ताकि '356' का बेजा इस्तेमाल न हो सके
किरण राय
पिछले दो महीने से जिस तरह की उठापटक उत्तराखंड में चल रही थी, उस पर शक्ति परीक्षण में हरीश रावत की जीत पर देश की शीर्ष अदालत की औपचारिक मुहर लगने के साथ ही विराम लग गया है। इस पूरे घटनाक्रम में जिस तरह की टिप्पणी उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र के खिलाफ दी वो कम से कम अब तक के भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में देखने और सुनने को नहीं मिली थी। अब तक ना तो देश की संवैधानिक कार्यशैली को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने दखलंदाजी की थी और ना केन्द्र को तल्ख टिप्पणियां सुननी पड़ी थीं।
पहले नैनीताल हाईकोर्ट ने राष्ट्रपति शासन के तरीके पर सवाल उठाये फिर सुप्रीम कोर्ट ने भी केन्द्र की खिंचाई की। नतीजे से पहले यानी फ्लोर टेस्ट से पहले ही सुप्रीम कोर्ट का संदेश स्पष्ट था। संदेश केन्द्र में बैठी एनडीए सरकार के लिए था। बहुत सरल भाषा में कोर्ट ने कहा कि केन्द्र अब 356 का बेजा इस्तेमाल ना करें।
बहरहाल, हरीश रावत जीत गए हैं। कांग्रेस को जश्न का मौका मिला है। उत्साहित कांग्रेस जन अपनी जीत को लेकर आश्वस्त थे। वहीं भाजपा बेचैन है। वैसे ये समय भाजपा के लिए आत्ममंथन का भी है। जहां उसे सोचना होगा कि भारतीय लोकतंत्र में इस तरह के कृत्यों का प्रतिफल कुछ ऐसा ही होगा। इस पूरे प्रकरण में साफ दिखा कि उच्चतम न्यायालय ने डंके की चोट पर राष्ट्रपति शासन को चुनौती दी और इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता की वो खुद फ्लोर के स्पीकर की जिम्मेदारियों का वहन करता दिखा। आपातकाल के समय भी विधायिका और न्यायिक व्यवस्था को लेकर ऐसी स्थिति नहीं दिखी थी।
केन्द्र प्रतिशोध की राजनीति करता दिख रहा है जिसका आरोप वो बरसों कांग्रेस पर लगाता आया है। उम्मीद की जानी चाहिए की सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से केन्द्र ने अब सबक लिया होगा। उम्मीद ये भी है कि अब 'कांग्रेस-मुक्त भारत' पर ही सरकार केन्द्रित नहीं होगी, बल्कि देश की जनता से किए विकास के वादे को पूरा करने की कोशिश में जुटेगी। उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय की तल्ख टिप्पणियां केन्द्र पर चले चाबुक की तरह है। हो सकता है कि इससे सबक लेकर अब केन्द्र कोर्ट, लोकतंत्र और धारा 356 को छेड़ने का जोखिम उठाने से बचे।