। पदधारकों को पुनः चुनाव में खड़े होने की अनुमति दी गई है। वोट आवंटित करने के लिए एक फार्मूला इस्तेमाल किया गया है ताकि हर राज्य की जनसंख्या और उस राज्य से विधानसभा के सदस्यों द्वारा वोट डालने की संख्या के बीच एक अनुपात रहे और राज्य विधानसभाओं के सदस्यों और राष्ट्रीय सांसदों के बीच एक समानुपात बनी रहे। अगर किसी उम्मीदवार को बहुमत प्राप्त नहीं होता है तो एक स्थापित प्रणाली है जिससे हारने वाले उम्मीदवारों को प्रतियोगिता से हटा दिया जाता है और उनको मिले वोट अन्य उम्मीदवारों को तब तक हस्तांतरित होता है, जब तक किसी एक को बहुमत नहीं मिलती।
उपराष्ट्रपति को लोक सभा और राज्य सभा के सभी (निर्वाचित और नामजद) सदस्यों द्वारा सीधे मतदान द्वारा चुना जाता है। भारत के राष्ट्रपति नई दिल्ली स्थित राष्ट्रपति भवन में रहते हैं, जिसे रायसीना हिल्स के नाम से भी जाना जाता है। राष्ट्रपति अधिकतम दो कार्यकाल तक ही पद पर रह सकते हैं। अब तक केवल पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने ही इस पद पर दो कार्यकाल पूरा किया है। प्रतिभा पाटिल भारत की 12वीं तथा इस पद को सुशोभित करने वाली पहली महिला राष्ट्रपति रही हैं। उन्होंने 25 जुलाई, 2007 को पद व गोपनीयता की शपथ ली थी।
भारतीय संविधान पर ब्रिटेन के संविधान का व्यापक प्रभाव है। ब्रिटेन के संविधान का अनुकरण करते हुए भारत में संविधान द्वारा संसदीय शासन की स्थापना की गयी है। जिस तरह ब्रिटेन में शासन की प्रमुख वहां की साम्राज्ञी होती है, उसी प्रकार से भारत में राज्य का प्रमुख राष्ट्रपति होता है। ब्रिटेन की साम्राज्ञी की तरह भारत का राष्ट्रपति राज्य का औपचारिक प्रमुख होता है और संघ की वास्तविक शक्ति संघ मन्त्रिमण्डल में निहित होती है। इन दोनों देशों के प्रमुखों में मूलभूत अन्तर यह है कि ब्रिटेन की साम्राज्ञी का पद वंशानुगत होता है, जबकि भारत का राष्ट्रपति एक निर्वाचित मण्डल द्वारा निर्वाचित किया जाता है। इसी अन्तर के कारण भारत को प्रजातांत्रिक गणतन्त्र कहा जाता है। भारत में राष्ट्रपति का पद संविधान के अनुच्छेद 52 द्वारा उपबंधित है।
राष्ट्रपति पद की योग्यता
संविधान के अनुच्छेद 58 के अनुसार कोई भी व्यक्ति राष्ट्रपति होने के योग्य तब होगा, जब वह– भारत का नागरिक हो, 35 साल की आयु पूरी कर चुका हो, लोक सभा का सदस्य निर्वाचित किये जाने के योग्य हो तथा भारत सरकार के या किसी राज्य सरकार के अधीन अथवा इन दोनों सरकारों में से किसी के नियन्त्रण में किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकारी के अधीन लाभ का पद न धारण करता हो। यदि कोई व्यक्ति राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के पद पर या संघ अथवा किसी राज्य के मंत्रिपरिषद का सदस्य हो, तो यह नहीं माना जाएगा कि वह लाभ के पद पर है।
निर्वाचन की प्रक्रिया
राष्ट्रपति का चुनाव 'अप्रत्यक्ष निर्वाचन' के द्वारा किया जाता है। राष्ट्रपति पद के निर्वाचन में अभ्यर्थी होने के लिए आवश्यक है कि कोई व्यक्ति निर्वाचन के लिए अपना नामांकन करते समय 15,000 रुपये की धरोहर (जमानत धनराशि) राशि निर्वाचन अधिकारी के समक्ष जमा करे और उसके नामांकन पत्र का प्रस्ताव कम से कम 50 मतदाताओं के द्वारा किया जाना चाहिए तथा कम से कम 50 मतदाताओं द्वारा उसके नामांकन पत्र का समर्थन भी किया जाना चाहिए।
अनुच्छेद 54 के अनुसार राष्ट्रपति का निर्वाचन ऐसे निर्वाचक मण्डल के द्वारा किया जाएगा, जिसमें संसद (लोकसभा तथा राज्यसभा) तथा राज्य विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य शामिल होंगे। राष्ट्रपति के निर्वाचक मण्डल में संसद के मनोनीत सदस्य, राज्य विधान सभाओं के मनोनीत सदस्य तथा राज्य विधान परिषदों के सदस्य (निर्वाचित एवं मनोनीत दोनों) शामिल नहीं किये जाते। संघ राज्य क्षेत्रों की विधानसभाओं के सदस्यों को भी 70वें संविधान संशोधन के पूर्व राष्ट्रपति के निर्वाचक मण्डल में शामिल नहीं किया जाता था। लेकिन 70वें संविधान संशोधन द्वारा यह व्यवस्था कर दी गयी है कि दो संघ राज्य क्षेत्रों, यथा पाण्डिचेरी तथा राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र दिल्ली की विधानसभाओं के सदस्य राष्ट्रपति के निर्वाचक मण्डल में शामिल किये जाएंगे। यहां पर यह उल्लेखनीय है कि केवल इन दोनों संघ राज्य क्षेत्रों में ही विधानसभा का गठन हुआ है।
संविधान सभा में राष्ट्रपति के निर्वाचन प्रक्रिया पर विचार करते समय यह ध्यान नहीं दिया गया था कि निर्वाचक मण्डल में से कोई स्थान रिक्त हो तो राष्ट्रपति का चुनाव कैसे होगा? 1957 में जब राष्ट्रपति का चुनाव किया गया तो निर्वाचक मण्डल में कुछ स्थान ख़ाली थे। इसलिए राष्ट्रपति के चुनाव को इस आधार पर चुनौती दी गई कि निर्वाचक मण्डल में स्थान रिक्त होने के कारण राष्ट्रपति का चुनाव अवैध है। बाद में 1961 में 11वें संविधान संशोधन के तहत यह व्यवस्था की गयी कि निर्वाचक मण्डल में स्थान रिक्त होते हुए भी राष्ट्रपति का चुनाव कैसे कराया जा सकता है।
राष्ट्रपति के निर्वाचन पद्धति के सम्बन्ध में संविधान के अनुच्छेद 55 में प्रावधान किया गया है, जिसके अनुसार राष्ट्रपति के निर्वाचन में दो सिद्धान्तों को अपनाया जाता है– समरूपता तथा समतुल्यता। यह सिद्धान्त, जो अनुच्छेद 55 के खण्ड (1) तथा (2) में वर्णित हैं, के अनुसार राज्यों के प्रतिनिधित्व के मापन में समरूपता तथा सभी राज्यों और संघ के प्रतिनिधित्व में समतुल्यता होगी। इस सिद्धान्त का तात्पर्य यह है कि सभी राज्यों की विधानसभाओं का प्रतिनिधित्व का मान निकालने के लिए एक ही प्रक्रिया अपनायी जाएगी तथा सभी राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों के मत मूल्य का योग संसद के सभी सदस्य के मत मूल्य के योग के समतुल्य अर्थात् समान होगा। राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों के मतमूल्य तथा संसद सदस्यों के मतमूल्य को निर्धारित करने के लिए निम्नलिखित प्रक्रिया अपनायी जाती है।
विधानसभा सदस्य के मत मूल्य का निर्धारण
प्रत्येक राज्य की विधानसभा के सदस्य के मतों की संख्या निकालने के लिए उस राज्य की कुल जनसंख्या (जो पिछली जनगणना के अनुसार निर्धारित है) को राज्य विधानसभा की कुल निर्वाचित सदस्य संख्या से विभाजित करके भागफल को 1000 से विभाजित किया जाता है। इस प्रकार भजनफल को एक सदस्य का मत मूल्य मान लेते हैं। यदि उक्त विभाजन के परिणामस्वरूप शेष संख्या 500 से अधिक आये, तो प्रत्येक सदस्य के मतों की संख्या में एक और जोड़ दिया जाता है। राज्य विधान सभा के सदस्यों का मूल्य निम्न प्रकार निकाला जाता है–
राज्य की विधानसभा के एक सदस्य का मत मूल्य = राज्य की कुल जनसंख्या / राज्य विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों की संख्या X 1 / 1000 सदस्यों की कुल संख्या
संसद सदस्य के मत मूल्य का निर्धारण
संसद सदस्य का मत मूल्य निर्धारित करने के लिए राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों के मत मूल्यों को जोड़कर संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों के योग का भाग दिया जाता है। संसद सदस्य का मत मूल्य निम्न प्रकार निकाला जाता है–
संसद सदस्य का मत मूल्य = कुल राज्य विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के मत मूल्यों का योग / संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों का योग
इस प्रकार राष्ट्रपति के चुनाव में यह ध्यान रखा जाता है कि सभी राज्य विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के मतों के मूल्य का योग संसद के निर्वाचित सदस्यों के मतों के मूल्य का योग बराबर रहे और सभी राज्यों की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के मत मूल्य का निर्धारण करने के लिए एक समान प्रक्रिया अपनायी जाए। इसे आनुपातिक प्रतिनिधित्व का सिद्धान्त भी कहते हैं।
एकल संक्रमणीय सिद्धान्त
इस सिद्धान्त का तात्पर्य है कि यदि निर्वाचन में एक से अधिक उम्मीदवार हों, तो मतदाताओं द्वारा मतदान वरीयता क्रम से दिया जाए। इसका आशय यह है कि मतदाता मतदान पत्र में उम्मीदवारों के नाम या चुनाव चिह्न के समक्ष अपना वरीयता क्रम लिखेगा।
मतगणना
राष्ट्रपति के चुनाव के बाद उसी व्यक्ति को निर्वाचित घोषित किया जाता है, जो डाले गये कुल वैध मतों में से आधे से अधिक मत प्राप्त करे। जब राष्ट्रपति के निर्वाचन के बाद मतों की गणना प्रारम्भ होती है, तो सर्वप्रथम अवैध मत पत्रों को निरस्त करके शेष वैध मत पत्रों का मत मूल्य निकाला जाता है और निकाले गए मत मूल्य में 2 का भाग देकर भागफल में एक जोड़कर निर्वाचित घोषित किये जाने वाले उम्मीदवार का कोटा निकाला जाता है। यदि मतगणना के प्रथम दौर में किसी उम्मीदवार को नियत किये गये कोटा के बराबर मत मूल्य प्राप्त हो जाता है, तो उसे निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। यदि किसी उम्मीदवार को नियम कोटा के बराबर मत मूल्य नहीं प्राप्त होता है, तो मतगणना का दूसरा दौर प्रारम्भ होता है। दूसरे दौर के मतगणना में जिस उम्मीदवार को प्रथम वरीयता का सबसे कम मत मिला होता है, उसको गणना से बाहर करके उसके द्वितीय वरीयता के मत मूल्य को अन्य उम्मीदवारों को स्थानान्तरित कर दिया जाता है। यदि द्वितीय दौर की गणना में भी किसी उम्मीदवार को नियत किये गये कोटा के बराबर मत मूल्य नहीं प्राप्त होता है, तो तीसरे दौर की गणना होती है। तीसरे दौर की गणना में उस उम्मीदवार को गणना से बाहर कर दिया जाता है, जो कि दूसरे दौर की गणना में सबसे कम मूल्य पाता है और इस उम्मीदवार के तृतीय वरीयता मत मूल्य को शेष उम्मीदवारों के पक्ष में स्थानान्तरित कर दिया जाता है। यह प्रक्रिया तब तक अपनायी जाती है, जब तक कि किसी उम्मीदवार को नियत किये गये कोटा के मत मूल्य के बराबर मत मूल्य प्राप्त नहीं हो जाता है।
भारत में राष्ट्रपति का चुनाव
भारत में अब तक 13 व्यक्ति राष्ट्रपति का पद ग्रहण कर चुके हैं, जिनमें से प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने 2 बार इस पद को सुशोभित किया है। राष्ट्रपति की पदावधि 5 वर्ष की होती है। लेकिन राजेन्द्र प्रसाद 10 वर्ष से अधिक की अवधि तक राष्ट्रपति का पद धारण किये था। इसका कारण यह था कि 1952 में राष्ट्रपति के प्रथम चुनाव के पूर्व ही 24 जनवरी, 1950 को संविधान सभा के द्वारा राष्ट्रपति के रूप में डॉ. राजेंद्र प्रसाद का चुनाव कर लिया गया था। संविधान के प्रवर्तन की तिथि अर्थात् 26 जनवरी, 1950 से लेकर 12 मई, 1952 तक राजेन्द्र प्रसाद राष्ट्रपति के पद पर रहे।
भारत में अब तक 13 बार राष्ट्रपति के चुनाव हुए हैं, जिनमें से एक बार, अर्थात् 1977 में, नीलम संजीव रेड्डी निर्विरोध राष्ट्रपति चुने गये थे। शेष 12 बार राष्ट्रपति पद के चुनाव में एक से अधिक उम्मीदवार थे। अब तक केवल डॉ. राजेंद्र प्रसाद, फखरुद्दीन अली अहमद, नीलम संजीव रेड्डी तथा ज्ञानी ज़ैल सिंह को छोड़कर अन्य सभी राष्ट्रपति पूर्व में उपराष्ट्रपति के पद को सुशोभित कर चुके थे। डॉ. एस. राधाकृष्णन लगातार दो बार उपराष्ट्रपति तथा एक बार राष्ट्रपति के पद पर आसीन हुए। निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में वी.वी. गिरी ऐसे राष्ट्रपति निर्वाचित हुए थे, जिन्होंने कांग्रेस का स्पष्ट बहुमत होते हुए भी उसके उम्मीदवार को पराजित किया था। अब तक नीलम संजीव रेड्डी एकमात्र ऐसे राष्ट्रपति हुए हैं, जो एक बार चुनाव में पराजित हुए तथा बाद में निर्विरोध निर्वाचित हुए।
19 जुलाई, 2007 को सम्पन्न 13वें राष्ट्रपति के चुनाव के लिए निर्वाचक मण्डल में 4,896 सदस्य थे, जिसमें 776 सांसद और 4,120 विधायक शामिल हैं। इन सबका कुल मत मूल्य 10,98,882 था। वर्तमान में प्रत्येक सांसद का मत मूल्य 708 है। सांसदों का कुल मत मूल्य 5,49,408 और विधायकों का कुल मत मूल्य 5,49,474 है। राज्यों में उत्तर प्रदेश विधानसभा का मत मूल्य सर्वाधिक 83,824 है। इसके बाद क्रमश: महाराष्ट्र विधानसभा का मत मूल्य 50,400, पश्चिम बंगाल का 44,394, आंध्र प्रदेश का 43,512 और बिहार विधानसभा का मत मूल्य 42,039 है। सिक्किम विधानसभा का मत मूल्य सबसे कम 224 है। राष्ट्रपति के चुनाव में राज्य विधान सभाओं के सदस्य अपने-अपने राज्यों की राजधानियों में मतदान करते हैं और संसद सदस्य दिल्ली में या अपने राज्य की राजधानी में मतदान कर सकते हैं। यदि कोई संसद सदस्य अपने राज्य की राजधानी में मतदान करना चाहता है तो उसे इसकी सूचना 10 दिन पूर्व ही चुनाव आयोग का देनी होती है।
संविधान के अनुच्छेद 62 में केवल यह अपेक्षा की गई है कि राष्ट्रपति का चुनाव निर्धारित समय के अन्दर सम्पन्न करा लिया जाना चाहिए। निर्वाचन की प्रक्रिया को पांच वर्ष की अवधि समाप्त हो जाने के बाद स्थगित नहीं रखा जा सकता है। राष्ट्रपति का चुनाव कब कराया जाएगा, इसके सम्बन्ध में संविधान में कोई प्रावधान नहीं किया गया है। संविधान में अनुच्छेद 71 (3) में केवल यह प्रावधान किया गया है कि राष्ट्रपति के निर्वाचन से सम्बन्धित किसी विषय का विनियमन संसद विधि द्वारा कर सकेगी। इस शक्ति का प्रयोग करके संसद ने राष्ट्रपतीय तथा उपराष्ट्रपतीय निर्वाचन अधिनियम, 1952 पारित करके यह प्रावधान किया है कि राष्ट्रपति का चुनाव निवर्तमान राष्ट्रपति की पदावधि की समाप्ति के पूर्व ही कराया जाना चाहिए।
किसी राज्य विधानसभा के भंग होने की स्थिति में
किसी राज्य की विधानसभा भंग होने की स्थिति में भी राष्ट्रपति का चुनाव सम्पन्न होता है। इस सन्दर्भ में 11वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1961 में यह स्पष्ट किया गया है कि राष्ट्रपति के चुनाव को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि निर्वाचक मण्डल में कोई स्थान रिक्त था। देश की सर्वोच्च अदालत ने भी यह निर्णय दिया है कि बिना किसी विधानसभा के ही राष्ट्रपति का चुनाव कराया जा सकता है। अनुच्छेद 7 के अनुसार राष्ट्रपति के चुनाव से सम्बन्धित विवाद का निपटारा उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जाएगा। यदि कोई व्यक्ति राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचित होकर पद ग्रहण कर लेता है और बाद में उसका चुनाव उच्चतम न्यायालय द्वारा अवैध घोषित किया जाता है, तो राष्ट्रपति के पद पर रहते हुए भी उसके द्वारा किया गया कार्य या की गयी घोषणा अविधिमान्य नहीं होगी।
पुननिर्वाचन के लिए योग्यता
अनुच्छेद 57 के अनुसार भारत के राष्ट्रपति पद पर पदस्थ व्यक्ति दूसरे कार्यकाल के लिए भी चुनाव में उम्मीदवार बन सकता है। वैसे संविधान में यह व्यवस्था नहीं की गयी है कि राष्ट्रपति पद पर पदस्थ व्यक्ति दूसरे कार्यकाल के लिए निर्वाचन में भाग ले सकता है या नहीं, लेकिन सामान्यत: यह परम्परा बन गयी है कि राष्ट्रपति पद के लिए कोई व्यक्ति एक ही बार निर्वाचित किया जाता है। इसका अपवाद राजेन्द्र प्रसाद रहे हैं, जो दो बार राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार थे।
राष्ट्रपति का शपथ ग्रहण
राष्ट्रपति या कोई व्यक्ति, जो किसी कारण से राष्ट्रपति के कृत्यों के निर्वहन के लिए नियुक्त होता है, अपना पद ग्रहण करने के पूर्व अनुच्छेद 60 के तहत भारत के मुख्य न्यायधीश या उसकी अनुपस्थिति में उच्चतम न्यायालय में उपलब्ध वरिष्ठतम न्यायधीश के समक्ष अपने पद के कार्यपालन की शपथ लेता है। राष्ट्रपति के शपथ पत्र का प्रारूप निम्नलिखित रूप में होता है–
'मैं, अपना नाम.... ईश्वर की शपथ लेता हूं सत्य निष्ठा से प्रतिज्ञाण करता हूं कि मैं श्रद्धापूर्वक भारत के राष्ट्रपति के पद का कार्यपालन (अथवा राष्ट्रपति के कृत्यों का निर्वहन) करूंगा तथा अपनी पूरी योग्यता से संविधान और विधि का परिरक्षण, संरक्षण और प्रतिरक्षण करूंगा और मैं भारत की जनता की सेवा और कल्याण में निरत रहूंगा।' राष्ट्रपति द्वारा लिया जाने वाला शपथ या प्रतिज्ञण उपराष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री के शपथ से इस मामले में भिन्न है कि राष्ट्रपति संविधान और विधि के परिरक्षण, संरक्षण और प्रतिरक्षण का शपथ लेता है।
राष्ट्रपति की पदावधि
अनुच्छेद 56 के अनुसार राष्ट्रपति अपने पदग्रहण की तिथि से पांच साल की अवधि तक अपने पद पर बना रहता है, लेकिन इस पांच साल की अवधि के पूर्व भी वह उपराष्ट्रपति को अपना त्याग पत्र दे सकता है या उसे पांच वर्ष की अवधि के पूर्व संविधान के उल्लंघन के लिए संसद द्वारा लगाये गये महाभियोग द्वारा हटाया जा सकता है। राष्ट्रपति द्वारा उपराष्ट्रपति को सम्बोधित त्याग पत्र की सूचना उसके द्वारा (उपराष्ट्रपति के द्वारा) लोकसभा के अध्यक्ष को अविलम्ब दी जाती है। राष्ट्रपति अपने पांच साल के कार्यकाल के पूरा करने के बाद भी तब तक राष्ट्रपति के पद पर बना रहता है, जब तक उसका उत्तराधिकारी पद ग्रहण नहीं कर लेता है।
भारतीय संविधान में प्रावधान किया गया है कि राष्ट्रपति के पद में आकस्मिक रिक्ति के दौरान या उसकी अनुपस्थिति में उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति के पद के कार्यों का निर्वहन करेगा और राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति दोनों के पद में आकस्मिक रिक्ति के दौरान या दोनों की अनुपस्थिति में भारत का मुख्य न्यायधीश राष्ट्रपति के पद के कृत्यों का निर्वहन करेगा। इसी कारण जब 3 मई, 1969 को तत्कालीन राष्ट्रपति ज़ाकिर हुसैन की मृत्यु हुई, तब तत्कालीन उपराष्ट्रपति वी.वी. गिरि कार्यकारी राष्ट्रपति नियुक्त किये गये। लेकिन उन्हें राष्ट्रपति पद के चुनाव में उम्मीदवार होने के लिए अपने पद से त्याग पत्र देना पड़ा था। तब भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति मो. हिदायतुल्ला ने राष्ट्रपति के पद का निर्वहन तब तक किया, जब तक निर्वाचित होकर वी.वी. गिरि ने राष्ट्रपति पद का कार्यभार ग्रहण नहीं कर लिया। अब तक तीन उपराष्ट्रपति वी.वी. गिरि (राष्ट्रपति जाकिर हुसैन की मृत्यु के कारण), बी.डी. जत्ती (राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद की मृत्यु के कारण) तथा मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति मोहम्मद हिदायतुल्ला (राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह की अनुपस्थिति के कारण) राष्ट्रपति पद के कृत्यों का निर्वहन कर चुके हैं।
राष्ट्रपति के वेतन और भत्ते
राष्ट्रपति को नि:शुल्क शासकीय निवास उपलब्ध होता है। वह ऐसी परिलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों का हकदार होता है, जो संसद विधि के द्वारा अवधारित करे और जब तक संसद ऐसी विधि पारित नहीं करती है उनकी परिलब्धियां या भत्ते वही होगें जो संविधान की दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं। 1990 में राष्ट्रपति की परिलब्धियां बढ़ाकर 20,000 रुपये, 4 अगस्त, 1998 को इसे बढ़ाकर 50,000 रुपये और 10 जनवरी, 2008 को राष्ट्रपति की परिलब्धियों में एक बार फिर पुन: संशोधन करते हुए इसे बढ़ाकर 1.50 लाख रुपये प्रतिमाह कर दिया गया। यह वृद्धि जनवरी, 2006 से प्रभावी की गई है। राष्ट्रपति को पद त्याग देने के पश्चात् या पदावधि समाप्ति पर उनके वेतन का 50 प्रतिशत पेंशन का प्रावधान है। इस प्रकार पद विमुक्ति के पश्चात पूर्व राष्ट्रपति को 9,00,000 रुपये सालाना पेंशन देय है।
पूर्व राष्ट्रपति को एक अतिरिक्त निजी सचिव के अलावा एक कर्मचारी की सुविधा का प्रावधान है। उन्हें मोबाइल फोन, इंटरनेट और ब्रॉडबैंड का कनेक्शन भी उपलब्ध कराया जाएगा। उनके कार्यालय के रख-रखाव पर पूर्व में 12 हज़ार रुपये सालाना खर्च का प्रावधान था, जिसे बढ़ाकर अब 60,000 रुपये कर दिया गया है। पदावधि के दौरान राष्ट्रपति की मृत्यु हो जाने पर उनके परिवार को पारिवारिक पेंशन, सुसज्जित आवास, कर्मचारी, कार, टेलीफ़ोन, यात्रा और स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हैं। संविधान के अनुच्छेद 59 के अनुसार राष्ट्रपति की परिलब्धियां और उसके भत्ते उसके कार्यकाल में घटाये नहीं जा सकते। राष्ट्रपति के वेतन एवं भत्ते को आयकर से छूट प्राप्त हैं।
महाभियोग की प्रक्रिया
राष्ट्रपति को उसके पद से अनुच्छेद 61 के तहत महाभियोग की प्रक्रिया के द्वारा हटाया जा सकता है। राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग की प्रक्रिया तब संचालित की जा सकती है, जब उसने संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन किया हो। राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग चलाने का संकल्प संसद के किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है, लेकिन जिस सदन में महाभियोग का संकल्प पेश किया जाना हो, उसके एक चौथाई सदस्यों के द्वारा हस्ताक्षरित आरोप पत्र राष्ट्रपति को 14 दिन पूर्व दिया जाना आवश्यक है। राष्ट्रपति को आरोप पत्र दिये जाने के 14 दिन बाद ही सदन में महाभियोग का संकल्प पेश किया जा सकता है। जिस सदन में संकल्प पेश किया जाए, उसके सदस्य संख्या के बहुमत तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से संकल्प पारित किया जाना चाहिए।
जिस सदन में संकल्प पेश किया गया है, उसके द्वारा पारित किये जाने के बाद संकल्प दूसरे सदन को भेजा जाएगा और दूसरा सदन राष्ट्रपति पर लगाये गये आरोपों की जांच करेगा। जब दूसरा सदन राष्ट्रपति पर लगाये गये आरोपों की जांच कर रहा हो, तब राष्ट्रपति या तो स्वयं या तो अपने वकील के माध्यम से लगाये गये आरोपों के सम्बन्ध में अपना पक्ष प्रस्तुत करेगा और स्पष्टीकरण देगा। यदि दूसरा सदन राष्ट्रपति पर लगाये गये आरोपों को सही पाता है तथा अपनी संख्या के बहुमत से तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत पहले सदन द्वारा पारित संकल्प का अनुमोदन कर देता है, तो महाभियोग की कार्रवाई पूर्ण हो जाती है। इस प्रकार राष्ट्रपति अपना पद त्यागने के लिए बाध्य हो जाता है।
राष्ट्रपति के अंगरक्षक
राष्ट्रपति की सुरक्षा के लिए अंगरक्षकों की व्यवस्था है। इस अंगरक्षक दस्ते का गठन सर्वप्रथम 1773 में गवर्नर जनरल हेस्टिग्स ने बनारस में किया था। प्रारम्भ में इस दस्ते में 50 जवान और 50 घोड़े शामिल किये गये थे। वर्तमान में राष्ट्रपति के अंगरक्षक दस्ते में 4 अधिकारी, 14 जूनियर कमीशंड अधिकारी और 161 जवानों की टुकड़ी शामिल है। राष्ट्रपति के सुरक्षा बलों को 1784 तक गवर्नर जनरल का बॉडी गार्ड कहा जाता था। 1858 में इसे वायसराय का बॉडी गार्ड कहा जाने लगा। 1944 तक आते-आते इसका नाम '44वीं डिवीजन निगरानी स्कवॉड्रन' पड़ गया। 1947 में एक बार फिर इस दस्ते को 'गवर्नर जनरल बॉडी गार्ड' कहा जाने लगा। लेकिन 21 जनवरी, 1950 को भारत को गणतंत्र घोषित किये जाने के साथ ही इस दस्ते को 'राष्ट्रपति का अंगरक्षक' के रूप में नामांकित कर दिया गया। राष्ट्रपति के अंगरक्षक दस्ते के रेजीमेंट का रंग नीला और गाढ़ा लाल (मैरून) है। इस दस्ते का अमर वाक्य 'भारत माता की जय' है। वर्तमान में राष्ट्रपति के अंगरक्षक दस्ते में सिख, जाट और राजपूत सहित लगभग सभी रेजीमेंट के जवान और अधिकारी कार्यरत हैं।
शक्तियां तथा अधिकार
भारतीय संविधान द्वारा राष्ट्रपति को निम्नलिखित शक्तियां तथा अधिकार प्रदान किये गये हैं। संविधान के अनुच्छेद 73 के अनुसार संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित है और वह अपनी इस शक्ति का प्रयोग अपने अधीनस्थ प्राधिकारियों के माध्यम से करता है। यहां अधीनस्थ प्राधिकारी का तात्पर्य केन्द्रीय मंत्रिमण्डल से है। राष्ट्रपति की कार्यपालिका शक्तियों को निम्नलिखित तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है–
मंत्रिपरिषद का गठन
अनुच्छेद 74 के अनुसार राष्ट्रपति संघ की कार्यपालिका शक्ति के संचालन में सलाह देने के लिए मंत्रिपरिषद का गठन करता है, जिसका अध्यक्ष प्रधानमंत्री होता है। सामान्यत: राष्ट्रपति ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्त करता है जो कि लोकसभा में बहुमत दल का नेता हो। इस प्रकार नियुक्त किये गये प्रधानमंत्री की सलाह पर वह मंत्रिपरिषद के अन्य सदस्यों की नियुक्ति करता है। साथ ही वह प्रधानमंत्री की सलाह पर मंत्रिपरिषद के किसी सदस्य को बर्ख़ास्त भी कर सकता है।
नियुक्ति सम्बन्धी शक्ति
संविधान द्वारा राष्ट्रपति को यह शक्ति दी गई है कि वह संघ से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियां करें। राष्ट्रपति इस शक्ति के प्रयोग में कई पदाधिकारियों, जैसे-महान्यायवादी, नियंत्रक-महालेखा परीक्षक, वित्त आयोगों के सदस्यों, संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा अन्य सदस्यों, संयुक्त राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा अन्य सदस्यों, मुख्य निर्वाचन आयुक्त, अन्य निर्वाचन आयुक्तों, उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधाशों, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों, राष्ट्रीय महिला आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्षों तथा सदस्यों, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों, राज्यों के राज्यपालों, संघ राज्यक्षेत्रों के उपराज्यपालों या प्रशासकों की नियुक्ति कर सकता है। राष्ट्रपति ये नियुक्तियां मंत्रिपरिषद की सलाह से करता है। वह अपने द्वारा नियुक्त प्राधिकारियों तथा अधिकारियों को पदमुक्त कर सकता है।
आयोगों का गठन
राष्ट्रपति को आयोगों को गठित करने की शक्तियां भी प्रदान की गई हैं। यह भारत के राज्य क्षेत्र में सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग की दशाओं का अन्वेषण करने के लिए आयोग, राजभाषा पर प्रतिवेदन देने के लिए आयोग, अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन पर रिपोर्ट देने के लिए तथा राज्यों में अनुसूचित जनजातियों के कल्याण सम्बन्धी क्रियाकलापों पर रिपोर्ट देने के लिए आयोग का गठन कर सकता है।
सैनिक शक्ति
संघ के रक्षाबलों का समादेश राष्ट्रपति में निहित होता है। वह रक्षा बलों का प्रमुख होता है। राष्ट्रपति अपने में निहित रक्षा बलों का समादेश उस विधि के अनुसार प्रयुक्त करता है, जिसे संसद बनाये। वह रक्षा बलों के प्रमुखों को भी नियुक्त करता है।
राजनयिक शक्तियां
अन्य देशों के साथ में भारत का संव्यवहार राष्ट्रपति के नाम से किया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय मामलों में राष्ट्रपति भारत का प्रतिनिधित्व करता है। अन्य देशों में भेजे जाने वाले राजदूत तथा उच्चायुक्त राष्ट्रपति के द्वारा नियुक्त किए जाते हैं। साथ ही अन्य देशों से भारत में नियुक्ति पर आने वाले राजदूतों व उच्चायुक्तों का स्वागत भी राष्ट्रपति के द्वारा किया जाता है। जब अन्य देश के राजदूत या उच्चायुक्त भारत में नियुक्त होकर आते हैं तो वे अपना 'प्रत्यय पत्र' राष्ट्रपति के समक्ष पेश करते हैं। समस्त अंतर्राष्ट्रीय करार और सन्धियां राष्ट्रपति के नाम से की जाती हैं, लेकिन राष्ट्रपति अपनी राजनयिक शक्ति का प्रयोग मंत्रिपरिषद की सलाह पर करता है।
विधायी शक्तियां एवं कार्य
संविधान द्वारा राष्ट्रपति को व्यापक विधायी शक्तियां प्रदान की गयी हैं, जिन्हें निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है-
संसद से सम्बन्धित शक्ति : राष्ट्रपति संसद का अभिन्न अंग है, क्योंकि संसद का गठन राष्ट्रपति और लोकसभा तथा राज्यसभा से मिलकर होता है। संसद से सम्बन्धित राष्ट्रपति की शक्तियाँ निम्नलिखित हैं- अनुच्छेद 331 के तहत वह लोकसभा में आंग्ल-भारतीय समुदाय के दो सदस्यों को नामजद कर सकते हैं, यदि उनके विचार में लोकसभा में उस समुदाय को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। अनुच्छेद 80 (1) के तहत राष्ट्रपति राज्यसभा में 12 सदस्यों को मनोनीत कर सकते हैं। यदि संसद के किसी सदस्य की अयोग्यता के सम्बन्ध में, दल-बदल के आधार पर सवाल उत्पन्न होता है, तो उसका निर्णय राष्ट्रपति करेंगे, लेकिन राष्ट्रपति ऐसा निर्णय करने के लिए निर्वाचन आयोग की राय लेंगे।
राष्ट्रपति संसद के सत्र को आहूत करते हैं, लेकिन संसद के एक सत्र की अंतिम बैठक और आगामी सत्र की पहली बैठक के लिए नियत तारीख के बीच छह महीने का अन्तर नहीं होना चाहिए। वह सदनों या किसी सदन का सत्रावसान कर सकते हैं तथा लोकसभा का विघटन कर सकते हैं। वह संसद के किसी एक सदन में या संसद के संयुक्त अधिवेशन में अभिभाषण कर सकते हैं। संसद में लम्बित किसी विधेयक के सम्बन्ध में संसद के दोनों सदनों या किसी सदन को संदेश भेज सकते हैं और उनके संदेश पर यथाशीघ्र विचार किया जाता है। वह लोकसभा के प्रत्येक साधारण निर्वाचन के पश्चात् प्रथम सत्र के आरम्भ में और प्रत्येक वर्ष के प्रथम सत्र के आरम्भ में संसद के संयुक्त अधिवेशन में अभिभाषण कर सकते हैं।
संसद द्वारा कोई विधेयक पारित किये जाने पर उसे राष्ट्रपति के समक्ष अनुमति के लिए भेजा जाता है। राष्ट्रपति या तो उस पर अपनी अनुमति देते हैं या विधेयक पर पुन: विचार करने के लिए संसद को वापस भेजते हैं। यदि संसद द्वारा पुन: विधेयक पारित कर दिया जाता है तो राष्ट्रपति उस पर अपनी अनुमति देने के लिए बाध्य होते हैं।
विधेयक पेश करने की सिफारिश
निम्नलिखित विधेयक राष्ट्रपति की सिफारिश के बिना संसद में पेश नहीं किये जा सकते-
-धन विधेयक, लेकिन किसी कर को घटाने या समाप्त करने का प्रावधान करने वाले विधेयक राष्ट्रपति की सिफ़ारिश के बिना संसद में पेश किये जा सकते हैं।
-राज्य का निर्माण करने या विद्यमान राज्य के क्षेत्र, सीमा या नाम में परिवर्तन करने वाले विधेयक।
-जिस कराधान में राज्य का हित हो, उस कराधान पर प्रभाव डालने वाले विधेयक।
-जिस विधेयक को अधिनियमित और प्रवर्तित करने से भारत की संचित निधि से व्यय करना पड़ेगा, सम्बन्धी विधेयक।
-भूमि अधिग्रहण से सम्बन्धित विधेयक।
-व्यापार की स्वतंत्रता पर रोक लगाने वाले राज्य का कोई विधेयक।
राज्य विधान मंडल निर्मित कानून में राष्ट्रपति की शक्ति
-यदि राज्य विधान मण्डल कोई ऐसा विधेयक पारित करता है, जिससे उच्च न्यायालय की अधिकारिता प्रभावित होती है, तो राज्यपाल उस विधेयक पर अनुमति नहीं देगा और उसे राष्ट्रपति की अनुमति के लिए आरक्षित कर देगा।
-राज्य विधान मण्डल के द्वारा सम्पत्ति प्राप्त करने के लिए पारित विधेयक को राष्ट्रपति की अनुमति के लिए आरक्षित रखा जाएगा।
-किसी राज्य के अन्दर या दूसरे राज्यों के साथ व्यापार आदि पर प्रतिबन्ध लगाने वाले विधेयकों को विधानसभा में पेश करने के पहले राष्ट्रपति की अनुमति लेनी होगी।
-वित्तीय आपात स्थिति के प्रवर्तन की स्थिति में राष्ट्रपति निर्देश दे सकता है कि सभी धन विधेयकों को राज्य विधान सभा में पेश करने के पहले उस पर राष्ट्रपति की अनुमति ली जाए।
अध्यादेश जारी करने की शक्ति
संविधान के अनुच्छेद 123 के तहत राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति प्रदान की गयी है। राष्ट्रपति द्वारा जारी अध्यादेश का वही प्रभाव होता है, जो संसद द्वारा पारित तथा राष्ट्रपति के द्वारा अनुमोदित अधिनियम को होता है, लेकिन अन्तर यह होता है कि अधिनियम का प्रभाव तब तक स्थायी होता है, जब तक कि संसद के द्वारा या राष्ट्रपति के अध्यादेश द्वारा निरस्त न कर दिया जाए, इसके विपरीत अध्यादेश केवल 6 महीन तक ही वैध रहता है।
राष्ट्रपति के द्वारा अध्यादेश संसद के विश्रान्तिकाल में उस समय जारी किया जाता है, जब राष्ट्रपति को यह विश्वास हो जाए कि ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो गयी है, जिसके अनुसार अविलम्ब कार्रवाई करना जरूरी है। राष्ट्रपति के द्वारा जारी अध्यादेश का प्रभाव केवल 6 महीने तक ही रहता है। संसद द्वारा अनुमोदित किये जाने पर वह राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त करने के बाद अधिनियम हो जाता है। यदि संसद के अधिवेशन के प्रारम्भ के बाद पहले जारी किये गये अध्यादेश को संसद द्वारा अनुमोदित किये जाने के लिए 6 मास के अन्दर संसद में पेश नहीं किया जाता है, तो अध्यादेश प्रभावहीन हो जाता है। यदि संसद के एक सदन का सत्र चल रहा हो और दूसरे सदन का सत्र स्थगित हो, तब भी अध्यादेश जारी किया जा सकता है, क्योंकि संसद का एक सदन कोई विधेयक पारित कर उसे कानून बनाने के लिए सक्षम नहीं है।
राष्ट्रपति की वीटो शक्ति
संविधान द्वारा राष्ट्रपति को स्पष्टत: वीटो की शक्ति प्रदान नहीं की गयी है। लेकिन संविधान के अनुसार किये गये कार्यों तथा स्थापित परम्पराओं के अनुसार यह माना जाता है कि राष्ट्रपति को निम्नलिखित तीन प्रकार की वीटो शक्तियां प्राप्त हैं--
पूर्ण वीटो : जब राष्ट्रपति किसी विधेयक को अनुमति नहीं देता है तो यह कहा जाता है कि राष्ट्रपति ने पूर्ण वीटो की शक्ति का प्रयोग किया है। राष्ट्रपति इस वीटो की शक्ति का प्रयोग गैर सरकारी विधेयक पर अनुमति न प्रदान करके कर सकता है या ऐसे विधेयक पर अनुमति न प्रदान करके कर सकता है जो ऐसी सरकार के द्वारा पारित किया गया हो, जो विधेयक पर अनुमति देने के पूर्व ही त्याग पत्र दे दे और नई सरकार विधेयक पर अनुमति न देने की सिफारिश करे।
निलम्बनकारी वीटो : जब राष्ट्रपति किसी विधेयक के प्रभाव को निलम्बित रखने के लिए अनुमति देने हेतु अपने पास प्रेषित विधेयक को संसद के पास पुनर्विचार के लिए भेजता है, तो यह कहा जाता है कि उन्होंने निलम्बनकारी वीटो का प्रयोग किया है।
जेबी वीटो : इस पॉकेट वीटो भी कहा जाता है। जब राष्ट्रपति संसद द्वारा पारित करके अनुमति के लिए भेजे गए विधेयक पर न तो अनुमति देता है और न ही उसे पुनर्विचार के लिए वापस भेजता है तो यह कहा जाता है कि राष्ट्रपति ने जेबी या पॉकेट वीटो का प्रयोग किया है। इस वीटो का प्रयोग राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने 1986 में संसद द्वारा पारित भारतीय डाक (संशोधन) अधिनियम के सन्दर्भ में किया था। राष्ट्रपति ने न तो इस पर अपनी अनुमति दी और न ही इसे संसद के पास पुनर्विचार के लिए भेजा।
राष्ट्रपति की वित्तीय शक्तियां
राष्ट्रपति को संविधान द्वारा कई वित्तीय शक्तियां प्रदान की गयी हैं। धन विधेयक तथा वित्त विधेयक को तभी लोकसभा में पेश किया जाता है जब राष्ट्रपति उसकी सिफ़ारिश करे। जिस विधेयक को प्रवर्तित किये जाने पर भारत की संचित निधि में व्यय करना पड़े, उस विधेयक को संसद द्वारा तभी पारित किया जाएगा, जब राष्ट्रपति उस विधेयक पर विचार-विमर्श करने की सिफारिश संसद से करें। जिस कराधान में राज्य का हित सम्बद्ध है, उस कराधान से सम्बन्धित विधेयक को राष्ट्रपति की अनुमति से ही लोकसभा में पेश किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति प्रत्येक वर्ष वित्तमंत्री के माध्यम से वर्ष का बजट लोकसभा में पेश करवाता है तथा प्रत्येक पांच वर्ष की समाप्ति पर वित्त आयोग का गठन करता है। राष्ट्रपति वित्त आयोग द्वारा की गयी प्रत्येक सिफारिश को, उस पर किये गये स्पष्टीकरण ज्ञापन सहित संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखवाता है।
राष्ट्रपति की न्यायिक शक्तियां
न्यायाधीशों की नियुक्ति की शक्ति : अनुच्छेद 124 के अनुसार राष्ट्रपति को उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को नियुक्त करने की शक्ति है। उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति करने के लिए राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करेगा, जिनसे परामर्श करना वह जरूरी समझे। मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के पूर्व वह मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करेगा। लेकिन संविधान में स्पष्ट रूप से यह प्रावधान नहीं किया गया है कि राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश के परामर्श के लिए बाध्य होंगे या नहीं। लेकिन 6 अक्टूबर, 1993 को दिये गये एक निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश को ही देश का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया जाना चाहिए। उच्चतम न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की राय मानने के लिए बाध्य हैं। राष्ट्रपति उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों तथा अन्य न्यायाधीशों को नियुक्त करते हैं। उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को नियुक्त करते समय राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश तथा राज्य के राज्यपाल से परामर्श करते हैं, जबकि अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय वह भारत के मुख्य न्यायाधीश, राज्य के राज्यपाल तथा सम्बन्धित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करते हैं। 6 अक्टूबर, 1993 को दिये गये निर्णय के अनुसार राष्ट्रपति ऐसी नियुक्तियां करते समय भारत के मुख्य न्यायाधीशों की राय को वरीयता देने के लिए बाध्य हैं। राष्ट्रपति उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में स्थानान्तरण कर सकते हैं।
क्षमादान की शक्ति : संविधान के अनुच्छेद 72 के तहत राष्ट्रपति को क्षमा तथा कुछ मामलों में दण्डादेश के निलम्बन, परिहार या लघुकरण की शक्ति प्रदान की गयी है। क्षमा का तात्पर्य अपराध के दण्ड से मुक्ति प्रदान करना है। प्रतिलम्बन का तात्पर्य विधि द्वारा विहित दण्ड के स्थायी स्थगन से है। परिहार के अंतर्गत दण्ड की प्रकृति में परिवर्तन किए बिना दण्ड की मात्रा को कम किया जाना है। लघुकरण का अर्थ दण्ड की प्रकृति में परिवर्तन करना है। राष्ट्रपति अपनी इस शक्ति का प्रयोग मंत्रिपरिषद की सलाह पर करता है और राष्ट्रपति द्वारा यदि इस शक्ति का प्रयोग किया जाता है तो उसका न्यायिक पुनर्विलोकन न्यायालय द्वारा किया जा सकता है। राष्ट्रपति को निम्नलिखित मामले में क्षमा तथा दोषसिद्धि के निलम्बन की शक्ति प्राप्त है-
-सेना न्यायालयों के द्वारा दिये गये दण्ड के मामले में।
-मृत्युदंड के सभी मामलों में।
-उन सभी मामलों में, जिन्हें दण्ड या दण्डादेश ऐसे विषय सम्बन्धी किसी विधि के विरुद्ध अपराध के लिए दिया गया है, जिस विषय तक संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है।
उच्चतम न्यायालय से परामर्श का अधिकार : अनुच्छेद 143 के अनुसार जब राष्ट्रपति को ऐसा प्रतीत हो कि विधि या तथ्य का कोई ऐसा प्रश्न उत्पन्न हुआ है या उत्पन्न होने की सम्भावना है, जो ऐसी प्रकृति का और व्यापक महत्त्व का है कि उस पर उच्चतम न्यायालय की राय प्राप्त करना जरूरी है, तब वह उस प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय की राय मांग सकता है।
राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्ति
भारत के राष्ट्रपति को निम्नलिखित आपातकालीन शक्तियां प्रदान की गयी हैं -
-अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रीय आपातकाल घोषित करने की।
-अनुच्छेद 356 के तहत राज्यों में संवैधानिक तन्त्र की विफलता पर वहां आपातकाल घोषित करने की।
-अनुच्छेद 360 के तहत वित्तीय आपातकाल घोषित करने की।
राष्ट्रपति का विशेषाधिकार
संविधान द्वारा राष्ट्रपति को यह विशेषाधिकार प्रदान किया गया है कि वह अपने पद के किसी कर्तव्य के निर्वहन तथा शक्तियों के प्रयोग में किये जाने वाले किसी कार्य के लिए न्यायालय के प्रति उत्तरदायी नहीं होगा।
संवैधानिक स्थिति
संविधान की भावना तथा संविधान सभा में इसके सदस्यों द्वारा किये गये विचारों के अनुसार राष्ट्रपति राष्ट्र का औपचारिक प्रधान होगा, लेकिन मूल संविधान के अनुच्छेद 74 (1) में यह प्रावधान किया गया था कि राष्ट्रपति को उसके कृत्यों का प्रयोग करने में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी, जिसका प्रधान प्रधानमंत्री होगा। इसका यह अर्थ लगाया जाता था कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं है और वह अपने विवेक से भी संविधान के प्रावधानों के अनुसार अपने कृत्यों का निर्वहन कर सकता है। इसी प्रावधान के कारण प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू तथा तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के बीच हिन्दू आचार संहिता तथा चीन से सम्बन्ध आदि मामलों में काफी मतभेद था, जिससे दोनों के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गयी थी। इसके बावजूद 1976 तक संविधान के इस प्रावधान को कायम रखा गया, परन्तु 42वें संविधान संशोधन के द्वारा अनुच्छेद 74 (1) में संशोधन करके यह व्यवस्था की गयी कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार ही कार्य करेगा और इस प्रकार राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य कर दिया गया। किन्तु 44वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 74 (1) में यह व्यवस्था कर दी गयी कि यदि राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद द्वारा कोई सलाह दी जाती है तो वह मंत्रिपरिषद की दी गयी सलाह पर पुनर्विचार करने के लिए कह सकता है। इस प्रकार मंत्रिपरिषद द्वारा पुनर्विचार के बाद की गयी सलाह पर राष्ट्रपति कार्य करने के लिए बाध्य है।