संसदीय राजनीति का वो दौर जब अटल...
सत्ता विमर्श ब्यूरो
इसमें कोई दो-राय नहीं कि देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) से अपनी राजनीतिक जीवन यात्रा की शुरुआत की थी और डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जनसंघ बनाते वक्त जिन तीन-चार लोगों को संघ से लिया था उनमें से वाजपेयी एक थे। वाजपेयी के बारे में यह भी कहा जाता है कि वे संघ के अनुशासन को भले ही मानते रहे, लेकिन उनके विचारों की दुनिया में हमेशा खुली हवा का खास स्थान रहा। इसलिए वाजपेयी आरएसएस के पसंदीदा नेताओं में से कभी नहीं रहे।
साल 1996 में जब 13 दिन की सरकार के विश्वास मत पर प्रधानमंत्री के तौर पर अटल बिहारी वाजपेयी लोकसभा में बोल रहे थे, 'अध्यक्ष महोदय, कमर के नीचे वार नहीं होना चाहिए। नीयत पर शक नहीं होना चाहिए। मैंने यह खेल नहीं किया है। मैं आगे भी नहीं करूंगा। जब मैं राजनीति में आया, मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं एमपी बनूंगा। मैं पत्रकार था और यह राजनीति, जिस तरह की राजनीति चल रही है, मुझे रास नहीं आती। मैं तो छोड़ना चाहता हूं, मगर राजनीति मुझे नहीं छोड़ती है। फिर भी मैं विरोधी दल का नेता हुआ, आज प्रधानमंत्री हूं और थोड़ी देर बाद प्रधानमंत्री भी नहीं रहूंगा। प्रधानमंत्री बनते समय मेरा हृदय आनंद से उछलने लगा हो, ऐसा नहीं हुआ। जब मैं सब कुछ छोड़-छाड़ चला जाऊंगा, तब भी मेरे मन में किसी तरह का मलाल होगा, ऐसा होने वाला नहीं है।'
जिस समय वाजपेयी का भाषण चल रहा था, संसद से बाहर और संसद में बैठे लोगों की धड़कनें बढ़ी हुई थी। पूरा देश सांस रोक कर वाजपेयी को सुन रहा था, देख रहा था टीवी पर केंद्र में पहली बार बनी भाजपा सरकार को गिरते हुए। याद नहीं आता कोई ऐसा दूसरा विश्वास मत का भाषण। एक ईमानदार राजनीति की कोशिश जो अब सोच पाना भी मुमकिन नहीं लगता। वाजपेयी की यह खूबी ही उन्हें भारतीय राजनीति सबमें सबसे अधिक लोकप्रिय बनाती है, औरों से अलग करती है। अटल जी की राजनीति की सबसे खास बात यह रही कि वे खुद को कभी पार्टी से बड़ा नहीं मानते थे।
याद करें, 1984 के लोकसभा चुनावों में भाजपा की करारी हार के बाद का परिदृश्य जब संघ परिवार को वाजपेयी के खिलाफ खड़े होने का मौका मिल गया था। संघ नेताओं ने वाजपेयी की जगह 1986 में लाल कृष्ण आडवाणी को पार्टी का अध्यक्ष बना दिया था। फिर राम मंदिर निर्माण आंदोलन के बाद आडवाणी की लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से बढ़ा। वाजपेयी अयोध्या के लिए रथयात्रा के खिलाफ थे। यह नाराज़गी उन्होंने ज़ाहिर भी की, लेकिन जब पार्टी ने फैसला कर लिया तो वाजपेयी ने ही दिल्ली में आडवाणी की रथयात्रा को हरी झंडी दिखाई थी। कहने का मतलब यह कि पार्टी के प्रति अनुशासन का भाव उनमें हमेशा दिखा। वे खुद को कभी पार्टी से बड़ा नहीं मानते थे।
संसदीय राजनीति के उस दौर की बात करें जब अटल बिहारी वाजपेयी साल 1957 के लोकसभा चुनावों में पहली बार उत्तर प्रदेश की बलरामपुर लोकसभा सीट से जनसंघ के प्रत्याशी के रूप में विजयी होकर लोकसभा में पहुंचे थे। अटल जी 1957 से 1977 तक लगातार जनसंघ की और से संसदीय दल के नेता रहे। इस दौरान अटल जी ने अपने ओजस्वी भाषणों से देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू तक को प्रभावित किया। एक बार अटल बिहारी वाजपेयी के संसद में दिए ओजस्वी भाषण को सुनकर पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उनको भविष्य का प्रधानमंत्री तक बता दिया था और आगे चलकर पंडित जवाहर लाल नेहरू की भविष्यवाणी सच साबित हुई।
अटल बिहारी वाजपेयी का व्यक्तित्व बहुत ही मिलनसार रहा। उनके विपक्ष के साथ भी हमेशा सम्बन्ध मधुर रहे। 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में जीत के साथ बांग्लादेश को आजाद कराकर पाकिस्तान के 93 हजार सैनिकों को घुटनों के बल भारत की सेना के सामने आत्मसमर्पण करवाने वाली देश की प्रथम महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद में दुर्गा की उपमा से नवाजा था। अटल बिहारी वाजपेयी जब संसद में बोलते थे तब वह यह नहीं सोचते थे कि जनसंघ के नेता हैं, भाजपा के नेता हैं या प्रधानमंत्री की हैसियत से बोल रहे हैं। उनके संबोधन में हमेशा देश की अस्मिता सबसे ऊपर रही।
भारतीय राजनीति के युगपुरुष, श्रेष्ठ राजनीतिज्ञ, संवेदनशील मानव, राष्ट्रप्रहरी पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी का आज (25 दिसम्बर 2016) को 92वां जन्मदिवस है। इस अवसर पर पूरा देश सिर्फ यही प्रार्थना करता है है कि ईश्वर अटल बिहारी वाजपेयी को अपने आशीर्वाद से स्वस्थ्य रखे। इस वक्त उनकी वही कविता बार-बार याद आती है....
गीत नहीं गाता हूं।
बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूं
गीत नहीं गाता हूं।
लगी कुछ ऐसी नजर,
बिखरा शीशे सा शहर,
अपनों के मेले में मीत नहीं पता हूं।
गीत नहीं गाता हूं।
पीठ पर छुरी चांद,
राहु गया रेखा फांद,
मुक्ति के क्षणों में बार-बार बंध जाता हूं
गीत नहीं गाता हूं।
टूटे हुए तारों से, फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात, कोयल की कुहुक रात
प्राची में अरूणिमा की रेत देख पाता हूं।
गीत नया गाता हूं।
टूटे हुए सपने की सुने कौन सिसकी,
अन्तः को चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी,
हार नहीं मानूंगा,
रार नई ठानूंगा,
काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूं।
गीत नया गाता हूं।