विकास के लिए कुंभ का इंतजार न करना पड़े, इसलिए पकड़ी राजनीति की राह : डॉ. सिन्हा
संगम नगरी के मशहूर रेडियोलॉजिस्ट हैं डॉ. सुशील कुमार सिन्हा। अपने लोग और मरीजों के चहेते। सामाजिक क्षेत्र में अच्छा खास दखल रखते हैं और विगत 2 दशक से अपनी जन्मस्थली इलाहाबाद का कर्ज उतारने की कोशिश में जुटे हैं। जो इस शहर से पाया उसे लौटाने के लिए तत्पर डॉ. सिन्हा अब किसी राजनीतिक ओहदे पर पहुंच कर लोगों की पीड़ा हरना चाहते हैं। भारतीय जनता पार्टी के समर्पित कार्यकर्ता हैं और इनको चाहने वाले इन्हें शहर के भावी मेयर के तौर पर काम करते देखना चाहते हैं। 2 से ढाई लाख की आबादी वाले कायस्थों का प्रतिनिधित्व करने वाले सिन्हा आखिर किस तरह से अपने शहर का इलाज करना चाहते हैं? शहर की सेहत को सुधारने के लिए क्या सपने पाले हैं? डॉ. सिन्हा अगर मेयर बन गए तो क्या इलाहाबाद को विकास के लिए कुंभ के होने का इंतजार नहीं करना पड़ेगा? इन्हीं सब मुद्दों को लेकर सत्ता विमर्श से डॉ. सिन्हा ने लंबी वार्ता की जिसकी कुछ खास बातें यहां प्रस्तुत हैं...
सवाल : कब और क्यों लगा कि जन्मस्थली और कर्मस्थली एक ही होनी चाहिए?
जवाब : ऐसा मुझे हमेशा से ही लगता था कि जहां आपका जन्म हुआ उसके आप ऋणी है। दिल में एक बेचैनी सी थी कि आखिर कैसे त्रिवेणी का कर्ज उतार पाऊंगा? यहां के रग-रग में खुद को रचा-बसा पाता था। यहां के लिए कुछ करना मैं अपना उत्तरदायित्व समझता रहा। प्रोफेशन के तौर पर चिकित्सा क्षेत्र को चुन लिया था। लखनऊ से एमबीबीएस की डिग्री हासिल की और फिर यहीं से प्रैक्टिस करनी शुरू कर दी। ऑफर तो बहुत आये। दिल्ली, मुम्बई और विदेशों तक के लिए, लेकिन मुझे तो यहीं रहकर अपना ख्वाब सच करना था सो एक खांटी इलाहाबादी की तरह वही किया जो बरसों से सोचे बैठा था। यहीं का होकर रह गया। एक बात का पूरा ख्याल रखा कि मेहनत और ईमानदारी से कभी जी ना चुराऊं।
सवाल : अपने बैकग्राउंड के बारे में कुछ बतायें, मसलन घर का माहौल कैसा रहा? पिता या दादा का क्या राजनीति से कोई सम्बंध रहा?
जवाब : मेरे घर में न्याय, सामाजिक सरोकार जैसे चीज आप कह सकते हैं मुझे विरासत में मिली। मेरे बाबा यानी दादा जी कैमिकल इंजीनियर थे और बाबूजी यानी पिताजी वकील। बाबूजी ने अपने समय में कई राजनीतिक हस्तियों के साथ काम किया। इनमें इंदिरा गांधी, जगदीश टाइटलर, इंद्र कुमार गुजराल जैसे नाम शामिल हैं। उनके साथ दिल्ली में काफी दिनों तक रहकर काम किया। फिर इलाहाबाद लौटे और यहां शहर का पहला कपड़े पर अखबार- यूथ काउंसिल शुरू किया। उन्होंने एंटी डाउरी सेल भी बनाया जिसने दहेज पीड़ित कई युवतियों को उनका हक दिलाने में अहम भूमिका अदा की। इसके साथ ही उन्होंने फोरम फॉर सोशल रिफॉर्म नाम की संस्था की भी नींव रखी जिसका संचालन मैं आज भी कर रहा हूं।1987-88 में जब मैं मेडिकल की पढ़ाई कर रहा था तो मेरे बाबूजी द्वारिका धर्मार्थ चिकित्सालय का संचालन करते थे। उस समय शहर के कई नामी-गिरामी चिकित्सकों ने उसमें निशुल्क सेवाएं प्रदान की थीं। मेरे मौसा जी ने भी सामाजिक कार्यों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। वह सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड चीफ जस्टिस थे और उनका नाम जगदीश शरण वर्मा है। एक बात और, हमारे घर में राजनीतिक विचारधारा का मकसद और मतलब वंचितों की मदद करना था। हम किसी पार्टी के नहीं बल्कि मानवता को लेकर ज्यादा सजग रहे।
सवाल : कोई गीत या फिल्म जो आपके जीवन में प्रेरणास्पद रही हो?
जवाब : एक फिल्म जो मुझे हमेशा समाज के लिए कुछ नया और अलहदा करने के लिए प्रेरित करती है वो है आशुतोष गोवारिकर की स्वदेश। इस फिल्म में शाहरूख खान ने एक नासा इंजीनियर का किरदार निभाया है जो अपने गांव लौटता है तो पाता है कि यहां तो बहुत सी कमियां हैं। गांव में बिजली नहीं है। फिर वो सीमित संसाधनों के सहारे जनरेटर बनाकर टरबाईन से बिजली पैदा करता है और गांव रोशन हो जाता है। फिल्म बेहतरीन है। मुझे सीखने को मिला कि आपकी शिक्षा कैसे आपके अपनों की जिन्दगी संवार सकती है। विद्या का धन कभी बेकार नहीं जाता। मैं भी कुछ इसी जुगत में लगा हूं।
सवाल : सबके पास जीवन को जीने का एक तरीका या कहें एक मंत्र होता है। आपके जीवन का मंत्र क्या है?
जवाब : संतुष्ट जीवन, सफल जीवन से सदैव श्रेष्ठ होता है क्योंकि सफलता का आंकलन हमेशा दूसरे करते हैं और संतुष्टि अपने मन और मस्तिष्क से मिलती है, सो मेरा मंत्र है हमेशा ऐसा काम करो जिससे आपको शांति और संतुष्टि मिले। हो सकता है लोग मिलें और कहें कि आपने तो वो सोचा था लेकिन वैसा हुआ नहीं... तो मेरा ऐसे लोगों से कहना है, सफलता नहीं मिली तो क्या हुआ? ऐसे तो ईश्वर भी हमें साक्षात कहां मिलते हैं लेकिऩ फिर भी हम आस्थावान क्या पूजा करना छोड़ देते हैं। इसलिए सफलता के लिए दिशा जरूरी है यानी परिश्रम करते रहिए और सब समय पर छोड़ दीजिए।
सवाल : आपको क्यों लगता है कि राजनीति के जरिए ही हालात सुधर सकते हैं। इलाहाबाद की ऐसी कौन सी समस्याएं है जो आपको बेहद सालती हैं।
जवाब : जैसे ही मैंने चीजों को समझना बूझना शुरू किया तो मुझे लगा कि मेरे शहर की सुध तभी ली जाती है जब कुंभ आने वाला होता है। यहां आम इलाहाबादी से भी बात करें तो यह बोलते पायेंगे कि 'कुंभ में बन जाईगा सड़क'...लोगों की ये बातें मुझे सालती हैं मेरा दिल दुखाती हैं। खैर, फिर मैंने ईमानदारी से मेहनत की और चिकित्सक बन गया। जब भी यहां आता घर-परिवार, यार दोस्तों से मिलता। शहर की गलियों-चौराहों पर जाता तो वही हालात देखता जो पिछली बार देखकर जाता था। कष्ट होता था। लगता था कि हमारे इंफ्रास्ट्रक्चर, सड़कें, रोजगार और सेफ्टी के क्षेत्र में भी विकास की छाप हो। ये कभी नहीं चाहा कि अराजक तत्व हम पर राज करें। लोग यही चाहते हैं कि उनके बीच से कोई साफ सुथरी छवि वाला शख्स राजनीति करे। मैं भी एक आम भारतीय की तरह ही हूं। मेरा भी सपना अपने प्रधानमंत्री की ही तरह देश को भ्रष्टाचार, अज्ञानता, रिश्वतखोरी और सामाजिक असमानता से आजाद कराने का है। इन्हीं चीजों ने मुझे राजनीति में कदम रखने के लिए प्रेरित किया। मुझे लगता है कि पॉलिटिक्स आपको सीधे तौर पर समाज से जुड़ने के लिए एक सटीक प्लेटफॉर्म देती है जिससे आप जरूरतमंदों के साथ मिलकर काम कर सकें।
सवाल : ऐसा क्यों लगता है कि किसी राजनीतिक पद पर आकर ही हालात सुधारे जा सकते हैं?
जवाब : अभी तक मैंने बतौर चिकित्सक मरीजों का ख्याल रखा और समाज के लिए अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन अपनी सीमाओं में रहते हुए ही फ्री हेल्थ चेकअप कैंप्स लगा कर किया। मैंने कई विद्यालयों, गांवों, वृद्धाश्रमों और कार्यालयों में लोगों की सेहत जांची और मुझे ऐसा महसूस होता है कि अगर मैं किसी जिम्मेदार राजनीतिक पद पर आसीन होऊंगा तो मैं अपनी सम्पूर्ण योग्यता के साथ सामाजिक कार्य को अंजाम दे सकूंगा। इसीलिए मुझे ऐसा लगता है कि किसी जिम्मेदार राजनीतिक पद पर आकर ही मैं समाज के सभी वर्गों के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकता हूं।
सवाल : लोग अब आपको किस भूमिका में देखना चाहते हैं?
जवाब : लोग मुझे एक सफल कर्तव्यनिष्ठ डॉक्टर के तौर पर जान रहे हैं, परंतु अब वे मुझमें एक कर्तव्यपरायण, दूसरों की सहायता को सदैव तत्पर रहने वाले अनुशासन प्रिय सफल नेता की छवि देखने लगे हैं। जाहिर है मैं अपने इलाहाबादियों की इन अपेक्षाओं को हतोत्साहित नहीं होने देना चाहता। इलाहाबाद के इतिहास में आज तक भाजपा का कोई मेयर नहीं बन पाया है। मैं ऐसा सोचता हूं कि नेताओं की छवि से इतर विकास के मूल मंत्र को अपनाकर एक ऐसा जनप्रतिनिधि बन सकूं जो दिखता भले ही शर्ट-पैंट-टाई में हो लेकिन समाज की जमीनी हकीकत की जानकारी परंपरागत नेताओं के मुकाबले कहीं बेहतर रखता हो। समाज बदल रहा है, देश बदल रहा है। जाहिर है नेताओं को भी अपनी नेतागिरी की परंपरागत छवि से बाहर निकलना होगा। विकास को राजनीति यानी नेतागिरी से अलग रखना होगा। आखिर हमारे प्रधानमंत्री भी तो यही चाहते हैं।