70 की सोनिया क्या अब बेटे को सौंपेंगी कमान?
किरण राय
ये 9 दिसंबर 2012 की बात है। सोनिया का जन्मदिन था। तब सोनिया ने पार्टी नेताओं से कहा था कि 70 के बाद वो अध्यक्ष पद पर रहने की इच्छा नहीं रखतीं। सब जानते हैं कि इसके बाद कमान किसके हाथ में जाना तय है। पार्टी जानती थी कि सोनिया का अचानक लिया ये फैसला पार्टी को नुकसान पहुंचा देगा। उससे पहले चीजों को मैनेज करना जरूरी होगा नहीं तो पार्टी का हश्र वही होगा जो नरसिम्हा राव और सीताराम केसरी के वक्त हुआ था।
इसका ही नतीजा था कि जनवरी 2013 में पार्टी का उपाध्यक्ष उनके सुपुत्र राहुल गांधी को बना दिया गया। इससे स्पष्ट था कि अगले अध्यक्ष के तौर पर ताजपोशी किसकी होगी। हालांकि पार्टी इस बात से इंकार करती रही। सबको इंतजार है कि सोनिया जल्द बेटे के हाथ कमान सौंपेगी। इसकी तस्दीक पार्टी की कार्यकारी समिति की बैठक से भी होती है। जिसमें पार्टी ने फैसला लिया कि राहुल के कद को बढ़ाने के लिए आलाकमान से दरख्वास्त की जाएगी। कह सकते हैं कि मंच तैयार है, ऐलान किसी भी वक्त मुमकिन है।
निस्संदेह सोनिया बतौर मार्गदर्शक पार्टी की दशा और दिशा तय करेंगी। परामर्शदाता की भूमिका भी अदा करेंगी ताकि बेटे की राह से कांटे चुन सकें। ऐसे कई मौके आयें हैं जब राहुल के बयानों को लेकर पार्टी के भीतर और बाहर बहुत कुछ कहा सुना गया है। अपने नए किरदार में मां सोनिया यकीनन बेटे के खिलाफ माहौल को पनपने रोकेंगी और नजर रखेंगी ताकि गांधी परिवार की विरासत आगे बढ़ाते हुए उन्हें किसी भी तरह की बगावत का सामना ना करना पड़े। वाकई सत्तर की सोनिया के सामने चुनौती गंभीर है। ठीक वैसी ही जैसी 1997 में थी।
1997 में पार्टी क्राइसिस से गुजर रही थी। सीताराम केसरी का नेतृत्व कईयों को रास नहीं आ रहा था। उनकी मनमानी चरम पर थी। पार्टी में आत्मविश्वास और विश्वसनीयता दोनों की कमी दिख रही थी। 1996 के आम चुनाव में कांग्रेस पटखनी खा चुकी थी। माधवराव सिंधिया, पी चिदंबरम, ममता बैनर्जी जैसे दिग्गज पार्टी से बगावत कर अलग हो चुके थे। ऐसा लग रहा था कि कांग्रेस अब कभी निखर और संवर नहीं पायेगी। ऐसे में ही सोनिया को पुकारा गया और उन्होंने कांग्रेस की विधिवत सदस्यता ले ली। इसके एक साल बाद यानी 1998 में उनको अध्यक्ष के तौर नियुक्त कर लिया गया। तब से अब तक सोनिया को कोई हटा नहीं पाया।
उनकी भाषा उऩके विदेशी मूल को पार्टी के भीतर और बाहर दोनो जगह उठाया गया, मुद्दा बनाया गया और सार्वजनिक तौर पर भुनाने के लिए काफी उछाला गया। लेकिन सोनिया ने काफी मेहनत करके विरासत को सहेजने और संजोने का प्रयास किया। उनके शुरु के दिन में हिन्दी भाषा को लेकर तंज कसे गए तब भी उन्होंने हार नहीं मानी। अपने पहनावे और अंदाज से लोगों को अपनी सास और देश की प्रथम महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की याद दिलायी।
1999 में पार्टी को उतनी सीटें नहीं मिली जिसकी अपेक्षा थी। पार्टी को पिछले चुनाव के मुकाबले 37 सीटें कम मिली और आंकड़ा 114 पर सिमट गया। सोनिया के परिश्रम में कोई कमी नहीं थी। तभी पार्टी का एक धड़े को लगने लगा कि अब समय आ गया है कि बेटी प्रियंका गांधी को कमान सौंप दी जाए क्योंकि सोनिया की विदेशी छवि से लोग खुद को कनेक्ट नहीं कर पा रहें हैं। लेकिन सोनिया की राजनीतिक समझ की मिसाल यहीं से मिलती है। उन्होंने खामोश होकर आलोचनाओं का सामना किया और अगले चुनाव में गठबंधन के जरिए पार्टी की नईया पार लगवाई। सालों पुराने पार्टी के एकला चलो वाले मंत्र से किनारा किया।
सास की तर्ज पर गरीबों की सुध लेने का भरोसा दिया। और नया नारा दिया कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ। सोनिया की अध्यक्षता में यूपीए का गठन हुआ और 2004 और 2009 में इस गठबंधन की सरकार बनी। तब भी सोनिया ने अपनी सूझबूझ का परिचय दिया और काफी कहने के बाद भी प्रधानमंत्री पद का ऑफर स्वीकार नहीं किया और अपनी तरफ से मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद के लिए मनोनीत किया।
मनमोहन सरकार के दौरान सोनिया ने अपनी कई परियोजनाओं को मूर्त रूप दिलाने में अहम भूमिका निभाई। इसमें रोजगार गारंटी योजना, शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार जैसी महत्वाकांक्षी योजनायें शामिल थीं। हालांकि सोनिया पर मनमोहन को कठपुतली की तरह नचाने का आरोप भी लगा। नतीजतन 2009 के बाद भ्रष्टाचार, कई घोटालों की छाया पड़ी और 2014 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस महज 44 सीटों पर सिमट गई। ये ऐसी शर्मनाक हार है जिससे कांग्रेस जूझ रही है।
सोनिया पर इल्जाम है कि वो पार्टी को एक संगठन के तौर पर बरकरार रखने में नाकामयाब रही। उन्होंने बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे प्रदेशों में पार्टी को मजबूत करने के लिए कुछ खास नहीं किया। यहां अब भी क्षेत्रिय पार्टियों का वर्चस्व है। वहीं छत्तीसगढ़, गुजरात और मध्यप्रदेश जैसे प्रदेशों में भाजपा को भी चुनौती देने में नाकाम रही। सोनिया पर सबसे बड़ा आरोप अपने बेटे को लेकर अति आत्मविश्वास का है। उन्होंने बेटे को पहले 2004 में बतौर सांसद स्थापित किया। फिर 2007 में उन्हें पार्टी का महासचिव बनाया और 2013 में उपाध्यक्ष पद की कमान सौंप दी। हालांकि पार्टी राहुल की अगुवाई में कुछ खास नही कर पाई है।
अब सालों बाद बेटे के सामने वही स्थिति है जो मां के सामने थी। पार्टी बिखर रही है। अगर ध्यान से देखें तो, स्थिति उससे भी ज्यादा विकट है। कई प्रदेशों में तो पार्टी का सूपड़ा ही साफ हो गया है। नेताओं में वो करिज्मा नहीं है जो लोगों को आकर्षित कर पाये। विश्वसनीयता लौटना और पार्टी की साख को बनाना ये कुछ ऐसी चुनौतियां हैं जो राहुल को अपनी मां से विरासत में मिलेंगे। उनके कंधों पर जिम्मेदारी और ज्यादा होगी। कभी भारतीय राजनीति का चेहरा रहे पार्टी के पास कई राज्यों में कोई चेहरा नहीं है।
कांग्रेस अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। हालांकि यही बुरा दौर एक उम्मीद भी लेकर आया है। क्योंकि कांग्रेस के पास अब खोने को कुछ नहीं है बल्कि पाने को बहुत कुछ है। राहुल मेहनत भी कर रहें हैं और पार्टी के निचले स्तर के कार्यकर्ताओं से भी जुड़ रहें हैं। वो जनाधार बढ़ाने के लिए किसानों, बुनकरों, मजदूरों से भी बात कर रहें हैं। उनकी सुध ले रहें हैं। सोनिया की तरह उन्हें भी आलोचनाओं का शिकार होना पड़ रहा है। कोई उन्हें अमूल बेबी, कोई शहजादा, कोई युवराज तो कोई पप्पू तक कह रहा है।
इस बीच संसद में कभी मोबाइल से खेलते तो कभी सोते और कभी खामोश बैठे राहुल की सोशल मीडिया पर भी काफी खिंचाई हुई है। वो मनमोहन सरकार के दौरान भी गलत खबरों के कारण सुर्खियों में रहे। लेकिन अब वो भी खुद को बदलने की कोशिश में जुटे हैं। यही वजह है कि वो मुखर हो रहें हैं। मीडिया से बच रहें हैं और मौका लगने पर मोदी सरकार को सूट-बूट की सरकार जैसे लोकलुभावन नारे भी लगा रहें हैं। सोनिया ने जिन परेशानियों, जिन चुनौतियों का सामना किया आज ठीक वैसी ही चुनौती राहुल के सामने भी है। सवाल राहुल की अपरिपक्वता को लेकर भी हैं। ऐसे में लोगों को संशय है कि इन अपनी सेहत से परेशान सोनिया क्या बेटे को अध्यक्ष पद की कुर्सी सौंपेगी? क्योंकि अब अगर कांग्रेस चुनावों में बेहतर नहीं कर पाती है तो मार्गदर्शक मां और उपाध्यक्ष बेटे पर संयुक्त जिम्मेदारी नहीं होगी बल्कि अकेले बेटे को ही सब झेलना पड़ेगा।