अपनों से घिरी मोदीनॉमिक्स
प्रवीण कुमार
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हाल ही में जब कंपनी सचिवों को संबोधित कर रहे थे तो उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ नजर आ रही थी। उनका यह भाषण आरबीआई द्वारा इस साल के वृद्धि दर अनुमानों को कम करने के कुछ ही घंटे बाद हुआ था। इस भाषणमाला में वह पुराने मोदी नजर आए। वही पुराना गुस्सा, वही आत्मविश्वास और लड़ने का माद्दा। लेकिन चूंकि अब वह सरकार के मुखिया हैं, लिहाजा 2013 के बाद नरेंद्र मोदी पहली बार जूझते नजर आए। उनकी लड़ाई बेहद रक्षात्मक थी। उन्होंने बार-बार अपने तीन साल के कार्यकाल की तुलना कांग्रेस सरकार के आखिरी तीन साल के कार्यकाल से की जबकि संप्रग-2 के आखिरी तीन साल बहुत बुरे थे। बीते कुछ सप्ताह में मोदी सरकार के कदम भी इसी बात की गवाही देते दिख रहे हैं। इसके बाद हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर में एक जनसभा में प्रधानमंत्री मोदी ने नकारात्मक और निराशावादी लोगों पर हमला किया। ठीक उसी तरह जैसे इंदिरा गांधी ने अपने संकट के दिनों में 'उन्माद फैलाने वालों' पर किया था। आखिर तीन साल के अल्पकाल में मोदी सरकार के समक्ष ये मुश्किलें क्यों खड़ी हो गई हैं?
भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी ने मोदी सरकार के एक साल पूरे होने पर 2015 में मोदीनॉमिक्स पर दिशाहीन तरीके से काम करने का आरोप लगाते हुए कहा था कि देश में त्रिमूर्ति सरकार चल रही है। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में विनिवेश मंत्री रहे अरूण शौरी ने दो साल बाद एक बार फिर चरमराती भारतीय अर्थव्यवस्था पर गंभीर सवाल उठाते हुए कहा है कि देश में ढाई लोगों की सरकार चल रही है। हालांकि इस बार देश के आर्थिक हालात पर सवाल उठाने वाले अरूण शौरी अकेले नहीं हैं। भाजपा और आरएसएस के अंदर से ही कई आवाजें उठी हैं जिसमें यशवंत सिन्हा, सुब्रमण्यम स्वामी, एस. गुरुमूर्ति, मोहन भागवत आदि शामिल हैं। कहने का मतलब यह कि मोदीनॉमिक्स पर अपने ही लोग सवाल उठा रहे हैं। और जब सरकार के कामकाज पर अपने ही सवाल खड़े करने लग जाएं तो प्रधानमंत्री के चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंचना और रक्षात्मक मुद्रा अपनाना जरूरी हो जाता है।
अर्थव्यवस्था में सुस्ती को लेकर सवालों से घिरी मोदी सरकार में अब वित्तीय घाटा भी बढ़ने की खबर आई है। अप्रैल से जून तिमाही में वित्तीय घाटा 4.07 लाख करोड़ से बढ़कर 5.25 लाख करोड़ हो गया है। आंकड़ों के मुताबिक यह वित्त वर्ष 2018 के बजट का 19.1 फीसदी है। वित्तीय घाटा लक्ष्य के 96.1 प्रतिशत पर पहुंच गया है। 2017-2018 में वित्तीय घाटे का लक्ष्य 5.45 लाख करोड़ रखा गया था। साल दर साल आंकड़ों के मुताबिक पूंजी खर्च 91,300 करोड़ से बढ़कर 1.1 लाख करोड़ हो गया है। हालांकि राहत की बात यह है कि डायरैक्ट टैक्स कलैक्शन से सरकार की आमदनी बढ़ी है। अर्थव्यवस्था को लेकर लगातार हमले झेल रहे वित्त मंत्री अरुण जेटली का कहना है कि सरकार ने भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने और अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कई प्रयास किए हैं। हमें विरासत में महंगाई दर 9 से 10 प्रतिशत के पास मिली थी जो अब 3.6 प्रतिशत तक आ चुकी है। डायरैक्ट टैक्स पिछले साल की तुलना में 15.7 प्रतिशत ज्यादा आया है।
मोदीनॉमिक्स पर असल विवाद तब शुरू हुआ जब भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने Need to speak up now हेडलाइन से अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखा। लेख में यशवंत सिन्हा ने लिखा, देश के वित्त मंत्री ने अर्थव्यवस्था का जो 'कबाड़ा' किया है, उस पर अगर मैं अब भी चुप रहा तो राष्ट्रीय कर्तव्य निभाने में विफल रहूंगा। मुझे यह भी मालूम है कि जो मैं कहने जा रहा हूं बीजेपी के ज्यादातर लोगों की यही राय है पर वे डर के कारण बोल नहीं पा रहे हैं। यशवंत सिन्हा ने तंज कसते हुए कहा, 'प्रधानमंत्री दावा करते हैं कि उन्होंने गरीबी को काफी करीब से देखा है। ऐसा लगता है कि उनके वित्त मंत्री ओवर-टाइम काम कर रहे हैं ताकि वह सभी भारतीयों को गरीबी को काफी नजदीक से दिखा सकें।
यशवंत ने लिखा, 'इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था की तस्वीर क्या है? निजी निवेश काफी कम हो गया है, जो दो दशकों में नहीं हुआ। औद्योगिक उत्पादन ध्वस्त हो गया, कृषि संकट में है, निर्माण उद्योग जो ज्यादा लोगों को रोजगार देता है उसमें भी सुस्ती छायी हुई है। सर्विस सेक्टर की रफ्तार भी काफी मंद है। निर्यात भी काफी घट गया है। अर्थव्यवस्था के लगभग सभी क्षेत्र संकट के दौर से गुजर रहे हैं। नोटबंदी एक बड़ी आर्थिक आपदा साबित हुई है। ठीक तरीके से सोची न गई और घटिया तरीके से लागू करने के कारण जीएसटी ने कारोबार जगत में उथल-पुथल मचा दी है। कुछ तो डूब गए और लाखों की तादाद में लोगों की नौकरियां चली गईं। नौकरियों के नए अवसर भी नहीं बन रहे हैं।
एक के बाद दूसरे तिमाही में अर्थव्यवस्था की विकास दर में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। मौजूदा वित्त वर्ष के पहले तिमाही में विकास दर 5.7 पर आ गई, जो तीन साल में सबसे कम है। सरकार के प्रवक्ता कह रहे हैं कि इस मंदी के लिए नोटबंदी जिम्मेदार नहीं है। वे सही हैं। मंदी काफी पहले से शुरू हो गई थी, नोटबंदी ने केवल आग में घी डालने का काम किया है। प्रधानमंत्री चिंतित हैं। विकास को रफ्तार देने के लिए वित्त मंत्री ने पैकेज देने का वादा किया है। हम सभी बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। नई चीज इतनी हुई है कि प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद का पुनर्गठन हुआ है।
इस साल मॉनसून अच्छा नहीं रहा है। इससे किसानों की परेशानी बढ़ेगी। किसानों को कुछ राज्य सरकारों ने लोन माफी भी दी है, जो कुछ मामलों में एक पैसे से लेकर कुछ रुपये तक है। देश की 40 बड़ी कंपनियां पहले से ही दिवालिया होने के कगार पर हैं। कई और कंपनियां भी दिवालिया हो सकती हैं। एसएमई सेक्टर भी संकट में है। सरकार ने इनकम टैक्स डिपार्टमेंट से उनकी जांच करने को कहा है जिन्होंने बड़े क्लेम किए हैं। कई कंपनियों खासतौर से एसएमई सेक्टर में कैश फ्लो की समस्या बनी हुई है लेकिन अब वित्त मंत्रालय इसी तरीके से काम कर रहा है। जब हम विपक्ष में थे तो रेड राज का हमने विरोध किया था। आज यह सब ऑर्डर ऑफ डे हो गया है।
सिन्हा ने यह भी लिखा है कि अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने में समय लगता है पर उसे आसानी से तबाह किया जा सकता है। 90 के दशक और 2000 के समय में अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में करीब चार साल का वक्त लगा था। किसी के पास जादू की छड़ी नहीं है, जो वह घुमाए और रातों-रात अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आए। अभी उठाए गए कदमों का परिणाम आने में वक्त लगेगा। अगले लोकसभा चुनाव तक अर्थव्यवस्था में रफ्तार की उम्मीद नहीं की जा सकती है। सिन्हा ने कहा कि दिखावा और धमकी चुनाव के लिए तो ठीक है पर वास्तविक हालात में यह सब गायब हो जाता है।
वित्त मंत्री अरुण जेटली पर सीधा-सीधा हमला बोलते हुए यशवंत सिन्हा ने लिखा कि इस सरकार में वह अभी तक सबसे बड़ा चेहरा रहे हैं। कैबिनेट का नाम तय होने से पहले ही यह तय माना जा रहा था कि जेटली ही वित्त मंत्री बनेंगे। अपनी लोकसभा सीट हारने के बाद भी उन्हें मंत्री बनने से कोई नहीं रोक सका। यशवंत सिन्हा ने लिखा कि इससे पहले अटल सरकार में जसवंत सिन्हा और प्रमोद महाजन को वाजपेयी का करीबी होने के बावजूद मंत्री नहीं बनाया गया था, लेकिन जेटली को वित्त मंत्रालय के साथ ही रक्षा मंत्रालय भी मिला। वो भी लोकसभा चुनाव हारने के बाद।
इतनी सारी बातें अपनी ही सरकार के खिलाफ लिखने और फिर कई न्यूज चैनलों व सार्वजनिक कार्यक्रम में बयां करने के बाद मोदीनॉमिक्स के तमाम विरोधी चाहे वो सत्ता पक्ष के लोग हों या फिर विपक्ष के लोग हों, बाढ़ सी आ गई। इस परिप्रेक्ष्य में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बात की अनदेखी नहीं कर सकते हैं कि अधिकांश अहम वृहद आर्थिक कारक लगातार गिरावट पर हैं। सच यह भी है कि भारतीय रिजर्व बैंक ने वर्ष की अनुमानित वृद्धि दर को कम कर दिया। उसने सरकार को मजबूती से यह सलाह दी है कि वह राजकोषीय अनुशासन को बरकरार रखे और साथ ही साथ ढांचागत सुधारों की दिशा में भी आगे बढ़ती रहे। सरकारी बैंकों की सेहत दुरुस्त करना भी इसी प्रक्रिया का हिस्सा है। यह ठीक है कि लोगों को अर्थव्यवस्था के भविष्य के बारे में आश्वस्त करना जरूरी है, लेकिन प्रधानमंत्री अपनी बातों पर अमल करना चाहते हैं तो उनकी सरकार को अभी काफी कुछ करना होगा।
याद करें साल 1991 में जब अर्थव्यवस्था का पराभव हुआ तब इसकी वजह बना था विदेशी मुद्रा का अभाव। आज अर्थव्यवस्था इसलिए डूब रही है क्योंकि विदेशी मुद्रा का पर्याप्त भंडार होने के बावजूद हमारे पास रुपये की कमी है। जनवरी 1991 में देश में केवल 1.1 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार बचा था। आज हमारे पास 400 अरब डॉलर मूल्य की विदेशी मुद्रा है। उस वक्त देश का राजकोषीय घाटा भी 8 फीसदी से ऊपर था जबकि आज यह 3.5 फीसदी के आसपास है। यह बात एकदम साफ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आर्थिक वृद्धि दर की मदद के लिए ही काले धन को उजागर करने और इस तरह सरकार की वित्तीय स्थिति दुरुस्त करने के लिए नोटबंदी जैसा बड़ा कदम उठाया। मोदी सरकार के प्रयासों में चाहे जितनी भी नेकनीयती हो, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि मोदीनॉमिक्स की वजह से अर्थव्यवस्था में नकदी का घोर संकट उत्पन्न हुआ है। इस हालात में सरकार की पहली और सहज जिम्मेदारी बनती है अर्थव्यवस्था में नकदी दोबारा बहाल करना। मतलब यह कि नई नीति का सबसे अहम तत्व होना चाहिए उस नुकसान को कम करना जो अर्थव्यवस्था को नोटबंदी के बाद हुआ है।
इसके लिए मोदी सरकार को बैंकों को कहना होगा कि वे ऋण देना शुरू करें और बैलेंस शीट के बारे में अपनी बनाई हुई धारणा पर आश्रित नहीं रहें। यह संप्रभु शक्ति का बेहतरीन इस्तेमाल होगा। ऐसे भी विमुद्रीकरण के बाद इन सभी बैंकों के पास भरपूर नकदी है। आरबीआई से और अधिक नकदी लेने की जरूरत है भले ही यह राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को प्रभावित करे। आखिर तीन फीसदी के लक्ष्य की ही क्या वैधता है? छोटे देशों और अर्थव्यवस्थाओं के लिए यह ठीक हो सकता है लेकिन भारत जैसे विशाल देश के लिए यह आंकड़ा सही नहीं है। हम आसानी से 5 फीसदी तक के राजकोषीय घाटे के लक्ष्य पर रह सकते हैं। जीएसटी से संबंधित मुश्किलों को एक हद तक सरकार ने दुरुस्त कर लिया है। इसके अलावा कर अधिकारियों द्वारा की जाने वाली निरंतर प्रताड़ना को भी रोकना होगा। इसकी शुरुआत भले ही यूपीए के कार्यकाल में हुई थी लेकिन अब वक्त है इस पर विराम लगाने का। इससे कुछ हासिल नहीं हो रहा है, उलटे नाराजगी व निराशा का माहौल तैयार हो रहा है। एक और बात जो महत्वपूर्ण है वह यह कि नौकरशाही की अनुशंसाओं से परे होकर निर्णय लेने की आदत सरकार को डालनी होगी। नौकरशाही का रुझान धन खर्च करने में अधिक रहता है। वह सत्ता गंवाना नहीं चाहती। इसलिए जब तक देश में ऐसी सरकार नहीं आती, जिसकी नीतियां नौकरशाही न बनाए तब तक हम मंदी से निकलने की जद्दोजहद में ही लगे रहेंगे।
मोदीनॉमिक्स सैद्धांतिक तौर पर तो एक सुसंगत आर्थिक कार्यक्रम नजर आता है, परंतु अवधारणा और क्रियान्वयन के स्तर पर यह बेहद कमजोर है। इसमें समस्याओं को गलत तरीके से समझा गया। ऐसे में निदान सही होना कैसे संभव है। मसलन, इसमें माना गया कि उच्च बुनियादी व्यय से निजी निवेश की कमी को दूर किया जा सकता है, सरकारी व्यय से निजी निवेश आएगा क्योंकि इससे प्रतिफल कहीं अधिक आकर्षक हो जाएंगे। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। निजी निवेशक अभी भी अतिरिक्त क्षमता, कमजोर मांग और निवेश की सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं। इसीलिए निजी निवेश और वृद्धि दोनों कमजोर हैं। फंसे हुए कर्ज से निपटने जैसी समस्याओं को भी प्राथमिकता नहीं दी गई। यहीं पर कुप्रबंधन की शुरुआत हो गई। सरकार ने इन समस्याओं की ओर ध्यान देने में बहुत अधिक समय लगा दिया। सरकार के मंत्रियों ने भी अक्सर इसकी निर्णय क्षमता की बात की है, लेकिन जहां राजनीतिक जोखिम वाले फैसलों की जरूरत थी, वहां अब तक कोई खास पहल देखने को नहीं मिली है। आर्थिक तेजी वाले दिनों में उपभोक्ताओं, सरकारी बैंकों और प्रवर्तकों से जुड़े मामले इसमें शामिल हैं। ऐसे में कहा जा सकता है कि सरकार ने निर्णय लेने के मोर्चे पर लापरवाह रवैया अपनाया। सरकार को पहले दिन से पता था कि बैंकिंग क्षेत्र संकट में है लेकिन वह समस्या को हल करने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठा सकी।
बहरहाल, तमाम अच्छी-बुरी खबरों के बीच हर कोई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अगले बड़े विचार के बारे में सोच रहा है। किसी भी राजनीतिक विचारधारा के किसी भी व्यक्ति ने देश के इस हालात में पहुंचने के बारे में नहीं सोचा था। पिछले साल के अंत तक मोदी सरकार इन बातों को लेकर अपराजेय और आश्वस्त मानी जा रही थी। भारत दुनिया की सबसे तेज विकसित होती अर्थव्यवस्था वाला देश बन रहा है, आशावादी वर्ग यह दलील देकर ही संदेह करने वालों को चुप करा देता था। कारोबारी समाचार जगत ने भी बदलाव का पूरा इंतजार किया। प्रमुख कारोबारी समर्थकों को उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री के जीवंत नेतृत्व में देश की अर्थव्यवस्था लाभान्वित होगी। लेकिन अचानक से अब केवल यही चिंता सताने लगी है कि वृद्धि को कैसे आगे बढ़ाया जाए और रोजगार कैसे तैयार हों। जो संदेह अब तक दबे और ढके हुए थे वे अब एकदम से मुखर हो गए हैं। इस साल जनवरी तक किसी को यह संदेह नहीं था कि भाजपा को 2019 के चुनाव में किसी तरह की चुनौती का सामना करना पड़ेगा। लेकिन जिस तरह के हालत में देश खड़ा है, अब पूरे भरोसे से इस बात को दोहराया नहीं जा सकता है।
अपनों ने अब तक क्या-क्या कहा?
भाजपा की आर्थिक नीति डुबो देगी देश को : स्वामी
सुब्रमणियम स्वामी भाजपा के बड़े नेता हैं और नरेंद्र मोदी के प्रशंसक भी, लेकिन वह हमेशा खुलकर अपनी बात रखते हैं चाहे सरकार में रहें या विपक्ष में। स्वामी के बारे में ऐसा माना जाता है सही बात बोलने के दौरान वह इस बात का बिल्कुल ख्याल नहीं रखते कि वह किस पार्टी या सरकार का हिस्सा हैं। पिछले महीने नेटवर्क-18 न्यूज चैनल को दिए एक इंटरव्यू में साफ-साफ कहा है कि देश की आर्थिक स्थिति ध्वस्त होने के कगार पर पहुंच गया है। उन्होंने कहा कि अर्थव्यवस्था निराशा की ओर बढ़ रही है। इससे पहले मई 2016 में भी स्वामी ने चेतावनी दी थी की मोदी जल्दी कुछ करें वरना ये आर्थिक नीति देश को डूबो देगी। स्वामी ने कहा कि भारतीय अर्थव्यवस्था प्रमुख अवसाद की ओर बढ़ रही है और यदि प्रयासों को फिर से शुरू नहीं किया जाए तो जल्द ही डूब सकती है। उन्होंने बताया कि राज्यसभा के एक सांसद ने दावा किया कि एक साल पहले ही उन्होंने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को एक 16 पन्ने का पत्र लिखा था, जिसमें उन्हें अर्थव्यवस्था के बारे में चेतावनी दी थी। उन्होंने ब्याज दरों को कम करने का भी सुझाव दिया है जो छोटे और मध्यम उद्योगों को आगे बढ़ने और रोजगार चक्र शुरू करने के लिए मिलेंगे। इसके साथ ही उन्होंने फिक्स्ड डिपॉजिट पर ब्याज दरें बढ़ाने की भी वकालत की। ब्याज दरों को 9 प्रतिशत तक नीचे लाया जाना चाहिए और सावधि जमा ब्याज दर भी 9 प्रतिशत से बढ़ाकर बचत को प्रोत्साहित करना चाहिए। ब्याज दर एक ऐसा साधन है जो छोटे और मध्यम उद्योगों को प्रभावित करता है। बड़े उद्योग विदेशों से भी पैसे उधार ले सकते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में 2 प्रतिशत के लिए उधार ले सकते हैं। जबकि, यहां यह 12 प्रतिशत से 18 प्रतिशत पर है, जो बहुत ही बुरा है। इसका नुकसान छोटे और मध्यम उद्योगों को हुआ है, जो रोजगार का थोक में उत्पादन करते हैं। रोजगार चक्र शुरू करना चाहिए और यह तब हो सकता है जब देश के छोटे और मध्यम उद्योग आगे बढ़ेंगे। इसके लिए पूंजी की लागत कम होनी चाहिए।
लगातार नीचे जा रही है अर्थव्यवस्था : एस. गुरुमूर्ति
आर्थिक समीक्षक, तमिल पत्रिका तुगलक के संपादक और स्वदेशी जागरण मंच के सह संयोजग एस. गुरुमूर्ति ने भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए सरकार का हस्तक्षेप जरूरी है। गुरुमूर्ति ने कहा कि अब यह स्थिति ज्यादा समय तक नहीं चल सकती। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि यह वही गुरुमूर्ति हैं जो नरेंद्र मोदी के नंबर वन समर्थक रहे हैं। संघ-स्वदेशी को भाजपा में जिन्हें आर्थिक चिंतक माना जाता है। जो अनौपचारिक बातचीत में करीबियों के बीच कहते रहे हैं कि नोटबंदी गोल्डन चेप्टर है और नरेंद्र मोदी ही ऐसा कर सकते थे। उन्होंने यह भी कहा था कि नरेंद्र मोदी आर्थिक क्रांति लाएंगे। मद्रास स्कूल ऑफ इक्नॉमिक्स में आयोजित एक कार्यक्रम में नोटबंदी पर दिए अपने व्याख्यान में गुरुमूर्ति का कहना था कि मुझे लग रहा है कि हम नीचे जा रहे हैं। चाहे फंसे हुए कर्ज (एन.पी.ए.) को लेकर हो या मुद्रा (माइक्रो यूनिट्स डिवैल्पमैंट एंड रीफाइनैंस एजैंसी बैंक) के संबंध में। सरकार को जल्द कोई फैसला लेना होगा। उन्होंने कहा कि मैं यहां सरकार का बचाव करने नहीं आया हूं। नोटबंदी के फायदे थे लेकिन उस पर इतना खराब अमल हुआ कि काला धन रखने वाले बच गए। नकदी के खत्म होने से आर्थिकी के उस अनौपचारिक क्षेत्र को लकवा मार गया है जो 90 प्रतिशत रोजगार देता था और जिसको 95 प्रतिशत पूंजी बैंकों के बाहर से मिलती थी। नतीजतन कुल उपभोग और रोजगार जड़ हो गया है। आज छोटे कामों का अनौपचारिक क्षेत्र 360.480 प्रतिशत की ब्याज दर पर पैसा उधार ले रहा है। गुरुमूर्ति ने कहा कि अगर अगले 6 महीने में 2-3 कड़े फैसले लिए जाते हैं तो अर्थव्यवस्था वापस पटरी पर आ सकती है। स्वदेशी जागरण मंच के सह-संयोजक गुरुमूर्ति का यह विश्लेषण भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी के उस बयान के बाद आया है जिसमें उन्होंने अर्थव्यवस्था के अनियंत्रित होने की बात कही थी। अपने संबोधन में गुरुमूर्ति का कहना था कि सरकार जल्दबाजी में बहुत कुछ कर रही है। नोटबंदी, एनपीए नियम, दिवालियापन कानून, जीएसटी और काले धन पर जोर एक बार में इतना सब हो रहा है। व्यापार में इतना सब एक साथ नहीं होता।
पूरे देश में विकास पागल हो गया है : शिवसेना
शिवसेना ने भी भारतीय अर्थव्यवस्था की खराब हालत को लेकर मोदी सरकार को चुनौती दी है और कहा है कि अगर यशवंत सिन्हा गलत हैं तो साबित करें। मुखपत्र सामना ने संपादकीय में लिखा है कि गुजरात में लोग कह रहे हैं कि विकास पागल हो गया है। सिर्फ गुजरात ही क्यों, पूरे देश में विकास पागल हो गया है की तस्वीर भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता सामने ला रहे हैं। संपादकीय में आगे लिखा गया है, 'सिन्हा गलत होंगे तो सिद्ध करो कि उनके द्वारा लगाए गए आरोप झूठे हैं। सिन्हा कोई ऐरे-गैरे नहीं हैं। अटल बिहारी वाजपेयी के मंत्रिमंडल में वह वित्त मंत्री थे इसलिए उनके बयान को सोशल मीडिया पर नियुक्त कए गए वेतनधारी प्रचारकों की फौज झूठा साबित नहीं कर सकती। शिवसेना ने आगे लिखा है कि राहुल गांधी ने भी कहा है कि विकास को लेकर बड़ी-बड़ी बातें की गयी इसलिए विकास पागल हो गया है। अर्थव्यवस्था के बड़े दिग्गज और जानकार डॉ. मनमोहन सिंह और पी. चिदंबरम जैसे लोगों ने इस मुद्दे पर बोला तो उन्हें ही पागल करार देने की कोशिश की गयी। लेकिन अब भाजपा के पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा ने ये बात कही है तो वे उन्हें बईमान और राष्ट्रद्रोही घोषित कर देंगे। शिवसेना ने आगे लिखा कि इन दिनों कई मामलो में सरकारी योजनाओ की धज्जिया उड़ रही है, फिर भी फर्जी विज्ञापन का डोज देकर सफलता का ढोल बजाया जा रहा है।
बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी : शत्रुघ्न सिन्हा
भाजपा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा ने भी भारतीय अर्थव्यवस्था की खराब हालत को लेकर यशवंत सिन्हा की बातों का समर्थन किया है। उन्होंने ट्विटर पर लिखा कि यशवंत सिन्हा एक बड़े नेता हैं और वह देश के सबसे सफल वित्त मंत्रियों में रहे हैं। यशवंत सिन्हा ने भारत की आर्थिक स्थिति को लेकर सरकार को आईना दिखाया है और इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए। शत्रुघ्न सिन्हा ने पीएम मोदी को सलाह दी है। बिहारी बाबू के नाम से मशहूर शत्रुघ्न सिन्हा ने ट्वीट किया है कि अर्थव्यवस्था के हालात पर यशवंत सिन्हा के विचार का मैंने और दूसरे विचारवान नेताओं ने भरपूर समर्थन किया है। हमारी पार्टी के लोग और बाहरी लोग भी उनके साथ हैं। इस मुद्दे को यशवंत सिन्हा बनाम सरकार या यशवंत सिन्हा बनाम अरुण जेटली के बीच का मुद्दा बनाकर खत्म नहीं किया जाना चाहिए, जैसा कि कोशिश हो रही है अन्यथा जगजीत सिंह के शब्दों में 'बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी'। शत्रुघ्न सिन्हा ने कहा, इस लोकतंत्र के माननीय प्रधानमंत्री के लिए ये सही वक़्त है कि वो सवाल-जवाब के लिए जनता और प्रेस के सामने आएं। उम्मीद और दुआ करता हूं कि कम से कम एक बार हमारे प्रधानमंत्री ये दिखाएं कि वो मिडिल क्लास, कारोबारियों और छोटे व्यापारियों की चिंता करते हैं।
एक ही मॉडल हर जगह नहीं चल सकता : मोहन भागवत
विजयदशमी के मौके पर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने नागपुर में कहा कि आर्थिक मोर्चे पर सरकार के फैसलों का अध्ययन होना चाहिए। एक मॉडल हर जगह नहीं चल सकता। हर देश का अपना मॉडल होता है। भागवत ने कहा कि सरकार की आर्थिक नीतियां सभी वर्गों का भला करने वाली होनी चाहिए। मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों पर यशवंत सिन्हा की तल्ख टिप्पणी के बाद संघ प्रमुख मोहन भागवत ने मोदी सरकार को आगाह करते हुए कहा है कि आर्थिक सुधार और नीतियां बनाते समय जमीनी हकीकत को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। संघ प्रमुख ने कहा कि आर्थिक नीतियां तय करते समय उनमें रोजगार सृजन और उचित पारिश्रमिक को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। सरकार को चाहिए कि वह लोगों में उद्यमिता को बढ़ावा दे। इसके लिए उनके कौशल विकास में मदद करे।
डर और डेमोक्रेसी एक साथ नहीं चलते हैं : यशवंत सिन्हा
भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व वित्त व विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा का मानना है कि डर और डेमोक्रेसी एक साथ नहीं चलते। लोगों को संसदीय लोकतंत्र की महान परंपरा को बचाने के लिए आगे आना चाहिए। पीएम मोदी ने इशारों-इशारों में यशवंत सिन्हा पर निशाना साधा तो भाजपा के कद्दावर यशवंत सिन्हा ने पीएम मोदी के 'शल्य वृत्ति' का जवाब महाभारत के ही हिसाब से दिया। सिन्हा ने परोक्ष रूप से प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह पर निशाना साधते हुए उनकी तुलना दुर्योधन और दुःशासन से कर दी। कांग्रेस नेता मनीष तिवारी की किताब के विमोचन समारोह में यशवंत सिन्हा ने कहा, 'आजकल महाभारत में शल्य के चरित्र की चर्चा है, महाभारत में और भी चरित्र हैं, 100 कौरव थे, लेकिन हर कोई सिर्फ दो को जानता है दुर्योधन और दुशासन'। उन्होंने कहा कि इससे ज्यादा उन्हें कुछ कहने की जरूरत है क्या?
इससे पहले सीएनबीसी-आवाज़ के खास कार्यक्रम साक्षात्कार में यशवंत सिन्हा ने कहा कि नोटबंदी और जीएसटी के फैसले से भारत की आर्थिक हालत और खराब हुई है। ग्रोथ पर अभी बोलने की नौबत क्यों? इस सवाल पर बात करते हुए यशवंत सिन्हा ने कहा कि हर चीज का वक्त होता है। ग्रोथ को लेकर आंकड़े अभी आए हैं। देश की जीडीपी लगातार गिरती जा रही है। गिरावट बढ़ने के बाद बोलना जरूरी है। जीडीपी का 5.7 फीसदी पर आना एक बड़ी चिंता का विषय है। अब खामोश रहना राष्ट्र के साथ इंसाफ नहीं होगा। जीडीपी और नोटबंदी पर बात करते हुए उन्होंने आगे कहा कि ग्रोथ में गिरावट के बाद भी नोटबंदी की गई। कम ग्रोथ के वक्त नोटबंदी की जरूरत नहीं थी। नोटबंदी के मोर्चे पर सरकार पूरी तरह फेल हुई है। नोटबंदी को लेकर सरकार का गणित भी पूरी तरह से गलत साबित हुआ है। नोटबंदी पूरी तरह से अपने आप में गलत कदम था और इसका फैसला भी गलत वक्त पर किया गया। सरकार की नीयत ठीक बताते हुए यशवंत सिन्हा ने कहा कि सरकार की नीयत ठीक भले थी लेकिन उनकी नीति गलत साबित हुई है। नीयत और नीति के बहस में नहीं पड़ना चाहिए। सरकार को हर सूरत में जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी। सरकार की नीयत ठीक हो और नीति गलत होने की वजह से आप नाकामी हासिल करते हैं तो इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? अभी तकलीफ है लेकिन आगे अच्छे दिन आएंगे? के सवाल पर उन्होंने कहा कि शॉर्ट टर्म पेन और लॉन्ग टर्म गेन का तर्क ही गलत है। सरकार की जिम्मेदारी है कि परेशानी दूर करें। सांत्वना से जिंदगी नहीं चलती है, एक्शन चाहिए। सरकार की गलत नीतियों से बेरोजगारी बढ़ी है। नौकरी के मोर्चे पर सरकार अभी तक फेल रही है।
2014 में मोदी का समर्थन करना मेरी भूल थी : अरुण शौरी
भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी ने हिमाचल प्रदेश के कसौली में आयोजित एक कार्यक्रम में कहा कि नरेंद्र मोदी को 2014 में प्रधानमंत्री पद के लिए समर्थन देना उनकी भूल थी। दिवंगत संपादक और लेखक खुशवंत सिंह के नाम पर आयोजित साहित्य समारोह के उद्घाटन अवसर पर अपने संबोधन में शौरी ने कहा, मैंने कई गलतियां कीं। वीपी सिंह को समर्थन देकर और उसके बाद मोदी को समर्थन देकर। शौरी ने कहा, ये मत सोचिए कि आपके नेता सत्ता में आते ही बदल जाएंगे। उनके चरित्र को उनकी सत्यनिष्ठा के आधार पर परखिए। देखिए कि वो अपनी बातों पर कितने खरे हैं। अरुण शौरी ने कहा कि आज के नेता मैकियावेली (इटली का राजनीतिक दार्शनिक) के अनुयायी और आत्ममुग्ध हैं। उन्हें चमचागिरी पसंद है और खुद को पीड़ित बताने की आदत से पीड़ित हैं। शौरी ने कहा कि भाजपा के नेता नोटबंदी के बाद खुद को पीड़ित की तरह पेश कर रहे हैं। वो कह रहे हैं, नोटबंदी के बाद मुझे कितने जुल्म सहने पड़े। शौरी ने मीडिया की भी आलोचना की और कहा कि उसे भी अब कोई सच नहीं बता रहा है। मीडिया को सच पता करने के लिए नए तरीके इजाद करने होंगे।
इससे पहले एनडीटीवी को दिए एक इंटरव्यू में अरुण शौरी ने नोटबंदी पर मोदी सरकार को घेरा। अरुण शौरी ने कहा कि नोटबंदी का फैसला आत्महत्या करने जैसा था। नोटबंदी एक बहुत बड़ी मनी लाउंड्रिंग स्कीम थी, जिसे सरकार द्वारा काले धन को सफेद करने के लिए लागू किया गया था। इस बात का खुलासा आरबीआई गवर्नर ने भी किया है। अरुण शौरी ने कहा कि देश इस समय आर्थिक संकट से जूझ रहा है और यह संकट नासमझी में लिए गए जीएसटी के फैसले से पैदा हुए। सरकार ने इसे लागू करने में जल्दबाजी दिखाई। उन्होंने कहा कि जीएसटी के डिजाइन में कई बड़ी खामियां हैं। सरकार को तीन महीने में सात बार नियम बदलने पड़े। इसका सीधा असर छोटे और मझोले उद्योगों पर पड़ रहा है। यही नहीं, शौरी ने पीएम मोदी के नेतृत्व वाली सरकार को 'ढाई लोगों की सरकार' बताया। उन्होंने कहा कि आर्थिक नीति को लेकर बड़े फैसले एक चैंबर में बैठकर सिर्फ ढाई लोग (अरुण शौरी ने नरेंद्र मोदी, अमित शाह को एक-एक और अरुण जेटली को आधा लोग बताया) ले रहे हैं। वर्तमान सरकार का फोकस सिर्फ इवेंट मैनेजमेंट पर है। सिर्फ बड़े-बड़े दावों के लिए बड़े-बड़े आयोजन किए जाते हैं।