दिलीप कुमार की वजह से 1991 में जब प्रधानमंत्री बनने से चूक गए थे नारायण दत्त तिवारी
प्रवीण कुमार
नारायण दत्त तिवारी ने अपनी राजनीतिक जिंदगी में अनेक चुनाव जीते और कुछ हारे भी लेकिन 1991 का चुनाव हारने की टीस मृत्यु शैय्या तक उनके मन में गहरे तक पैठी रही। वे अक्सर खुले तौर पर इस दर्द को स्वीकारते भी थे। ऐसा ही एक वाक्या 24 अक्टूबर 2015 को नैनीताल में अपने विद्यालय सीआरएसटी इंटर कॉलेज पहुंचने के दौरान भी हुआ जब उन्होंने यह दर्द बयां किया था। उन्होंने 1991 के चुनाव की पूरी कहानी को बयां करते हुए कहा था कि दिलीप कुमार की वजह से वह यह चुनाव हारे और प्रधानमंत्री नहीं बन पाए। तिवारी के जीवन का सफर 17 साल की उम्र में ही एक बाल स्वतंत्रा संग्राम सेनानी के रूप में जेल जाने, अपने शुरुआती दौर में डॉ. राम मनोहर लोहिया जैसे राष्ट्रीय नेताओं को अपने गांव के लिए सड़क बनाने के आंदोलन में पहाड़ पर बुलाने और चीड़ की लकड़ियों-छालों को जलाकर चुनाव प्रचार करने से लेकर आज के दौर की उत्तराखंड की राजनीति तक बेहद उतार-चढ़ाव वाला रहा। लेकिन इस सबके बीच उनके मन में हमेशा पहाड़ और पहाड़ का विकास ही रहा। इसीलिए उन्हें विकास पुरुष के विशेषण से भी नवाजा जाता है।
उन्होंने राजनीतिक जीवन की शुरूआत प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से करने के बाद अपने दीर्घ राजनीतिक जीवन में कांग्रेस और बीच में तिवारी कांग्रेस बनाने के बाद इधर 2017 के उत्तराखंड विधान सभा चुनावों के दौरान भाजपा को समर्थन देने की घोषणा कर दी थी। उनका बचपन अपने जन्म व पैतृक स्थान पदमपुरी से इतर नैनीताल जिले के बल्यूटी गांव स्थित अपने ननिहाल में बीता था। एनडी के पिता पूर्णानंद तिवारी वन विभाग में अधिकारी थे, लेकिन महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के आह्वान पर पूर्णानंद ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। 1942 में वह अपने पिता की राह पर चलते हुए मात्र 17 वर्ष की उम्र में आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए और ब्रिटिश सरकार की साम्राज्यवादी नीतियों के खिलाफ नारे वाले पोस्टर और पंपलेट छापने और उसमें सहयोग देने के आरोप में पकड़े गए। इसपर उन्हें 14 दिसंबर 1942 को अंग्रेजी सरकार विरोधी पर्चे लिखने के आरोप में बरेली के बाल सुधार गृह भेजा गया। यहीं वह नाबालिग से बालिग हुए और बरेली के सेंट्रल जेल में स्थानांतरित किए गए थे। गौरतलब है कि इस दौरान उनके पिता बरेली जिला जेल में थे। 15 महीने की जेल की सजा काटने के बाद वह 1944 में आजाद हुए। इस दौरान ही उन्होंने खुट खुटानी, सुट विनायक यानी खुटानी में पैर रखो और तत्काल अच्छी सड़क-गाड़ी से विनायक पहुंचो तथा एक घंटा देश के लिए और बाकी पेट के लिए का नारा देते हुए स्थानीय लोगों को अपने गांव पदमपुरी, विनायक से खुटानी तक श्रमदान कर सड़क का निर्माण करने के लिए प्रेरित किया और करीब 10 किमी लंबी सड़क बना दी।
1991 की हार को एनडी ने कुछ इस तरह किया था बयां
1991 के लोकसभा चुनाव को याद करते हुए तिवारी ने बताया था, दिलीप साहब उन्हें चुनाव प्रचार के लिए बहेड़ी ले गए। (तब बरेली जिले की यह विधानसभा नैनीताल लोकसभा सीट का हिस्सा थी।) बहेड़ी में उर्दू व फारसी बोलने वाले लोगों की अधिकता है। दिलीप साहब ने उनसे मंच पर अरबी व फारसी में आजादी और आजादी की लड़ाई का मतलब पूछा, जिसका उन्होंने सही जवाब दे दिया। इस दौरान दिलीप साहब ने तिवारी को जिताने की जनता से अपील भी की। बकौल तिवारी उन्हें पता नहीं था कि दिलीप साहब का असली नाम ‘यूसुफ खान’ था। यही बात उनके खिलाफ गई। बहेड़ी की जनता में यह संदेश चला गया कि यूसुफ मियां उनकी सिफारिश कर रहे हैं और उन्होंने करीब साढ़े 11 हजार वोटों से तिवारी को चुनाव हरा दिया। उल्लेखनीय है कि यह वह दौर था, जब देश की राजनीति में कांग्रेस पार्टी की तूती बोलती थी और 21 मई 1991 को चुनाव प्रचार के दौरान ही श्रीपेरुमबुदूर में हुए एक आत्मघाती बम विस्फोट में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की मृत्यु हो गई थी और कांग्रेस के प्रति देश भर में एक तरह की सहानुभूति भी थी, बावजूद इसके भाजपा की ओर से बिल्कुल नए चेहरे बलराज पासी से लोकसभा की अन्य सभी विस क्षेत्रों में अधिक मत प्राप्त होने के बावजूद बहेड़ी विस में पड़े विरोधी मतों की वजह से हार का सामना करना पड़ा था। लेकिन कांग्रेस को बहुमत मिला था और इतिहास में दूसरी बार (लाल बहादुर शास्त्री के बाद) कांग्रेस पार्टी की ओर से किसी गैर गांधी-नेहरू परिवार के व्यक्ति के लिए प्रधानमंत्री बनने का मौका मिलना था।
तिवारी का अपनी वरिष्ठता के चलते दावा सर्वाधिक मजबूत था, लेकिन उनकी हार की वजह से पीवी नरसिम्हाराव को यह मौका मिला। हालांकि 1998 के चुनाव में हार के लिए तिवारी के जगदंबिका पाल संबंधी बयान को भी जिम्मेदार माना जाता है। वहीं 1998 के चुनाव में वह भाजपा की इला पंत (पूर्व केंद्रीय मंत्री स्व. कृष्ण चंद्र पंत की धर्मपत्नी) से लोस चुनाव हार गये थे। यह चुनाव 22 फरवरी को हुआ था। इससे ठीक एक दिन पहले कांग्रेसी नेता (वर्तमान में भाजपा में) जगदंबिका पाल सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव की मदद से भाजपा के कल्याण सिंह को हटाकर केवल तीन दिन के लिए (21 फरवरी 1998-23 फरवरी 1998) यूपी के मुख्यमंत्री बने थे। इसे मुलायम की संभल में लोस चुनाव हारने की संभावना के मद्देनजर हुआ जोड़-तोड़ माना जा रहा था। इस दौर में उत्तराखंड में राज्य आंदोलन भी आरक्षण आंदोलन के रूप में आगे बढ़ रहा था। मुलायम सिंह यूपी के मुख्यमंत्री के रूप में पहाड़ विरोधी माने जाते थे। इन परिस्थितियों के बीच में 22 फरवरी 1998 के समाचार पत्रों में तिवारी का बयान छपा था कि पाल के सीएम बनने से देश में धर्म निरपेक्ष ताकतें मजबूत होंगी। उनके इस बयान को क्षेत्रीय जनता ने मुलायम सिंह का समर्थन करने के रूप में लिया जिसका खामियाजा भी तिवारी को भाजपा से पहली बार चुनाव लड़ीं इला पंत से हार के रूप में भुगतना पड़ा। हालांकि तिवारी के करीबी कहते हैं कि वास्तव में पाल के मुख्यमंत्री बनने की खबर आते ही उनकी पहली स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी-पाल की अति महत्वाकांक्षा उन्हें कहीं का नहीं छोड़ेगी।
इस दौरान वे प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में थे और इस आंदोलन में शामिल होने के लिए डॉ. राम मनोहर लोहिया जैसे नेता भी पहुंचे थे। उनके कार्यकाल में ही नैनीताल, ऊधमसिंह नगर व हरिद्वार जिलों के मैदानी क्षेत्रों में एचएमटी फैक्टरी रानीबाग सरीखे उद्योगों के साथ सिडकुल व भीमताल में औद्योगिक क्षेत्र तथा अनेक स्कूल, कॉलेज, महाविद्यालयों के साथ ही आईटीआई व पॉलीटेक्निक स्थापित हुए और सड़कों का जाल बिछा। उनका लोकतंत्र में गजब का विश्वास था। उत्तराखंड विस में बसपा द्वारा अपनी सरकार के खिलाफ लाये गये अविश्वास प्रस्ताव पर तत्काल ही बहस और मतविभाजन कराना हो अथवा विपक्षी नेताओं को पूरा सम्मान देना, यह उनकी विशेषता थी। वह खासकर युवा विधायकों को अपने क्षेत्रों से बाहर देश-दुनिया पर नजर रखने को भी प्रोत्साहित करते थे।
कहा जाता है कि जब वे देश के उद्योग मंत्री थे, तब जो भी उद्योगपति उनके समक्ष उद्योग लगाने की अनुमति लेने आता था, वे उनसे एक उद्योग उत्तराखंड में लगाने को भी कहते थे। इस तरह उन्होंने तत्कालीन नैनीताल जिले के मैदानी क्षेत्रों में खासकर काशीपुर, खटीमा आदि में कई उद्योग स्थापित करवाए। उस दौर का एक किस्सा है कि किसी उद्योगपति ने उनसे बंदरगाह स्थापित करने की अनुमति मांगी थी तो उन्होंने नैनीताल, काशीपुर में भी एक बंदरगाह स्थापित करने को कह दिया था, जबकि बंदरगाह केवल समुद्रतटीय क्षेत्रों में ही स्थापित हो सकते थे।
बताया जाता है कि देश के आजाद होने के बाद एनडी तिवारी ने ही दिल्ली के लाल किले से ब्रिटिश सरकार के झंडे को उतारा था। वे तभी से देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के करीबी माने जाते थे। वे इलाहबाद छात्र संघ के अध्यक्ष भी बने और और वापस अपने गृह क्षेत्र लौटकर राज्य व देश की राजनीति प्रारंभ की। वे तीन बार उत्तर प्रदेश के और एक बार उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने, साथ ही केंद्र सरकार में उद्योग, वित्त और विदेश मंत्री तथा आंध्र प्रदेश के राज्यपाल भी रहे। वे भारत के एक मात्र ऐसे नेता रहे जो दो राज्यों के मुख्यमंत्री रहे। आजादी के बाद हुए पहले विधानसभा चुनावों में तिवारी ने नैनीताल (उत्तर) से सोशलिस्ट पार्टी के बैनर तले चुनाव लड़ा था और कांग्रेस के खिलाफ जीत हासिल की थी। तिवारी ने 1963 में कांग्रेस ज्वाइन की थी। 1965 में तिवारी पहली बार मंत्री बने थे।
नारायण दत्त तिवारी एक जनवरी 1976 को पहली बार यूपी के मुख्यमंत्री बने। 1977 में हुए जेपी आंदोलन की वजह से 30 अप्रैल को उनकी सरकार को इस्तीफा देना पड़ा था। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की 1991 में हत्या के बाद कांग्रेस में प्रधानमंत्री पद के लिए तिवारी का नाम भी चर्चा में आया था। हालांकि नैनीताल सीट से लोकसभा का चुनाव वो जीत नहीं सके, जिसके चलते वो प्रधानमंत्री बनने से महरूम रह गए थे। इसके बाद वीपी नरसिम्हा राव पीएम बनने में सफल रहे। हालांकि कांग्रेस पार्टी की कमान जब गांधी परिवार के हाथों से निकली तो वह पार्टी में अलग थलग पड़ गए थे। इसी का नतीजा था कि तिवारी ने 1995 में कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी बनाई, लेकिन सफल नहीं रहे। कांग्रेस की कमान जब सोनिया के हाथों में आई तो पार्टी बनाने के दो साल बाद ही उन्होंने घर वापसी की, लेकिन इन दो वर्षों के दौरान कांग्रेस में उनके लिए कोई केंद्रीय भूमिका नहीं रह गई थी।
कांग्रेस की तत्कालीन अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अलग ढंग से उनका पुनर्वास किया। पहले उत्तराखंड में मुख्यमंत्री बनाकर भेजा। फिर 2007 में पार्टी चुनाव हारी तो तिवारी का पुनर्वास आंध्रप्रदेश के राज्यपाल के रूप में कर दिया गया। लेकिन सेक्स सीडी सामने आने के बाद कांग्रेस ने उन्हें राज्यपाल के पद से हटा दिया था। तिवारी ने जिंदगी में अनेक चुनाव जीते और हारे भी लेकिन 1991 का चुनाव हारने की टीस मृत्यु शैया तक उनके मन में गहरे तक पैठी रही। वे अक्सर खुले तोर पर इस दर्द को स्वीकारते थे। 24 अक्टूबर 2015 को नैनीताल में अपने विद्यालय सीआरएसटी इंटर कॉलेज पहुंचने के दौरान भी उन्होंने यह दर्द बयां किया था। उन्होंने 1991 के चुनाव की पूरी कहानी बयां करते हुए कहा था कि दिलीप कुमार की वजह से वह यह चुनाव हारे और प्रधानमंत्री नहीं बन पाए जबकि हैदराबाद के लिए अपना (राजनीतिक तौर पर) बोरिया-बिस्तर बांध चुके पीवी नरसिम्हाराव अपनी किस्मत से प्रधानमंत्री बन गए। उनके सामने बिना मेहनत थाली में सजा हुआ सा प्रधानमंत्री का पद आ गया। यह संयोग ही रहा कि तिवारी की राजनीतिक पारी का अंतिम पद हैदराबाद राजभवन में राज्यपाल के रूप में ही रहा।