लोकतंत्र या कुलीन तंत्र
कृष्ण किशोर पांडेय
लोकतंत्र असल में उन सभ्य लोगों का शासन तंत्र है जो आम सहमति से निर्णय लेने और प्रशासन चलाने में भरोसा रखते हैं। लोकतंत्र का सबसे पहल प्रयोग बिहार के वैशाली में हुआ था जहां लिच्छवियों ने आपसी सहमति से सरकार बनाने और चलाने की परंपरा विकसित की थी। स्वयं भगवान बुद्ध वहां जा चुके थे और उन्होंने उस प्रणाली की तारीफ भी की थी। लेकिन गंगा के दूसरे किनारे पर जो मगध सम्राज्य था उसे लिच्छवियों का वह गणतंत्र रास नहीं आ रहा था। उनके दिमाग में जो राजा और प्रजा की अवधारणा थी वह लिच्छवियों के गणतंत्र में समाप्त कर दी गई थी। इसीलिए मगध साम्राज्य ने हमला करके इन लिच्छवियों के उस लोकतंत्र या गणतंत्र को तहस-नहस कर दिया। यह ईसा पूर्व 300 वर्षों से भी ज्यादा की कहानी है। उसके बाद से लेकर द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत तक यानी लगभग 2250 वर्षों तक राजा और प्रजा की अवधारणा पुष्ट होती रही। इसके लिए बड़े-बड़े युद्ध हुए, भीषण रक्तपात, आम जनता की तबाही, लूटपाट और जनता को दहला देने वाली हजारों घटनाएं पूरी दुनिया में हुई। झगड़ा सिर्फ एक बात का था कि कौन शासन करेगा और कौन शासित होगा। शासन करने वालों का एक अलग वर्ग बन गया जो आपस में लड़ने और मरने मारने को ही वीरता समझता था। एक राजा दूसरे राजा को खत्म करने में लगा रहता था और उस पूरे प्रकरण में जनता सिर्फ राजाओं के पैरों तले कुचली जाती थी। शासक वर्ग का स्वार्थ आपस में भी खूब टकरा रहा था। इन्हीं कारणों से दुनिया को दो बार विश्वयुद्ध की विभीषिका झेलनी पड़ी। उस तबाही को याद करके आज भी पूरी दुनिया सहम जाती है। यही कारण था कि लोकतंत्र की अवधारणा को पूरी दुनिया ने गले लगाया और उस व्यवस्था से वे आज भी खुश हैं। लोकतंत्र की जो सबसे खास बात लोगों ने देखी वह यह थी कि राजा और प्रजा तथा शासक और शासित का भेद उसमें समाप्त हो गया था। ताज्जुब की बात यह थी कि जिस ब्रिटेन में पहले पहल लोकतंत्र की प्रणाली विकसित हुई उसी ब्रिटेन ने दुनिया के लगभग 50 देशों को गुलाम बना रखा था, लेकिन यह भी सही है कि जहां-जहां जनता की मांग प्रबल हो रही थी वहां से अंग्रेजों ने विस्तरा भी बांधना शुरू कर दिया था। उपनिवेशवाद के अंत का वह सिलसिला भी भारत से ही शुरू हुआ। गांधी जी के नेतृत्व में भारत की जनता ने, जिसमें सभी वर्गों, धर्मों, संप्रदायों, क्षेत्रों और संस्कृतियों के लोग शामिल थे, कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा बुलंद किया और जीत हासिल की। विश्व में यह पहला रिकार्ड था कि निहत्थे लोगों ने सत्य, अहिंसा और आपसी सद्भाव के साथ लड़ाई लड़कर अपने भारत को आजाद किया।
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भारत की आजादी के बाद संविधान बनाने का काम बहुत आसान नहीं था। असलियत यह है कि जो जनता विदेशी ताकत का गुलाम थी और जिसने एक साथ मिलकर अत्याचारी शासन को दूर भगाया था उसे अपनी नई सरकार से यह उम्मीद तो जरूर थी कि एक मुक्त वातावरण में उसे सांस लेने का मौका मिलेगा, उसकी आर्थिक, सामाजिक तथा अन्य क्षेत्रों में प्रगति के रास्ते खुलेंगे। इसीलिए संविधान बनाने वालों ने ऐसी व्यवस्था की कि दलितों, अल्पसंख्यकों तथा कमजोर वर्गों को विशेष सुविधाएं दी जाए ताकि वे प्रगति कर सकें और समाज की मुख्यधारा में शामिल हो सकें। इसके बाद दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। एक घटना जिसके सूत्रधार यहां से विदा ले रहे अंग्रेज शासक थे और दूसरी घटना पहली घटना की उपज थी। पहली घटना थी भारत- पाकिस्तान का बंटवारा जिसकी पूरी तैयारी अंग्रेजी शासन के आखिरी वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने की थी और ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि यदि बंटवारा नहीं होता तो आजादी ही खतरे में पड़ जाती। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह था कि यह बंटवारा शांतिपूर्ण नहीं हो पाया। दो क्षेत्रों का बंटवारा अनेक तरह की समस्याओं को जन्म दे गया। दूसरी घटना थी जम्मू कश्मीर के विलय की। जाहिर है पाकिस्तान को यह बहुत नागवार गुजरा और तीन-तीन बार दोनों देशों के बीच इसी मुद्दे पर लड़ाई हुई। आज भी भारत-पाकिस्तान के संबंध सहज नहीं हैं। खुद जम्मू कश्मीर के हालात भी पिछले कुछ वर्षों में बद से बदतर होते जा रहे हैं।
भारत में गांधी जी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने आजादी की जो लड़ाई शुरू की उसने साथ-साथ दो नई विचारधाराओं को भी जन्म दिया। एक विचारधारा थी जिसने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की। दूसरी विचारधारा थी जिसके अंतर्गत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गठन हुआ। संयोग की बात यह देखिए कि दोनों घटनाएं 1925 की हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की मुख्य मांग यह थी कि जब भारत आजाद हो तब उत्पादन के साधनों पर राज्य अर्थात जनता का अधिकार हो ताकि उसका लाभ समाज के सभी वर्गों को मिल सके और समतावादी समाज की स्थापना हो सके। दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गठन से लेकर उसके पोषण तक उस समय के राजे रजवाड़ों का पूरा सहयोग था और वे लोग अंग्रेज सरकार की खुशामद में लगे रहते थे। यही वजह थी कि आरएसएस एक संगठन के रूप में आजादी के आंदोलन में शरीक नहीं हुआ। हालांकि उसके एक नेता वीर सावरकर व्यक्तिगत रूप से इसमें शामिल हुए। आरएसएस खुद को शुरू से ही हिन्दुओं के लिए समर्पित एक सामाजिक संगठन मानता था। हालांकि हिन्दू महासभा नाम से एक राजनीतिक संगठन भी था लेकिन उसकी विचारधारा और आरएसएस की विचारधारा में अंतर था।
आरएसएस ने देश को आजादी मिलने के बाद अपने लिए एक राजनीतिक दल का गठन किया जिसका नाम था जनसंघ और तत्कालीन हिन्दू महासभा के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी इस दल के नेता बने। कम्युनिस्ट पार्टी के घोषित राजनीतिक लक्ष्यों के ठीक विपरीत जनसंघ ने अपने राजनीतिक लक्ष्य की घोषणा करते हुए कहा कि वह धन, धर्म और धरती की रक्षा में विश्वास रखता है। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि बड़े-बड़े राजाओं, जमींदारों, मंदिरों, मठों और उच्च वर्गों के लोगों के पास जो धन और जमीन है वह कोई उनसे नहीं छीन सकता। राजनीतिक घटनाक्रम ऐसा रहा कि 1977 के बाद जनता पार्टी नाम से एक राजनीतिक दल का गठन हुआ जिसमें जनसंघ का विलय हुआ। बाद में 1980 में जब जनता पार्टी टूटी तो जनसंघ के नेता उससे अलग हो गए और उन्होंने भारतीय जनता पार्टी नाम से नई पार्टी बनाई। दो बातें तब भी स्पष्ट थी और आज भी स्पष्ट है। आरएसएस अपने गठन से लेकर आज तक जिस शासन प्रणाली में विश्वास रखती है वह भारतीय संविधान में स्थापित लोकतंत्र की अवधारणा से मेल नहीं खाता था। उसे ज्यादा से ज्यादा कुलीन तंत्र का नाम दिया जा सकता है। आरएसएस आज भी राजनीतिक संगठन नहीं है लेकिन यह भी सच्चाई है कि राजनीतिक दल जनसंघ हो या भारतीय जनता पार्टी हो, दोनों ही दल आरएसएस पर पूरी तरह से निर्भर थे और निर्भर हैं। यह बात सही है कि जनता पार्टी जब टूटी थी तो मुख्य मुद्दा यही था कि जनसंघ के लोग राजनीतिक दल के भी सदस्य थे और आरएसएस के भी सदस्य थे। जनसंघ के लोगों ने जब भारतीय जनता पार्टी बनाई तब भी उनकी दोहरी सदस्यता कायम रही। असलियत यह है कि एक राजनीतिक दल जो संविधान के प्रति और लोकतांत्रिक परंपराओं व संस्थाओं के प्रति प्रतिबद्ध रहने की शपथ लेता है वही एक सामाजिक संगठन के सदस्य के रूप में तमाम जिम्मेदारियों से मुक्त होने का बहाना भी ढूंढ लेता है।
केंद्र की वर्तमान मोदी सरकार भाजपा की वाजपेयी सरकार से इसी अर्थ में भिन्न है कि वाजपेयी सरकार में आरएसएस के उन तमाम विवादास्पद मुद्दों को प्रशासनिक कार्यों से अलग रखा गया जिसकी वजह से समाज में विघटन पैदा हो सकता था। इसके विपरीत मोदी सरकार ने खुलेआम यह घोषणा की कि पिछले 70 सालों में इस देश में जो कुछ नहीं हुआ वो सब कुछ वे करके दिखाएंगे। मतलब साफ है कि मोदी सरकार नाम के लिए भाजपा की सरकार है, इसकी आत्मा आसएसएस की सरकार के रूप में ही है। एक राजनीतिक दल के रूप में उसे संविधान, लोकतांत्रिक संस्थाओं और परंपराओं का पालन करते हुए दिखना भी है और अंदर से ऐसे सारे प्रयास भी करने हैं जिनसे ये संस्थाएं खोखली होती चली जाएं। और अगर वैसा मौका आ गया तो ये तमाम संस्थाएं और परंपराएं सिर्फ नाम भर की रह जाएंगी और कईयों के तो नाम भी मिट जाएंगे। देश के अन्य सभी राजनीतिक दलों के सामने दोहरी सदस्यता वाली वह कहानी नहीं जुड़ी हुई है जिनकी वजह से जनता पार्टी टूटी थी। शायद यही वजह है कि बाकी राजनीतिक दल मोदी सरकार का मूल्यांकन करने में पूरी तरह से विफल रहे। मोदी सरकार की प्राथमिकताएं भारतीय संविधान में निहित समतामूलक समाज की स्थापना से बिलकुल अलग है। यह सरकार चूंकि संविधान और लोकतांत्रिक मर्यादाओं का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन नहीं कर सकती है, लेकिन वह अंदरखाने आरएसएस की उसी संकल्पना को साकार करने में लगी है जो उसने अपने बचपन में देखे थे। यह सपना उस लोकतंत्र की कल्पना से बिल्कुल अलग है जिसका मकसद है ऊंच-नीच, छोटे-बड़े, ब्राह्मण-दलित, हिन्दू-मुसलमान, सिख-ईसाई आदि के नाम पर होने वाले भेदभाव को बढ़ावा देना ताकि आंतरिक संघर्ष के बाद एक कुलीन तंत्र की स्थापना हो सके। यहां पर यह समझना भी जरूरी होगा कि भारत के लोगों ने सिर्फ अंग्रेजों की गुलामी के खिलाफ संघर्ष नहीं किया था, बल्कि अंग्रेजों द्वारा पोषित उस वर्ग के खिलाफ भी संघर्ष किया था जो वर्ग कुलीन तंत्र में विश्वास रखता था।
कांग्रेस पार्टी स्वाधीनता आंदोलन के दिनों से ही वामपंथी कम्युनिस्ट विचारधारा और दक्षिणपंथी आरएसएस की विचारधारा के बीच मध्यमार्ग बनाकर चलती रही। जाहिर है कि कुलीन तंत्र में विश्वास रखने वालों को जितना खतरा कम्युनिस्टों से है उतना ही खतरा मध्यमार्गियों से भी है। मध्यमार्गियों में कांग्रेस के अलावा समाजवादी पार्टी के सभी धड़े, जनता दल की विभिन्न शाखाएं जैसे बहुजन समाज पार्टी, दक्षिण की द्रविड़ पार्टियां आदि सभी शामिल हैं। तृणमूल कांग्रेस, केरल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी आदि सभी कांग्रेस से ही निकली हुई पार्टियां हैं। इसीलिए नरेंद्र मोदी और अमित शाह की पार्टी और उसकी सरकार की सोच व कार्यप्रणाली दोनों ही बाकी दलों की सोच और कार्यप्रणाली से भिन्न हैं। अगर उत्तराखंड हाईकोर्ट यह कहता है कि केंद्र की मोदी सरकार लोकतंत्र की हत्या कर रही है तो मोदी सरकार और उसके समर्थकों को इस टिप्पणी से कोई लज्जाबोध नहीं होता बल्कि उन्हें इस बात की खुशी होती है कि वे अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ रहे हैं। उनके लिए लक्ष्य हासिल करना बड़ी जरूरत है और उनका लक्ष्य है लोकतंत्र की बाहरी चादर में लिपटा हुआ कुलीन तंत्र का असली चेहरा। चाहे किसान आत्महत्या करे, मजदूर भूखों मरे, बेरोजगार अपना माथा पीटें, दलित और पिछड़े आसमान की ओर टकटकी लगाए देखते रहें, जाट आंदोलन करते रहें और अल्पसंख्यक रोज अपनी खैर मनाते रहें, मोदी सरकार को इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता। चुनाव जीतने के सारे हथकंडे उन्हें मालूम हैं। लोगों में पद और पैसे का लोभ दिखाकर फूट डालना, पार्टियों को तोड़ना, पैसे का इस्तेमाल कर कहीं वोट खरीदना, कहीं उम्मीदवार खरीदना तो कहीं विधायक और सांसद खरीदना और यदि परिस्थितियां बिल्कुल ही विपरीत हों तो ईवीएम को अपने अनुकूल बना लेने की ब्रह्मास्त्र कला का उपयोग करना उनके लिए मुश्किल नहीं है। उनके पास धन्नासेठों की ऐसी टीम है जो किसी भी हद तक जा सकती है। विपक्षी दल जब आरोप लगाते हैं कि मोदी सरकार सिर्फ धन्ना सेठों की मदद करती है तो इससे मोदी को फायदा ही पहुंचता है। यही वजह है कि गुजरात का चुनाव अभी आठ महीने दूर है लेकिन अमित शाह पूरे विश्वास के साथ कह रहे हैं कि उनकी पार्टी को 150 सीटें मिलेंगी।
उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में भाजपा को ध्रवीकरण का फायदा मिला ऐसा कुछ लोगों का मानना है। लेकिन तथ्य इसके विपरीत हैं। अगर ध्रवीकरण होता तो भाजपा को उत्तर प्रदेश में 38 प्रतिशत नहीं बल्कि 80 प्रतिशत वोट मिलते। असलियत तो यही है कि अपने सारे तीर कमान का इस्तेमाल करने के बावजूद मोदी की भाजपा को 38 प्रतिशत वोट मिले और मोदी के खिलाफ 62 प्रतिशत लोगों ने मतदान किया। मोदी की जीत इसलिए हुई क्योंकि विपक्षी दल बिखरे हुए थे और 62 प्रतिशत वोट बुरी तरह बंट गए। पंजाब, गोवा और मणिपुर में भी सही मायने में भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा। यह बात अलग है कि धन का इस्तेमाल कर वह किसी तहर गोवा और मणिपुर में सरकार बनाने में कामयाब रही। पंजाब में तो उसका ब्रह्मास्त्र भी फेल हो गया।
बहरहाल, परिस्थितियां बिल्कुल साफ है और चुनौतियां भी बिल्कुल स्पष्ट हैं। मोदी सरकार अपने एजेंडे के अनुसार समाज को विभिन्न चरणों में तोड़ेगी। पहले हिन्दु-मुसलमान के नाम पर, फिर दलितों ओर उच्च वर्गों के बीच झगड़ा पैदा करके और अंत में अगड़ों और पिछड़ों की लड़ाई शुरू कराकर। इसीलिए मुगालते में रहने की जरूरत नहीं है कि मोदी का लक्ष्य सिर्फ हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करना है। हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करने पर भी हिन्दुओं का दलित और पिछड़ा वर्ग अगर संख्याबल के आधार पर सत्ता में आ गया तो मोदी को फिर नुकसान उठाना पड़ेगा। इसलिए मोदी का अंतिम और एकमात्र लक्ष्य उस कुलीन तंत्र की स्थापना करना है जिसमें उच्च वर्ग के लोगों के हाथों में समाज और शासन की बागडोर हो और सही अर्थों में आरएसएस इस देश की कमान संभाले। भाजपा के अलावा अन्य सभी राजनीतिक दल समान रूप से संविधान और लोकतांत्रिक परंपराओं से प्रतिबद्ध हैं और वे सभी चाहते हैं कि देश में कानून का शासन हो, कमजोर और पिछड़े वर्गों को आगे बढ़ने का मौका मिले और धन्ना सेठों की लगाम खींची जाए। जिन लोगों ने देश को लूटा है वे दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक और समाजसेवी लोग नहीं हैं, बल्कि वे धन्ना सेठ हैं जो मोदी सरकार में सबसे ज्यादा खुश हैं। इसीलिए गैर-भाजपाई दलों को सारे मतभेद भुलाकर एकता के सूत्र में बंधना होगा और मोदी सरकार की मंशा को जड़ से उखाड़ फेंकना होगा वरना देश की एकता और अखंडता खतरे में पड़ जाएगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। इस आलेख में लेखक द्वारा दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)