विधानसभा चुनाव परिणाम भाजपा के लिए खतरे की घंटी
प्रवीण कुमार
महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा चुनाव समेत 17 राज्यों की 51 सीटों पर उपचुनाव के जो परिणाम सामने आए हैं वह केंद्र समेत अधिकांश राज्यों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के लिए सबक भी है और आने वाले वक्त में खतरे की घंटी भी।
सबसे पहले एक नजर चुनाव के परिणामों पर डालते हैं। 17 राज्यों की 51 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव परिणामों की बात करें तो भाजपा को इन राज्यों में नुकसान झेलना पड़ा है। इन राज्यों में भाजपा के पास 17 सीटें थी लेकिन उपचुनाव में पार्टी को दो सीटों का नुकसान झेलकर 15 सीटें ही हाथ आईं। जबकि कांग्रेस का आंकड़ा 11 से 12 हो गया। सपा की सीटें एक से बढ़कर तीन हो गईं। महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव की बात करें तो दोनों ही राज्यों में भाजपा का ग्राफ इतना नीचे गिरा है जिसकी पार्टी को उम्मीद नहीं थी। हरियाणा में भाजपा ने मिशन-75 का लक्ष्य रखा था वहीं महाराष्ट्र में 250 सीटें जीतने का दावा किया था। लेकिन जब परिणाम सामने आया तो हरियाणा में बहुमत से 6 सीटें कम 40 और महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना (105+56) गठबंधन को 161 सीटों से संतोष करना पड़ा। 2014 के आंकड़ों की बात करें तो तब महाराष्ट्र में भाजपा को 122 और शिवसेना को 63 सीटें मिली थीं। इसी प्रकार से हरियाणा में भाजपा को 47 सीटें मिली थी। मतलब इस चुनाव में भाजपा को महाराष्ट्र में 17 और हरियाणा में सात सीटों का सीधे-सीधे नुकसान हुआ है। शिवसेना को भी सात सीटों का नुकसान झेलना पड़ा है। अब सवाल यह उठता है कि लोकसभा चुनाव 2019 में प्रचंड बहुमत से जीतने वाली भाजपा छह महीने में इतना कमजोर कैसे हो गई? इस अहम बदलाव को भाजपा किस रूप से देखती है यह तो हम नहीं बता सकते, लेकिन चुनावी परिणाम के आंकड़ों और राजनीतिक हालातों से कुछ ऐसी बातें उभरकर सामने आईं हैं जो निश्चित रूप से चौंकाने वाली हैं।
मंदी और बेरोजगारी, किसानों की आत्महत्या, पीएमसी घोटाला और आरे विवाद, अति राष्ट्रवाद को चुनाव में मुद्दा बनाना, स्थानीय मुद्दों की अनदेखी, दलबदलुओं को टिकट और भाजपा के चाणक्य अमित शाह की दोहरी भूमिका ऐस मुद्दे रहे जिसकी वजह से भाजपा को इस चुनाव में झटका लगा है। हरियाणा में भाजपा ने मिशन-75 का लक्ष्य रखा था वहीं महाराष्ट्र में 250 सीटें जीतने का दावा किया था। लेकिन इसी अति आत्मविश्वास में पार्टी ने तमाम मुद्दों को इग्नोर कर दिया। मंदी, बेरोजगारी और किसानों की समस्या को कमतर आंककर आम चुनाव के पैटर्न पर उम्मीद जताई गई कि अंत में लोग इन मुद्दों को भुलाकर राष्ट्रवाद के नाम पर भारी जीत दिलाएंगे। लेकिन जमीन पर ऐसा हुआ नहीं। महाराष्ट्र में वह क्षेत्र जहां ऑटो सेक्टर में आई मंदी का सबसे अधिक प्रभाव दिखा वहां भाजपा को बड़ी हार मिली। हरियाणा में ऐसे क्षेत्रों में जहां पार्टी ने आम चुनाव में 65 फीसदी तक वोट पाए वहां 30 फीसदी तक वोट महज छह महीनों में ही गिर गया। इन दोनों ही राज्यों के चुनावों में अनुच्छेद 370 को भाजपा ने सबसे बड़ा मुद्दा बनाया था। महाराष्ट्र में तो सावरकर को भारत रत्न देने का मुद्दा भी उछाला था और स्थानीय नेता तक इस मुद्दे पर वोट मांगते दिखे। लेकिन इन मुद्दों को मतदाताओं ने खारिज कर दिया।
दलबदलुओं को भी दोनों राज्यों के विधानसभा चुनाव और कई राज्यों के उपचुनावों में हार का मुंह देखना पड़ा। हरियाणा में इंनेलो से कई ऐसे नेता पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल होकर चुनाव लड़े और हार गए। महाराष्ट्र में लोकसभा उपचुनाव में उदयनराजे भोसले और गुजरात विधानसभा उपचुनाव में अल्पेश ठाकोर का हारना इस तथ्य की ओर इंगित करता है। मराठा राजा शिवाजी के वंशज उदयनराजे भोसले ने पिछले महीने एनसीपी का दामन छोड़ दिया था और भाजपा में शामिल होने के लिए उन्हें अपनी लोकसभा सीट खाली करनी पड़ी थी। और जब सतारा में उपचुनाव हुआ तो मतदाताओं ने एनसीपी के श्रीनिवास पाटिल को जिताकर भोसले को बाहर का रास्ता दिखा दिया। इसी प्रकार से भाजपा के ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर को राधनपुर सीट से हार का मुंह देखना पड़ा। 2017 में अल्पेश ने कांग्रेस के टिकट पर यह सीट जीती थी। हाल में वह भाजपा में शामिल हो गए थे। अल्पेश के करीबी धवलसिंह झाला को भी बायड़ विधानसभा सीट से हाथ धोना पड़ा।
आपको याद हो तो आम चुनाव से ठीक पहले पुलवामा हमले के बाद भारत की ओर से किए गए एयर स्ट्राइक से पूरा चुनावी माहौल बदल गया था। मोदी की अगुवाई में भाजपा की बड़ी जीत के पीछे इसे बड़ा कारण बताया गया था। जम्मू-कश्मीर में धारा 370 को हटाने के फैसले के बाद ऐसी ही जीत की उम्मीद इन दो राज्यों में थी। क्योंकि धारा 370, तीन तलाक जैसे भावनात्मक मुद्दों पर ऐतिहासिक फैसले के बाद यह पहला चुनाव था। इससे पहले चूंकि भाजपा का स्थानीय चुनावों में राष्ट्रीय और भावनात्मक मुद्दों पर जीतने का रिकॉर्ड था। उसके ऊपर से जब विपक्ष पहले से ही पस्त और बिखरी नजर आ रही थी, भाजपा के लिए बड़ी जीत की बात लोग परिणाम आने से पहले ही करने लगे थे। एग्जिट पोल में भी दोनों राज्यों में भाजपा की बड़ी जीत का दावा किया गया था। राष्ट्रीय और राष्ट्रवाद के मुद्दों को लेकर भाजपा अति आत्मविश्वास में डूब गई और इस चक्कर में पार्टी ने दूसरे अहम व स्थानीय मुद्दों को इग्नोर कर दिया। परिणाम सबके सामने है।
भाजपा को लेकर एक और जो अहम वजह इस चुनावी नतीजे के बताए जा रहे हैं वह है, क्या भाजपा के चाणक्य अमित शाह के सरकार में चले जाने की वजह से पार्टी को नुकसान तो नहीं झेलना पड़ा है। बतौर गृह मंत्री अमित शाह पहले दिन से ही काफी सक्रिया हो गए थे जैसे पहले वह पार्टी हुआ करते थे। एक के बाद एक वो कई फैसले ले रहे थे। कम समय में केंद्र की मोदी सरकार ने ऐतिहासिक फैसला लेते हुए जम्मू-कश्मीर को विशेषाधिकार देने वाले अनुच्छेद 370 को खत्म कर दिया। यह एक ऐसा फैसला था जिसको लेकर भाजपा लंबे समय से अपने चुनावी घोषणा पत्र में वादा तो करती आ रही थी लेकिन पूरा नहीं कर पाई थी। अनुच्छेद 370 को समाप्त करना ही नहीं बल्कि उसके बाद हालात को संभालना भी एक बड़ी चुनौती थी। इसके अलावा ट्रिपल तलाक और एनआरसी पर भी सरकार की ओर से अहम फैसला लिया गया। यह भी अमित शाह की सक्रियता का ही नतीजा था। इन तमाम ऐतिहासिक फैसलों को अमलीजामा पहनाने की वजह से शाह इन दोनों राज्यों के चुनाव में समय नहीं दे पाए। हालांकि यह चुनाव परिणाम को लेकर एक तरह का अनुमान है, एक विश्लेषण है।
बहरहाल, चुनाव परिणाम आ चुके हैं। हरियाणा में भाजपा ने उस जननायक जनता पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाई है जो उसके खिलाफ चुनाव मैदान में थी। कहने का मतलब यह कि सिद्धांतों और विचारधारा की राजनीति करने वाली भाजपा ने यहां सत्ता के लिए समझौता किया है। दूसरी तरफ महाराष्ट्र में कुर्सी की जंग अभी जारी है। यहां भी सत्ता के लिए शिवसेना और भाजपा में जिस तरह की जंग छिड़ी हुई है, जाहिर करता है कि राजनीति अब जनता के लिए नहीं बल्कि सत्ता के लिए है। हालांकि यह चुनाव क्या भाजपा, क्या कांग्रेस, देश के तमाम राजनीतिक दलों के लिए संकेत है, एक सबक है कि जनता अब अपनी लड़ाई लड़ने खुद मैदान में उतर चुकी है। उसे समझ में आ गया है कि सत्ता में बैठी पार्टी भावनात्मक मुद्दों में उलझाकर उसके असली मुद्दों से ध्यान भटका रही है और उसके असली मुद्दों के लिए विपक्ष में बैठी पार्टियां जब उसकी लड़ाई नहीं लड़ पा रही है तो फिर रास्ता क्या बचता है। यही कि वो अपनी लड़ाई खुद लड़े और इसका आगाज हरियाणा, महाराष्ट्र चुनाव और 17 राज्यों के उपचुनावों के परिणामों से हो चुका है। आगामी चुनावों में यह लड़ाई और तेज होगी।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक टिप्पणीकार हैं।)