पीएम मोदी को लुभाता है इजरायल का राष्ट्रवाद
भारत की आजादी के 70 साल में किसी प्रधानमंत्री की पहली इजराइल यात्रा को लेकर नरेंद्र मोदी काफी उत्सुक है। भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगवानी के लिए भी इजरायल भी पूरी तरह से तैयार है। हालांकि मोदी इससे पहले 2006 में भी इस यहूदी देश की मेहमानवाजी का लुत्फ उठा चुके हैं। लेकिन तब वह गुजरात के मुख्यमंत्री थे। आज वह प्रधानमंत्री हैं। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर इतने साल बाद भारत को इजरायल की याद क्यों आयी?
'नीतीश की जय' या 'विनाशकाले विपरीत बुद्धि'
भाजपा द्वारा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को जब प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाए जाने की घोषणा की गई थी तो बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा था, 'विनाश काले विपरीत बुद्धि'। आज जब नीतीश को लग रहा है कि नरेंद्र मोदी देश के सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री बन गए हैं तो उनके हर फैसले का समर्थन कर एनडीए में वापसी की राह देख रहे हैं। नीतीश जैसे राजनीतिक रूप से प्रतिबद्ध शख्स के लिए यह विनाशकाले विपरीत बुद्धि जैसा ही होगा।
मोदी सरकार के तीन साल : तीन धमाके, तीन सवाल
केंद्र की मोदी सरकार ने अपने तीन साल पूरे कर लिए हैं। इन तीन सालों के कामकाज का निष्पक्ष और तथ्यात्मक विश्लेषण आज इसलिए जरूरी है क्योंकि इसके आधार पर ही भविष्य के बारे में सोचने की संभावना बनेगी। मोदी सरकार के तीन साल में तीन बड़े धमाके हुए जिनका असर वर्तमान में भी है और भविष्य में भी होना निश्चित है। पहला धमाका था नोटबंदी का। दूसरा पशुओं की खरीद-बिक्री पर रोक लगाने का और तीसरा किसानों के कर्ज माफ करने के वायदे से मुकरने का। इनमें से हर धमाके का अलग-अलग असर साफ दिखाई दे रहा है।
किसान आंदोलन और अलग-थलग पड़ते शिवराज
किसानों के आक्रोश की गर्मी से पूरा मध्यप्रदेश तप रहा है। तपिश का असर मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार से लेकर केंद्र की मोदी सरकार तक साफ नुमाया है। किसान पुत्र मुख्यमंत्री प्रदेश में बेकाबू हालात को काबू में लाने के लिए हर संभव प्रयास कर तो रहे हैं लेकिन सारी कवायद सफल होने के बजाय हांफती दिख रही है। शिवराज के संकट मोचक इस बार सक्रिय भूमिका में न होकर मुख्यमंत्री से कटे-कटे नज़र आ रहे हैं।
रावण रथि वीरथि रघुवीरा
आज न तो कोई रावण है न ही कोई राम है और न ही विभीषण। लेकिन युद्ध के कारण और युद्ध में शामिल होने वाले लोग आज के हालात में भी प्रासंगिक हैं। युद्ध में शामिल एक वर्ग है जो हर तरह से शक्ति और साधन से संपन्न है। वह सत्तारूपी रथ पर सवार है। दूसरी तरफ एक वर्ग उन लोगों का है जो हर तरह से साधनहीन है। सत्ता और साधन संपन्न वर्ग सिर्फ अपनी ताकत पर गर्व का प्रदर्शन ही नहीं कर रहा है बल्कि साधनहीन वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वालों पर अपमान भरे शब्दों का तीखा प्रहार भी कर रहा है।
अन्नदाता का दर्द और बेरहम प्रधान सेवक
गुलाम और आजाद भारत कई तरह के विरोध प्रदर्शनों का गवाह रहा है, लेकिन दिल्ली के जंतर मंतर, प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री आवास के बाहर अंतराल दर अंतराल ऐसा प्रदर्शन (तमिलनाडु के किसानों का आंदोलन) कभी नहीं देखा। गांधी के सत्य और अहिंसा से प्रेरित किसानों का एक महीने से अधिक समय से चला आ रहा विरोध प्रदर्शन यह जताने के लिए पर्याप्त है कि सूखा, कर्ज और बेकार की नीतियां देश के किसानों को किस तरह से लील रही हैं।
लोकतंत्र या कुलीन तंत्र
लोकतंत्र असल में उन सभ्य लोगों का शासन तंत्र है जो आम सहमति से निर्णय लेने और प्रशासन चलाने में भरोसा रखते हैं। लेकिन हाल की कुछ घटनाओं से यह महसूस होने लगा है कि लोकतंत्र को पीछे धकेला जा रहा है और इस बात की पूरी कोशिश है कि देश को हिन्दू राष्ट्र से आगे उसे कुलीन तंत्र में बदल दिया जाए। यह एक खतरनाक संकेत हैं। यह कौन कर रहा है और कैसे कर रहा है इसपर देश के तमाम राजनीतिक दलों और वैचारिक प्रतिबद्धता की लड़ाई लड़ने वाले बुद्धिजीवियों को सोचना होगा। देर की तो शायद बहुत मुश्किल हो जाएगी।
भिखारी मत बनाइए अन्नदाता को
उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार द्वारा पहली ही कैबिनेट बैठक में किसान कर्ज माफी का चुनावी वायदा (एक लाख रुपये के कृषि ऋण की सीमा में ही सही) वफा कर दिये जाने के बाद हरियाणा, पंजाब और महाराष्ट्र समेत अनेक राज्यों से ऐसी मांग उठना स्वाभाविक है। बेशक प्रकृति और व्यवस्था की मार से बेजार किसानों को हरसंभव राहत मिलनी ही चाहिए। अन्नदाता का आत्महत्या करने को मजबूर होना किसी भी सरकार और समाज के लिए अभिशाप ही है।
गांधी, गाय और गोरक्षक
गांधी जी का कहना था, गोरक्षा प्रचारिणी सभा का होना हमारे लिए बदनामी की बात है। जब गाय की रक्षा करना हम भूल गए तब ऐसी सभा की जरूरत पड़ी। आज गाय लाते-ले जाते किसानों की पीटकर हत्या की जा रही है। ऐसे वक्त में गौ-भक्ति को लेकर महात्मा गांधी के सम्यक विचारों पर चर्चा जरूरी हो जाती है। ख़ुद को गोभक्त हिंदू कहने वाले गांधी कानून बनाकर गोहत्या रोकने या गाय के नाम पर ख़ून-ख़राबा और उपद्रव के घोर विरोधी थे। यह आलेख गाय के बारे में गांधी जी के विचार हैं जिसे उन्होंने यंग इंडिया में लिखा था।
दलीय स्वार्थ से ऊपर उठना जरूरी
पिछले 70 साल में केंद्र में भी और राज्यों में भी विभिन्न दलों की सरकारों को जनता ने मौका दिया है। पहले की तरह आज भी जनता सबकी बात सुनेगी और वह अपने हिसाब से ही फैसला देगी। लेकिन राजनीतिक दलों को यह जरूर सोचना चाहिए कि वे अपनी बात जनता तक सही ढंग से पहुंचा सकें। अगर देश की जनता को गुमराह करने का कोई प्रयास होता है तो उसे सही रास्ते पर लाने का प्रयास करना भी राजनीतिक दलों की ही जिम्मेदारी है।