ये नतीजा बहुत कुछ कहता है
भले ही भाजपा खुश हो रही हो कि उसने जबरदस्त बाजी मारी हो। 10 में से विधानसभा की 5 सीटों पर विजय पताका फहराई हो, लेकिन इन्हें मानना पड़ेगा कि उप-चुनाव के नतीजे अगर कांग्रेस के लिए ज्यादा उत्साहवर्धक नहीं हैं तो भाजपा को भी ये नतीजे 2014 के चुनावों जैसी खुशी देने वाले नहीं हैं। पांच पर जीती तो पांच गंवा भी दी। कांग्रेस को भी अपनी राष्ट्रीय छवि को लेकर गहरा मंथन करना जरूरी है, वो भी 3 सीटों पर सिमटी है। पश्चिम बंगाल और झारखण्ड में ये दोनों राष्ट्रीय दल स्थानीय पार्टियों के आगे टिक नहीं पाए।
कश्मीर की आत्मा को टटोले सरकार
श्रीनगर में 7 फीसदी मतदान, कश्मीरियों के दरकते विश्वास का प्रमाण नहीं तो और क्या है। पांच दशक में सबसे कम वोटिंग हमारे सियासतदां के चेहरे पर जोर का तमाचा है। इससे पता चलता है कि कश्मीर एक बार फिर अलगाववादियों की भाषा बोलने लगा है। अलगाववादियों का इकबाल बुलंद हो रहा है और लोकतंत्र के पाये हिलने लगे हैं। ये एक चेतावनी है। राजनीतिज्ञों के लिए। अब कश्मीर की मूलभूत आवश्यकताओं को लेकर नजर चोरी से काम नहीं बनेगा। खासतौर पर युवाओं के लिए रोजगार के नए अवसर मुहैया कराने के लिए ठोस कदम उठाना होगा।
कॉरपोरेट्स को ये छूट क्यों?
केन्द्र ने वित्त विधेयक को लोकसभा में पारित करा ही लिया। सरकार ने राज्यसभा द्वारा सुझाये संशोधनों और मशविरे को सिरे से नकार दिया और जता दिया कि कॉरपोरेट्स द्वारा राजनीतिक दलों की फंडिंग पर कैप या उस पर प्रतिबंध की शर्तें वो अपनी सुविधा और विवेक से ही लगायेगा। हालांकि सांसद सीताराम येचुरी की सलाह की बात में दम था, फिर भी कॉरपोरेट्स के हक में कुछ नियम की ढिलाई बरतने में सरकार ने कोई कमी नहीं रख छोड़ी। सवाल उठता है कि आखिर कॉरपोरेट्स को ये छूट क्यों?
...क्योंकि ये तो इनका हक है!
वीआईपी नेता होने का मतलब क्या है ये वीरेन्द्र गायकवाड़ ने बखूबी समझा और जता दिया है। एक आम के खासमखास बनने की अजीब दास्तान के वाहक हैं फायर ब्राण्ड पार्टी शिवसेना के सांसद। इन्हें गलती पर ना अफसोस है ना अपने किए पर कोई शर्मिन्दगी। ऐसे में सवाल यही कि आखिर इसका हल क्या है? ये बहुत मुश्किल है क्योंकि जब राजनीतिक दल ही अपने नेता के सिर पर हाथ रख दें...उनकी गलती को भी अपनाने में कतरायें, तो मान लें कि ऐसी ठसक और हनक उनका हक है और इसके लिए उनका कोई भी कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता?
असत्यमेव जयते
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के नतीजे वाकई हैरान करने वाले हैं। यकीन दिलाने वाले की अगर आप में सपने बेचने की कुव्वत है तो आपको आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। अगर कोई कहता है कि जनता बहकावे में रहकर सब्जबाग दिखाने वाले पर आंख मूंदकर भरोसा करती है तो चुनावों के नतीजों ने उसे साबित कर दिया। इन नतीजों ने जता दिया कि सच्चाई चूंकि कड़वी होती है इसलिए उसे जज्ब करने का हौसला लोग नहीं दिखा पाते हैं। सच तो ये है कि एक हवा चली और उसने सच के धरातल से लोगों को दूर कर दिया।
कैम्पस को तो बख्श दो
जेएनयू और डीयू फिर सुर्खियों में है। मुद्दा फिर राष्ट्रभक्त बनाम राष्ट्रदोह। कैम्पस में जो कुछ सीखने, कुछ सबक लेने जाते हैं वही आज अनर्गल सी बातों और विचारों को लेकर मैदान-ए-जंग में है। खुद को दूसरे से बेहतर बताने की जुगत में मर्यादाओं, संस्कृति और संस्कारों की आहुति दी जा रही है। अपने दिल में छुपे गुब्बार को सोशल प्लेटफॉर्म पर कुछ इस तरह परोसा जा रहा है जिसमें ना शालीनता झलकती है और ना तथाकथित राष्ट्रप्रेम। कैम्पस की इस लड़ाई ने बड़े लोगों को भी अपनी राजनीति को चमकाने का मौका दे दिया है। ये सोचे बगैर की इस से फायदा भले उनका हो रहा है लेकिन नुकसान एक पूरी पीढ़ी का हो रहा है।
इन्हें शर्म आती नहीं...
इन्हें क्या कहें? लाखों-करोड़ों के नुमांइदे हैं। वोट मांगने जाते हैं तो सिर झुका रहता है और शालीनता का लबादा ओढ़े रहते हैं लेकिन जब सदन में अपनी नहीं चला पाते तो वो सब करते हैं जिसे देखकर आम जनता तो सोचती है कि लोकतंत्र का मंदिर शर्मसार हो रहा है लेकिन इनकी आंखों में कहीं भी किसी भी तरह का पछतावा या अफसोस नहीं दिखता। शनिवार को जो कुछ तमिलनाडु विधानसभा में हुआ वो एक बार फिर लोकतंत्र के प्रति आस्थावानों के ऊपर वार जैसा है। कुर्ते फाड़े गए, कुर्सियां उठाकर फेंकी गईं, माइक पर हाथ साफ किया गया...कुल मिलाकर जो निर्जिव सामान हाथ में आया उसे चला दिया गया। क्या इसे सुर्खियों में आने का बेहद शर्मनाक हथकंडा ना कहा जाए?
चाही थी कुर्सी, मिली जेल
तमिलनाडु में तेजी से बदल रही स्थितियों और परिस्थितियों को देखकर सब दंग हैं। कहां तो नए मुख्यमंत्री की ताजपोशी की तैयारियां जोरों पर थी और कहां अब सारा मामला ही कयासों की अंधेरी गली से गुजरता नजर आ रहा है। उच्चतम न्यायालय के एक फैसले ने दक्षिण भारत के इस राज्य की दिशा ही बदल डाली है। कुर्सी की आस लगाए बैठी चिनम्मा यानी वीके शशिकला को फिलहाल तो जेल ही नसीब होती दिख रही है। किसी फंतासी कहानी की तरह सारा घटनाक्रम चला। टग ऑफ वॉर शुरू हुआ। दोनों अपने साथ विधायकों की ज्यादा तादाद होने का दम भरते रहे और गवर्नर विद्यासागर राव तक पहुंच कर दावेदारी के सही हकदार जताने लगे। मामले को लेकर सभी पशोपेश में थे। लेकिन आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फरमान सुना ही दिया।
महंगाई का मुद्दा फिर हाशिये पर
बीते एक महीने के आंकड़ों पर गौर करें तो चीनी, आटा, गेहूं, ब्रेड से लेकर छोले, मूंगफली और चॉकलेट तक सभी चीजें महंगी हो गई हैं। आम बजट के बाद भी कुछ चीजों के दाम बढ़े हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के चुनाव में महंगाई कोई मुद्दा नहीं है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले चरण में वेस्ट की 73 सीटों पर मतदान के दिन तक नेता जात-पांत, सांप्रदायिक मुद्दे और स्थानीय मुद्दों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते दिखे। 6-7 दशक के राजनीतिक अनुभवों ने देश के राजनीतिज्ञों को यह समझा दिया है कि चुनाव मुद्दों से नहीं बल्कि समीकरणों से जीता जाता है। ऐसे में एक मतदाता जो आम आदमी भी है को यह समझना होगा कि उनसे बनी राजनीति और सरकार उसे संविधानप्रदत्त बुनियादी अधिकारों से वंचित न करने पाए।
गांधी हम शर्मिन्दा हैं
26 जनवरी एक राष्ट्रीय पर्व। इस जश्न की कल्पना कम से कम अभी तक हमने बापू के बिना नहीं की थी, लेकिन भला हो सरकार का उसने हमें इसकी आदत डलवानी शुरू कर दी है। 68वें गणतंत्र दिवस के शोर के बीच गांधी के कहे को कौन याद करता है। जिस खादी को देश की अस्मिता, स्वावलंबन और सम्मान से जोड़ा उस खादी को अब ब्राण्ड वैल्यू की दरकार है। बापू तो वैसे भी ब्राण्ड नहीं, वो तो एक फकीर हैं, सो फकीर को फैशनपरस्तों और दिखावे की दुनिया से क्या वास्ता, बापू! तभी शायद तुम्हें खादी से अलग कर दिया गया। तुम अब अतीत हो, ये हमारे माननीय कई तरीकों से जता रहें हैं।