यह 'राजनीतिक बेईमानी' की पराकाष्ठा है
किरण राय
युवा जोश की युवा सोच के जरिये विकास की राजनीति करने का दावा करने वाली उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार और उनके पिता-चाचा मुलायम-शिवपाल का समाजवादी कुनबा बिखराव की कगार पर आ खड़ा हुआ है। सत्ता और संगठन के बीच छिड़ी यह जंग उत्तर प्रदेश की राजनीति को किस ओर ले जाएगी, यह कहना मुश्किल है, लेकिन इसमें कोई दो-राय नहीं कि यह राजनीति का धर्म कतई नहीं है। यह तो राजनीतिक बेईमानी की पराकाष्ठा है जिसमें जनता खुद को ठगा सा महसूस कर रही है। इससे यह साफ हो गया कि सूबे में जिस सरकार को जनता साढ़े चार साल से अधिक समय से झेलती आ रही है, दरअसल वह जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा नहीं बल्कि राजनीति के बेईमान लोगों का, राजनीति के बेईमान लोगों के लिए और राजनीतिक के बेईमान लोगों द्वारा चलाया जा रहा शासन है जिसने समाजवादी कुनबे रूपी शतरंज की बिसात पर सिर्फ शह और मात का खेल खेला। और अब जब प्रदेश चुनाव की देहरी पर खड़ा है तो शह और मात का यह खेल जनता के सामने खुलकर आ गया है। अब जनता जनार्दन को तय करना है कि इस राजनीतिक बेईमानी का क्या दंड होना चाहिए।
उत्तर प्रदेश में सत्ता और संगठन के बीच छिड़ी जंग से साफ-साफ संकेत मिल रहे हैं कि अखिलेश और राम गोपाल नई पार्टी बना सकते हैं क्योंकि उनके समर्थकों को समाजवादी पार्टी का टिकट और चुनाव चिह्न मिलने की सारी संभावनाएं लगभग खत्म हो चुकी हैं। एक बाहरी व्यक्ति (अमर सिंह) को सारे फसाद की जड़ बताकर अखिलेश कम से कम अपने और मुलायम के बीच कोई विवाद न होने का संकेत देना चाह रहे हैं। भाजपा से नजदीकियों पर राम गोपाल जिस तरह से स्पष्टीकरण दे रहे हैं उससे इस बखेड़े के पीछे भाजपा की भूमिका से भी इंकार नहीं किया जा सकता है। इस बीच अखिलेश यह सिद्ध करना चाहेंगे कि वे शिवपाल और अमर सिंह के समर्थकों के बिना भी सरकार का कार्यकाल पूरा कर सकते हैं। दिवाली के ठीक बाद चुनाव की तारीखें घोषित की जा सकती हैं। तो माना यह भी जा रहा है कि आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू होने से पहले अखिलेश मतदाताओं को लुभाने के लिए ढेर सारी घोषणाएं भी कर सकते हैं। इस बीच मुलायम राष्ट्रीय लोकदल के नेता अजित सिंह से गठबंधन पर बात कर रहे हैं।
तो कहने का मतलब यह कि एक तरफ समाजवादी पार्टी के गुंडे और बदमाशों ने सरकार के पूरे कार्यकाल में जमकर लूट खसोट मचाई, प्रदेश में अराजकता फैलाई और दूसरी ओर अखिलेश सरकार हाथ पर हाथ रखकर देखती रही। अब वही संगठन और वही सत्ता समाजवादी कुनबे और सरकार की जंग को इतना प्रचारित और प्रसारित करके पेश कर रहे हैं कि जनता के असली मुद्दे गुम से हो गए हैं। और इन मुद्दों को दबाने में मीडिया खासकर टीवी मीडिया बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रही है। दरअसल इस टीवी मीडिया को स्कूप चाहिए जो टीआरपी देती है और सत्ता-संगठन की इस जंग से उसका यह हित सध रहा है। तो कुल मिलाकर सत्ता, संगठन और मीडिया की यह तिकड़ी जिस जनता की बुनियाद पर खड़ी है वह इस तरह की चाल चले तो इसे राजनीतिक बेईमानी की पराकाष्ठा न कहें तो और क्या कहें?