मोदी जी कैसे करें आप पर विश्वास?
किरण राय
500 और 1000 रुपए की नोट को बदलने का फैसला निसंदेह अच्छा और प्रशंसनीय है। टेरर फंडिंग और काली मुद्रा को बाहर निकालने का बेहतर विकल्प भी है। लेकिन ऐलान के बाद जिस तरह की अफरा-तफरी मार्केट में मची उससे तो लगता है जैसे आधी अधूरी तैयारी के साथ मैदान में सरकार उतरी। ना शादी के मौसम का ख्याल रखा गया और ना अन्य करेंसियों (50 या 1000 रुपए की नोट) को बाजार में ज्यादा तादाद में उतारा गया। शायद उन्हें अंदाजा नहीं था कि इस कदम का आफ्टर इफेक्ट इतना कष्टकारी होगा। स्क्रीन पर दिख रहा है कि अकूत सम्पति को लोग गंगा में बहा रहें हैं, कोई कागज के इन टुकड़ों को जला रहा है, तो ये भी खबर आई कि देश के बिजनेस कैपिटल में नकदी बदलवाने के लिए लाइन में खड़े-खड़े ही बुजुर्ग ने दम तोड़ दिया। सवाल वही इतनी जल्दबाजी क्यों?
इतना ही नहीं सरकार के मंत्री कुछ कहते हैं और मुलाजिम कुछ और। जनता भरोसा किस पर करे! ये आखिर बतायेगा कौन? केन्द्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली कहते हैं कि जिनके पास ढाई लाख से ऊपर की काली मुद्रा होगी उन पर सरकार की नजर होगी। वहीं रेवेन्यू सचिव हंसमुख अधिया का स्पष्ट कहना है कि जमा की गई राशि का श्रोत बताना होगा, नहीं तो 200 फीसदी जुर्माना तय है। मामला तकनीकी है। भला एक आम इंसान इसे कैसे समझ पायेगा? वो किस बात पर और क्यों विश्वास करे? कैसे वो यकीन करे बैंकों या डाकघरों में अगर वो ढाई लाख रुपए की सीमा तक की रकम ही जमा करता है तो उसे किसी भी तरह से तंग नहीं किया जाएगा?
वित्त मंत्री ने ये भी कहा कि 1978 में मुद्रा परिवर्तन और आज के बदलाव में अंतर है। तब यह सफल नहीं माना गया या फिर इसका काली मुद्रा पर फर्क इसलिए नहीं पड़ा क्योंकि तब महज 10 फीसदी हाई डिनोमिनेशन मुद्रा थी, लेकिन अब स्थिति जुदा है आज की तारीख में भारतीय अर्थव्यवस्था में करीब 86 फीसदी हाई डिनोमिनेशन नोट है। यानी आम लोगों तक पहुंच भी है और उनके द्वारा इसका प्रयोग भी व्यापक स्तर पर हो रहा है। सवाल यही है कि तब सीमित प्रयोग था लेकिन अब तो इन नोटों का दायरा भी बढ़ गया है, तो क्या आंकड़ों की बाजीगरी में माहिर मंत्रालय ने वर्तमान स्थिति का अंदाजा लगाने के लिए कोई सर्वेक्षण नहीं किया था, जानकारों की फौज ने कोई ठोस योजना नहीं बनाई थी? क्या ये नहीं सोचा गया कि आम हिन्दुस्तानी पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा।
मार्केट सूने पड़े हैं। जिस मजदूर का पूरा दिन 500 रुपए की आस में गुजरता है दिक्कत उसकी भी कम नहीं है। कई बड़े अस्पतालों के बाहर सूचना चस्पा कर दी गई है कि यहां 500 और 1000 के नोट नहीं चलेंगे। जबकि मोदी जी ने कहा था कि अस्पतालों में राहत मिलेगी। इन सब ऊहापोह की स्थिति से स्पष्ट होता है कि कहीं ना कहीं प्लानिंग और प्रबंधन में चूक गई हमारी सरकार। हर बात पर आकंड़ों और सर्वेक्षण का हवाला देने वाले कैसे इतने अहम बिंदु पर नजर नहीं रख पाए? जानकारों और विशेषज्ञों की टीम ने कैसे ये नहीं समझाया कि एटीएम मशीनों को नए नोट पहचानने में दिक्कत होगी? मामला गंभीर है और सरकार का रवैया फिलहाल कन्फ्यूजन से भरपूर है। ऐसे में अगर जनता सवालिया नजर से सरकार की ओर देख रही है तो गलत क्या है।