मोदी कैबिनेट: चुनावी गणित का तिकड़म
किरण राय
मोदी-कैबिनेट में फेरबदल साफतौर पर उप्र चुनावों को देखते हुए सेट किया गया तिकड़म लग रहा है। नए मंत्रियों को प्रचार वेगन की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश सामने है। अनुप्रिया पटेल के जरिए पिछड़े वर्ग को तो कृष्णा राज जैसे नए दलित चेहरे के जरिए खास वोटरों को लुभाने की जल्दबाजी तो 2014 के विकास के एजेंडे की अनदेखी भी दिख रही है। स्पष्ट है कि भगवा पार्टी भी उसी पुराने राग को अलापना चाहती है जो बरसों से सामाजिक सद्भाव को तितर बितर करने वाली राजनीतिक पार्टियां (सभी) करती रहीं हैं। एक चीज और स्पष्ट है कि इस पूरे विस्तार और बदलाव में छाप मोदी के खास अमित शाह की है और कई राज्यों के क्षत्रपों (जिसमें शिवसेना भी शामिल है) को इशारों इशारों में समझाने की कोशिश की गई है कि अब 'बेनाम टाइप' के उनके खेमे से परे लोगों को भी तरजीह दी जायेगी।
कृष्णा राज, शाहजहांपुर की आरक्षित सीट से सांसद हैं। जुझारू मानी जाती हैं। डिग्रीधारक हैं। फायर ब्रैण्ड नेता की छवि है और शायद इन्हें मायावती के बरअक्स खड़ा करने की लम्बी प्लानिंग के साथ राज्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई है। अच्छी बात है कि जिन आठ श्रेणियों को आधार बनाकर मंत्रियों को चुना गया इससे पार्टी की सबसे आखिरी लाइन में खड़े कार्यकर्ता की उम्मीद जगी है लेकिन ये भी कम हैरानी वाली बात नहीं कि इन नए चेहरों का कुछ खास सूबे की सियासत या फिर राष्ट्रीय स्तर पर पहचान या प्रभाव नहीं है। शायद यह पहली पंक्ति में खड़े नेताओं को उनकी अहमियत का अहसास कराने जैसा भी है।
निगाहें 2017 में होने वाले उत्तर प्रदेश चुनावों पर हैं, मकसद उस वोट बैंक को साधना है जो लोकसभा चुनावों में पार्टी के साथ खड़ा दिख रहा था। ऐसा लग रहा है कि पार्टी उस 19 फीसदी दलित को साधने में अपने 10 फीसदी ब्राह्मण वोटरों को नजरअंदाज कर रही है। पार्टी के रणनीतिकार बसपा सुप्रीमो के सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले को शायद भुला रहें हैं और उम्मीद जता रहें हैं कि 2014 के लोकसभा चुनावों की तर्ज पर जादुई करिश्मा दिखा पायेंगे और उसमें उनकी मदद ओबीसी और दलित मंत्रियों को मंत्रिमण्डल में दी गई जगह दिला पायेगा। हालांकि ये सर्वविदित है कि लोकसभा चुनावों और विधानसभा चुनावों का समीकरण और गणित अलग होता है।