भारत का राजनीतिक इतिहास
प्रवीण कुमार/किरण राय/सत्ता विमर्श शोध टीम
राज करने अथवा राज चलाने सम्बन्धी नीति को 'राजनीति' कहा जाता है। स्पष्ट है कि राज करने या चलाने जैसी अति संवेदनशील एवं गम्भीर जिम्मेदारी के लिए इस पेशे में शामिल व्यक्ति को अत्यधिक योग्य, दक्ष, ईमानदार तथा कुशल नेतृत्व प्रदान कर पाने की क्षमता रखने वाला व्यक्ति होना चाहिए। राजा भरत, भगवान राम, भगवान कृष्ण, सम्राट अशोक, चन्द्रगुप्त, चाणक्य जैसे राजनीति में सिद्ध पुरूषों से लेकर सुभाष चन्द्र बोस, महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, सरदार पटेल, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी सरीखे देश के सुप्रसिद्ध राजनीतिक महापंडितों तक भारतीय राजनीति का इतिहास ऐसे तमाम दिग्गजों से भरा पड़ा है, जिन पर न सिर्फ जनता, बल्कि देश की राजनीतिक व्यवस्था भी गर्व करती है।
त्रेतायुग में अर्थात भगवान राम के काल के हजारों वर्ष पूर्व प्रथम मनु स्वायंभुव मनु के पौत्र और प्रियव्रत के पुत्र ने इस भारतवर्ष को बसाया था। भारत से पूर्व भारत का नाम नाभिराज के नाम पर अजनाभवर्ष और उससे पूर्व हिमवर्ष था। वायु पुराण के अनुसार महाराज प्रियव्रत का अपना कोई पुत्र नहीं था तो उन्होंने अपनी पुत्री के पुत्र अग्नीन्ध्र को गोद ले लिया था जिसका लड़का नाभि था। नाभि की एक पत्नी मेरू देवी से जो पुत्र पैदा हुआ उसका नाम ऋषभ था। इसी ऋषभ के पुत्र भरत थे तथा इन्हीं भरत के नाम पर इस देश का नाम 'भारतवर्ष' पड़ा।
राजा प्रियव्रत ने अपनी पुत्री के 10 पुत्रों में से सात को संपूर्ण धरती के सात महाद्वीपों का राजा बना दिया था और अग्नीन्ध्र को जम्बू द्वीप का राजा बना दिया था। इस प्रकार राजा भरत ने जो क्षेत्र अपने पुत्र सुमति को दिया वह भारतवर्ष कहलाया। भारतवर्ष अर्थात भरत राजा का क्षेत्र। भरत एक प्रतापी राजा एवं महान देशभक्त थे। श्रीमद्भागवत के पञ्चम स्कंध एवं जैन ग्रंथों में उनके जीवन एवं अन्य जन्मों का वर्णन आता है। महाभारत के अनुसार भरत का साम्राज्य सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में व्याप्त था जिसमें वर्तमान भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, किर्गिज्तान, तुर्कमेनिस्तान तथा फारस आदि क्षेत्र शामिल थे।
इस भारतवर्ष में पहले देव, असुर, गंधर्व, किन्नर, यक्ष, मानव, नाग आदि जातियां निवास करती थीं। इसमें कुरु, पांचाल, पुण्ड्र, कलिंग, मगध, दक्षिणात्य, अपरांतदेशवासी, सौराष्ट्रगण, तहा शूर, आभीर एवं अर्बुदगण, कारूष, मालव, पारियात्र, सौवीर, संधव, हूण, शाल्व, कोशल, मद्र, आराम, अम्बष्ठ और पारसी गण रहते थे। भारत के पूर्वी भाग में किरात (चीनी) और पश्चिमी भाग में यवन (अरबी) बसे हुए थे। बाद में भारत में कृष्ण के काल में अंग, अवंति, अश्मक, कंबोज, काशी, कुरु, कोशल, गांधार, चेदि, पंचाल, मगध, मत्स्य, मल्ल, वज्जि, वत्स और शूरसेन जनपद बने। हर काल में ये जनपद बदलते रहे, लेकिन जिस व्यक्ति ने इन संपूर्ण जनपदों पर राज किया वही चक्रवर्ती सम्राट कहलाया।
मूल रूप से प्राचीन भारत में अयोध्या कुल, यदु कुल, पौरव कुल और कुरुवंश का शासन रहा लेकिन इनके अलावा दिवोदास (काशी), दुर्दम (हैहय), कैकय (आनव), गाधी (कान्यकुब्ज), अर्जुन (हैहय), विश्वामित्र (कान्यकुब्ज), तालजङ्घ (हैहय), प्रचेतस् (द्रुह्यु), सुचेतस् (द्रुह्यु), सुदेव (काशी), दिवोदास द्वितीय और बलि (आनव) का भी राज्य शासन रहा। मालूम हो कि इन सब राज्य और राजाओं से पहले यहां देव और दैत्य के राजा होते थे, जिसमें इंद्र और राजा बलि का नाम प्रसिद्ध है। तिब्बत और उसके आसपास के क्षेत्र को इंद्रलोक कहते थे, जहां नंदन कानन वन और खंडववन था। राजा बलि ने अरब को अपना निवास स्थान बनाया था।
प्रथम राजा भरत के बाद और भी कई भरत यहां पैदा हुए। सातवें मनु वैवस्वत कुल में एक भरत हुए जिनके पिता का नाम ध्रुवसंधि था और जिसने पुत्र का नाम असित और असित के पुत्र का नाम सगर था। सगर अयोध्या के बहुत प्रतापी राजा थे। इन्हीं सगर के कुल में भगीरथ हुए। भगीरथ के कुल में ही ययाति हुए (ये चंद्रवशी ययाति से अलग थे)। ययाति के कुल में राजा रामचंद्र हुए और कहते हैं कि राम के पुत्र लव और कुश ने संपूर्ण धरती पर शासन किया।
महाभारत काल में एक तीसरे भरत भी हुए। पुरुवंश के राजा दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत की गणना 'महाभारत' में वर्णित सोलह सर्वश्रेष्ठ राजाओं में होती है। कालिदास कृत महान संस्कृत ग्रंथ 'अभिज्ञान शाकुंतलम' के एक वृत्तांत के अनुसार राजा दुष्यंत और उनकी पत्नी शकुंतला के पुत्र भरत के नाम से भारतवर्ष का नामकरण हुआ। मरुद्गणों की कृपा से ही भरत को भारद्वाज नामक पुत्र मिला। भारद्वाज महान ऋषि थे। चक्रवर्ती राजा भरत के चरित्र का उल्लेख महाभारत के आदिपर्व में भी है।
अयोध्या के राजा हरिशचंद्र बहुत ही सत्यवादी और धर्मपरायण राजा थे। वे अपने सत्य धर्म का पालन करने और वचनों को निभाने के लिए राजपाट छोड़कर पत्नी और बच्चे के साथ जंगल चले गए और वहां भी उन्होंने विषम परिस्थितियों में भी धर्म का पालन किया। ऋषि विश्वामित्र द्वारा राजा हरिशचंद्र के धर्म की परीक्षा लेने के लिए उनसे दान में उनका संपूर्ण राज्य मांग लिया गया था। राजा हरिशचंद्र भी अपने वचनों के पालन के लिए विश्वामित्र को संपूर्ण राज्य सौंपकर जंगल चले गए।
दान में राज्य मांगने के बाद भी विश्वामित्र ने उनका पीछा नहीं छोड़ा और उनसे दक्षिणा भी मांगने लगे। इस पर हरिशचंद्र ने अपनी पत्नी, बच्चों सहित स्वयं को बेचने का निश्चय किया और वे काशी चले गए, जहां पत्नी व बच्चों को एक ब्राह्मण को बेचा व स्वयं को चांडाल के यहां बेचकर मुनि की दक्षिणा पूरी की। कहते हैं कि हरिशचंद्र श्मशान में कर वसूली का काम करने लगे। इस बीच उनके साथ एक अजीब सी घटना घटी। हरिश्चंद्र के पुत्र रोहित की सर्पदंश से मौत हो जाती है। पत्नी श्मशान पहुंचती है जहां कर चुकाने के लिए उसके पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं रहती। हरिशचंद्र अपने धर्म पालन करते हुए कर की मांग करते हैं। इस विषम परिस्थिति में भी राजा का धर्म-पथ नहीं डगमगाया। विश्वामित्र अपनी अंतिम चाल चलते हुए हरिशचंद्र की पत्नी को डायन का आरोप लगाकर उसे मरवाने के लिए हरिशचंद्र को काम सौंपते हैं। हरिशचंद्र आंखों पर पट्टी बांधकर जैसे ही वार करते हैं, स्वयं सत्यदेव प्रकट होकर उसे बचाते हैं। वहीं विश्वामित्र भी हरिशचंद्र के सत्य पालन धर्म से प्रसन्न होकर सारा साम्राज्य वापस कर देते हैं।
वन से लौटने के बाद जब भगवान राम ने अयोध्या का शासन संभाला तो उन्होंने कई वर्षों तक भारत पर शासन किया और भारत को एकसूत्र में बांधे रखा। राम के काल में रावण, बाली, जनक, अहिरावण और कार्तवीर्य अर्जुन नाम के महान शासक थे। कार्तवीर्य अर्जुन या सहस्रार्जुन यदुवंश का एक प्राचीन राजा था। वह बड़ा वीर और प्रतापी था। उसने लंका के राजा रावण जैसे प्रसिद्ध योद्धा से भी संघर्ष किया था। कार्तवीर्य अर्जुन के राज्य का विस्तार नर्मदा नदी से हिमालय तक था जिसमें यमुना तट का प्रदेश भी सम्मिलित था। कार्तवीर्य अर्जुन के वंशज कालांतर में 'हैहय वंशी' कहलाए जिनकी राजधानी 'माहिष्मती' (महेश्वर) थी। इन हैहयों से ही परशुराम का 21 बार युद्ध हुआ था।
सम्राट भरत के समय में ही एक राजा हस्ति भी हुए जिन्होंने अपनी राजधानी हस्तिनापुर बनाई। राजा हस्ति के पुत्र अजमीढ़ को पंचाल का राजा कहा गया है। राजा अजमीढ़ के वंशज राजा संवरण जब हस्तिनापुर के राजा थे तो पंचाल में उनके समकालीन राजा सुदास का शासन था। राजा सुदास का संवरण से युद्ध हुआ जिसे कुछ विद्वान ऋग्वेद में वर्णित 'दाशराज्य युद्ध' से जानते हैं। राजा सुदास के समय पंचाल राज्य का विस्तार हुआ। राजा सुदास के बाद संवरण के पुत्र कुरु ने शक्ति बढ़ाकर पंचाल राज्य को अपने अधीन कर लिया तभी यह राज्य संयुक्त रूप से 'कुरु-पंचाल' कहलाया, परंतु कुछ समय बाद ही पंचाल पुन: स्वतंत्र हो गया।
राजा कुरु के नाम पर ही सरस्वती नदी के निकट का राज्य कुरुक्षेत्र कहा गया। माना जाता है कि पंचाल राजा सुदास के समय में भीम सात्वत यादव का बेटा अंधक भी राजा था। इस अंधक के बारे में पता चलता है कि शूरसेन राज्य के समकालीन राज्य का स्वामी था। दसराज्य युद्ध में यह भी सुदास से हार गया था। वैदिक साहित्य में उल्लिखित एक प्रसिद्ध चंद्रवंशी राजा था। कुरु के पिता का नाम संवरण तथा माता का नाम तपती था। शुभांगी तथा वाहिनी नामक इनकी दो स्त्रियां थीं। वाहिनी के पांच पुत्र हुए जिनमें कनिष्ठ का नाम जन्मेजय था जिसके वंशज धृतराष्ट्र और पांडु हुए। सामान्यत: धृतराष्ट्र की संतान को ही 'कौरव' संज्ञा दी जाती है, पर कुरु के वंशज कौरव-पांडव दोनों ही थे। पपंचसूदनी नामक ग्रंथ में वर्णित अनुश्रुति के अनुसार, इलावंशीय कौरव, मूल रूप से हिमालय के उत्तर में स्थित प्रदेश (या उत्तरकुरु) के रहने वाले थे। कालांतर में उनके भारत में आकर बस जाने के कारण उनका नया निवास स्थान भी कुरु देश ही कहलाने लगा।
पुरुवंश के राजा दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत की गणना 'महाभारत' में वर्णित सोलह सर्वश्रेष्ठ राजाओं में होती है। राजा भरत को 'सर्वदमन' भी कहा जाता था, क्योंकि उन्होंने बचपन में ही बड़े-बड़े राक्षसों, दानवों और सिंहों का दमन किया था। सम्राट भरत का शासन संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप पर था। महाभारत के अनुसार भरत ने यमुना, सरस्वती और गंगा के तट पर बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान किया तथा महर्षि भारद्वाज की कृपा से भूमन्यु नामक पुत्र प्राप्त किया। भरत के देहावसान के बाद उसने अपने पुत्र वितथ को राज्य का भार सौंप दिया और स्वयं वन में चला गया। श्रीमद् भागवत के अनुसार भरत का विवाह विदर्भराज की तीन कन्याओं से हुआ था जिनसे उन्हें तीन पुत्रों की प्राप्ति हुई। तीनों पुत्रों से कोई वंश चलता नहीं देख भरत ने 'मरूत्स्तोम' यज्ञ किया। मरूद्गणों ने भरत को भारद्वाज नामक पुत्र दिया। भारद्वाज का वंश चला।
इन्हीं भरत के कुल में शांतनु पैदा हुए। शांतनु की एक पत्नी गंगा थी जिनके पुत्र भीष्म थे और शांतनु की दूसरी पत्नी सत्यवती के दो पुत्र चित्रांगद और विचित्रवीर्य हुए। भीष्म ने भीष्म प्रतिज्ञा ली थी इसलिए उनका वंश नहीं चला। चित्रांगद गंधर्वों से युद्ध करते हुए मारा गया। विचित्रवीर्य की दो पत्नियां अम्बिका और अम्बालिका थीं। विचित्रवीर्य कामी और सुरापेयी था। उसे राजयक्ष्मा हो गया और वह असमय में ही मृत्यु को प्राप्त हुआ। सत्यवती और भीष्म को कुल और वंश नष्ट होने की जब चिंता होने लगी तब सत्यवती ने राजमाता होने के कारण व्यास द्वैपायन को बुलवाया, जो पुत्र दे सके। सत्यवती की कुमारी अवस्था में ही व्यास द्वैपायन का जन्म हुआ था। वह बेहद कुरूप था। कहते हैं कि समागम के समय व्यास द्वैपायन की कुरूपता को देखकर अम्बिका ने नेत्र मूंद लिए। अत: उसका पुत्र धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधा पैदा हुआ। अम्बालिका व्यास को देखकर पीतवर्णा हो गई, इससे उसका पुत्र पाण्डु पीला हुआ। सत्यवती ने एक और पुत्र की कामना से अम्बिका को व्यास के पास भेजा, लेकिन उसने अपनी दासी को भेज दिया। दासी से विदुर का जन्म हुआ। इस तरह देखा जाए तो भरतवंश की जगह बाद में व्यास द्वैपायन का वंश चला।
पांडव पुत्र युधिष्ठिर को धर्मराज भी कहा जाता है। इनका जन्म धर्मराज के संयोग से कुंती के गर्भ द्वारा हुआ था। महाभारत युद्ध के बाद युधिष्ठिर ने ही भारत पर राज किया था। 2964 ई. पूर्व में युधिष्ठिर का राज्यारोहण हुआ था। युधिष्ठिर भाला चलाने में निपुण थे। वे कभी झूठ नहीं बोलते थे। उनके पिता ने यक्ष बनकर सरोवर पर उनकी परीक्षा भी ली थी। महाभारत युद्ध में धर्मराज युधिष्ठिर सात अक्षौहिणी सेना के स्वामी होकर कौरवों के साथ युद्ध करने को तैयार हुए थे, जबकि परम क्रोधी दुर्योधन ग्यारह अक्षौहिणी सेना का स्वामी था। महाभारत युद्ध के बाद युधिष्ठिर को राज्य, धन, वैभव से वैराग्य हो गया था। वे वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहते थे लेकिन सभी भाइयों तथा द्रौपदी ने उन्हें तरह-तरह से समझाकर क्षत्रीय धर्म का पालन करने के लिए प्रेरित किया। उनके शासनकाल में संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप पर शांति और खुशहाली रही।
युधिष्ठिर सहित पांचों पांडव अर्जुन पुत्र अभिमन्यु के पुत्र महापराक्रमी परीक्षित को राज्य देकर महाप्रयाण के लिए देवभूमि उत्तराखंड की ओर चले गए और वहां जाकर पुण्यलोक को प्राप्त हुए। परीक्षित के बाद उनके पुत्र जन्मेजय ने राज्य संभाला। महाभारत में जन्मेजय के छह और भाई बताए गए हैं। ये भाई हैं कक्षसेन, उग्रसेन, चित्रसेन, इन्द्रसेन, सुषेण तथा नख्यसेन।
इन्द्रप्रस्थ, अयोध्या, हस्तिनापुर, मथुरा के प्रभाव का ह्रास होने पर भारत 16 जनपदों में बंट गया। इसमें जो जनपद शक्तिशाली होता वहीं अन्य जनपदों को अपने तरीके से संचालित करता था। धीरे-धीरे पाटलिपुत्र, तक्षशिला, वैशाली, गांधार और विजयनगर जैसे साम्राज्यों का उदय हुआ। माना जाता है कि महाभारत युद्ध के बाद 17 राजाओं ने राज किया। कुछ इतिहाकारों के अनुसार जन्मेजय की 29वीं पीढ़ी में राजा उदयन हुए। मगध (पाटलिपुत्र) पर वृहद्रथ के वीर पराक्रमी पुत्र और कृष्ण के दुश्मनों में से एक जरासंध का शासन था जिसके यवनों से घनिष्ट संबंध थे। जरासंध के इतिहास के अंतिम शासक निपुंजय की हत्या उनके मंत्री सुनिक ने की और उसका पुत्र प्रद्योत मगध के सिंहासन पर काबिज हुआ था।
प्रद्योत वंश के 5 शासकों के अंत के 138 वर्ष बाद ईसा से 642 वर्ष पूर्व शिशुनाग मगध के राज सिंहासन पर काबिज हुआ। उसके बाद महापद्म ने मगध की बागडोर संभाली और नंद वंश की स्थापना की। महापद्म, जिन्हें महापद्मपति या उग्रसेन भी कहा जाता है, समाज के शूद्र वर्ग के थे। महापद्म ने अपने पूर्ववर्ती शिशुनाग राजाओं से मगध की बागडोर और सुव्यवस्थित विस्तार की नीति भी जानी। पुराणों में उन्हें सभी क्षत्रियों का संहारक बतलाया गया है। महापद्म ने उत्तरी, पूर्वी और मध्यभारत स्थित इक्ष्वाकु, पांचाल, काशी, हैहय, कलिंग, अश्मक, कौरव, मैथिल, शूरसेन और वितिहोत्र जैसे शासकों को हराया।
महापद्म के वंश की समाप्ति के बाद मगध पर नंद वंशों का राज कायम हुआ। पुराणों में नंद वंश का उल्लेख मिलता है, जिसमें सुकल्प (सहल्प, सुमाल्य) का जिक्र है, जबकि बौद्ध महाबोधिवंश में आठ नंद राजाओं के नामों का उल्लेख है। इस सूची में अंतिम शासक धनानंद का उल्लेख है। यह धनानंद सिकंदर महान का शक्तिशाली समकालीन बताया गया है। मगध के राजनीतिक उत्थान की शुरुआत ईसा पूर्व 528 से शुरू हुई, जब बिम्बिसार ने सत्ता संभाली। बिम्बिसार के बाद अजातशत्रु ने बिम्बिसार के कार्यों को आगे बढ़ाया। गौतम बुद्ध के समय में मगध में बिंबिसार और तत्पश्चात उसके पुत्र अजातशत्रु का राज था।
अजातशत्रु ने विज्यों (वृज्जिसंघ) से युद्ध कर पाटलिग्राम में एक दुर्ग बनाया। बाद में अजातशत्रु के पुत्र उदयन ने गंगा और शोन के तट पर मगध की नई राजधानी पाटलिपुत्र नामक नगर की स्थापना की। पाटलिपुत्र के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए नंद वंश के प्रथम शासक महापद्म नंद ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की और मगध साम्राज्य के अंतिम नंद धनानंद ने उत्तराधिकारी के रूप में सत्ता संभाली। इसी अंतिम धनानंद के शासन को उखाड़ फेंकने के लिए चाणक्य ने शपथ ली थी। हालांकि धनानंद का नाम कुछ और था लेकिन वह 'धनानंद' नाम से ज्यादा प्रसिद्ध हुआ।
तमिल भाषा की एक कविता और कथासरित्सागर अनुसार नंद की '99 करोड़ स्वर्ण मुद्राओं' का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि उसने गंगा नदी की तली में एक चट्टान खुदवाकर उसमें अपना सारा खजाना गाड़ दिया था। पुनश्च महानंद के पुत्र महापद्म ने नंद-वंश की नींव डाली। इसके बाद सुमाल्य आदि आठ नंदों ने शासन किया। महानंद के बाद नवनंदों ने राज्य किया। धनानंद नंद वंश का अंतिम राजा था। कुछ इतिहासकारों के अनुसार अर्जुन के समकालीन जरासंध के पुत्र सहदेव से लेकर शिशुनाग वंश से पहले के जरासंध वंश के 22 राजा मगध के सिंहासन पर बैठ चुके हैं। उनके बाद 12 शिशुनाग वंश के बैठे जिनमें छठे और सातवें राजाओं के समकालीन उदयन थे।
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